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वस्त्रादिक से भी अलिप्त हो जाता है। बाजार जाकर नवीनतम चलन के वस्त्रों के चुनाव की तो बात क्या; पर स्वयं के पास उपलब्ध वस्त्रों को भी ठीकप्रकार से पहिनने की रुचि नहीं रहती, सामान्यजनों को प्रथम निगाह में ऊंटपटांग से लगने वाले ढीले-ढाले बेडौल से वस्त्र बस यूं ही शरीर पर डाल भर लेता है; डाल भी क्या लेता है, यदि साथी-सहचर बलात् ही न डाल दें तो शायद....
वस्त्र तो वस्त्र भोजनादिक की भी रुचि कहाँ रहती है ? रुचि न रहना एक बात है व अरुचि हो जाना दूसरी । उसे तो भोजन ग्रहण के प्रति अरुचि हो जाती है। स्वयं भोजन ग्रहण का तो भाव ही नहीं आता है, अन्य सामान्य लोगों के मनाने पर भी भोजन स्वीकार नहीं करता है। अत्यन्त निकट के प्रियजन जब भांति-भांति समझाते हैं, मान-मनुहार करते हैं तो अनन्त उपेक्षा पूर्ण ढंग से अपनी शर्तों पर थोड़ा-बहुत ग्रहण कर लेता है, उसमें भी यदि भोजन करते हुए बीच में कुछ भी व्यवधान आ जाये तो फिर अलिप्त हो जाता है।
उसका ध्यान तो बस अपने जीवन की रक्षा के उपायों पर ही केन्द्रित बना रहता है, यदि कुछ काल के लिए उस ध्यान से च्युत भी हो जाता है तो फिर तुरन्त ही उपयोग वहाँ पहुँच जाता है।
इस बीच यदि कोई मित्र, परिजन, मिलने आ पहुँचें तो यदि उधर लक्ष्य जावे तो थोड़ी बात कर ले, यदि न जावे तो न करे; वह व्यावहारिकता से परे हो जाता है, जगत के व्यवहार की उसे चिन्ता नहीं रहती।
यदि शरीर की रक्षा के लिए सम्पूर्णत: समर्पित व्यक्ति शरीर की सम्भाल की ओर से इतना निस्पृह और निरीह हो जाता है तो आत्मकल्याण की तीव्र भावना वाले आत्मज्ञानी, आत्मार्थी की दशा (मुनिदशा) के बारे में संदेह कैसा ? क्या आश्चर्य है कि उसके तन के वस्त्र छूट ही जायें, उसे स्नान व दंतधोवन का विकल्प भी न आवे, निद्रा नाममात्र रह जावे, सामान्य रूप से तो भोजन का विकल्प ही न आवे व कदाचित् विकल्प
अन्तर्द्वन्द/३५
आने पर श्रावक द्वारा नवधाभक्तिपूर्वक पड़गाहने पर व प्रतिज्ञाबद्धरूप से शुद्धि की घोषणा करने पर अत्यन्त अरुचिपूर्वक थोड़ा आहारग्रहण हो, उसमें भी मामूली-सी घटना अन्तराय का निमित्त बन जावे । या तो उपयोग आत्मस्थ ही बना रहे या यदि कुछ पलों के लिए आत्मा से च्युत भी हो तो खटक बनी ही रहे । पूजा करने वालों को आशीर्वाद देने का भाव भी आवे तो आवे या न भी आवे।
ऐसी यह धन्य मुनिदशा संसार की निःसारता की स्वीकृति की पराकाष्ठा है।
यह धन्य मुनिदशा यदि इस जीवन में स्थापित हो जाती तो यह जीवन सार्थक हो जाता, पर अभी जीवन में आने की तो बात ही कहाँ, अभी तो यह मुनिदशा मेरी कल्पना में भी नहीं आती है ? इस जीव की ऐसी दशा भी हो सकती है, इतनी वीतरागी, इतनी अलिप्त, इतनी निरीह, इतनी निष्काम? यह बात मेरी कल्पना को भी स्वीकार नहीं हो पाती है, आधे मन से गर्दन तो हिलती रहती है; पर एक शंका व हिचक बनी ही रहती है।
पर यह हिचक व झिझक कबतक चलेगी? आखिर कबतक ?
न जाने कितने लोक लुभावन बहाने बनाकर मैं जीवन भर यह अन्तिम निर्णय लेने से बचता रहा; इसे एक और कल तक के लिए टालता रहा। पहले तो फिर भी आशा बनी ही रहती थी, कि एक और कल मेरे जीवन में आवेगा, एक सुहानी सुबह आवेगी ताजगी व स्फूर्ति से भरपूर । एक नया सूरज उगेगा। पर अब आज जैसे-जैसे एक-एक दिन व्यतीत होता जा रहा है, यह सम्भावना ही प्रबल होती जा रही है कि हो न हो यह मेरे जीवन का अन्तिम दिन ही हो। हर दिन जब मैं ढलता हुआ सूरज देखता हूँ तो वितृष्णा से भर उठता हूँ, उसमें झलकता हुआ अपना बिम्ब दिखाई देता है, प्रतिपल क्षीण होता उसका तेज, अब मुझे स्वीकार नहीं होता; क्योंकि मैं भी तो प्रतिपल इसीतरह ढलता जा रहा हूँ। उस तेजहीन ढलते हुए सूरज को भी भरपूर निरख लेने की मेरी तृष्णा अब
- अन्तर्द्वन्द/3६