SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 23
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अपनी बात बीते हुए जीवन के अनेकानेक पहलुओं को जान लेने, देख लेने व जी लेने के बाद; आज ये विचार मुझे अक्सर परेशान किए रहते हैं कि काश! जीवन की इन सच्चाइयों को मैं पहले ही जान सका होता तो मैंने अपना बीता जीवन इसतरह नहीं जिया होता, मेरी जीवन प्रणाली कुछ और ही होती। कभी-कभी सोचता हूँ कि - काश ! जीवन दो बार जीने को मिलता; एक बार सीखने के लिए, अनुभव लेने के लिए, ट्रायल करने के लिए व फिर दूसरी बार पूरी तरह जीने के लिए; पर यह तो कल्पनालोक की उड़ान है, यथार्थ जीवन में तो यह सम्भव नहीं है। जो हो चुका है, उसमें तो परिवर्तन सम्भव नहीं है; पर अब क्यों न बाकी बचे भावी जीवन के बारे में यह प्रयोग किया जावे? औरों के जीवन को पढ़कर, उसे आत्मसात कर, विभिन्न अवस्थाओं व परिस्थितियों को, उनके अहसासों को कल्पना के धरातल पर ही स्वयं जीकर, क्यों न अपनी परिस्थितियों के अनुकूल, अपनी रुचि के अनुकूल, अपनी आवश्यकता के अनुकूल, अपनी भावी जीवन शैली की योजना तैयार की जावे; ताकि फिर कभी यह सदमा न भोगना पड़े कि - काश ! पहले मालूम होता, मैं पहले ही यह सच्चाई समझ पाया होता ! ___ अपनी इस योजना के अनुरूप जब मैंने निष्कर्ष निकालने के लिए चिन्तन के स्तर पर जीवन का विश्लेषण प्रारम्भ किया तो कुछ ही दिनों में बुरी तरह भ्रमित (कन्फ्यूज्ड) हो गया; क्योंकि अनेकों अहसास व अनेकों विकल्प (Alternatives) आपस में ही टकराने लगे और चिन्तन व्यवस्थित नहीं हो पाया। तब मैंने अपने चिन्तन को व्यवस्थित बनाये रखने के लिए लेखनी का सहारा लेने का निश्चय कर लिया। इसतरह इस लेखन का प्रारम्भ आप सभी के लिए व किसी अन्य के लिए नहीं, वरन् स्वान्तःसुखाय ही हो गया था; पर आज आप सभी के समक्ष यह स्वीकार करने में मुझे कोई हिचक नहीं है कि जब मैं लिखने बैठा तो अपने नग्न अहसासों व चिन्तन के प्रति ईमानदार न रह सका; क्योंकि मैं अच्छी तरह जानता अन्तर्द्वन्द/iii - हूँ कि लिखित विषयवस्तु अनन्तकाल तक मात्र व्यक्तिगत सम्पत्ति बनकर नहीं रह सकती, एक न एक दिन तो वह सार्वजनिक हो ही जावेगी और तब मैं मात्र वही लिख पाया जिन मनोभावों के प्रकट हो जाने में मुझे कोई संकोच न था। इसी के साथ मेरे अन्दर प्रसुप्त साहित्यिकता के कीटाणु सक्रिय हो गये और इसतरह मेरा चिन्तन एक कृति का रूप लेने लगा। जब मात्र स्वयं के लिए, सिर्फ सोचता ही था, तब चिन्तन आधा-अधूरा बना रहता था, न जाने विचारों की श्रृंखला चिन्तन के किस बिन्द से प्रारम्भ होती व कहाँ टूट जाती, उसका न कोई ओर था न छोर; पर जब लिखना प्रारम्भ किया तो आवश्यकता महसूस हुई कि चिन्तन व्यवस्थित व सम्पूर्ण होना आवश्यक है। ___ उधर दूसरी ओर एक समानान्तर चिन्तन मेरे मस्तिष्क में चला करता था कि सामान्य श्रावक से साधकदशा का विकास एक प्राकृतिक व स्वाभाविक प्रक्रिया है, जो अन्तरंग वृत्तियों व परिणामों की विशुद्धि के समानान्तर बाह्य जीवन में भी स्वयमेव ही आकार ले लेता है, ऊपर से कुछ भी ओढ़ने की आवश्यकता नहीं होती, ऊपर से ओढ़ा हुआ आचरण तो बाह्य परिधान (वस्त्रादि) की भांति बोझिल ही होता है। इस स्वाभाविक विकास को रेखांकित करते हुए एक चरित्र की रचना करना मेरी चिरसंचित अभिलाषा थी ही, सो मैंने अपने इन दोनों विचारों को एकमेक करके प्रस्तुत करने का निश्चय किया व 'समकित' शीर्षक से एक कथानक की रचना प्रारम्भ कर दी। उक्त रचना कुछ समय तक क्रमिक रूप से 'जैनपथप्रदर्शक' पाक्षिक में प्रकाशित भी होती रही, पर उस कथानक के विकास से मैं स्वयं संतुष्ट नहीं था; अतः उसे बीच में ही रोक देना पड़ा। उसी रचना को पुनः नये रूप में कुछ परिवर्तन-परिवर्धन के साथ लिखना प्रारम्भ किया। अभी, ३०-४० पेज ही लिख पाया था कि प्रसंगवश दादा का बम्बई आगमन हुआ और मैंने यह रचना पढ़कर उन्हें सुनाई । अबतक ऐसे अवसरों पर प्रतिक्रिया विहीन चुप्पी साधे रहनेवाले दादा (मेरे पूज्य पिताश्री डॉ. हुकमचन्दजी भारिल्ल) इस बार यूँ तो चुप ही रहे; पर मेरी डायरी के प्रथम पृष्ठ पर निम्नांकित संस्कृत श्लोक अर्थ सहित लिख दिया - अपनी बात/iv
SR No.008339
Book TitleAntardvand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmatmaprakash Bharilla
PublisherHukamchand Bharilla Charitable Trust Mumbai
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size150 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy