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और हम एक अपरिष्कृत समाज के बीच रहने के लिए अभिशप्त बने रहते
हैं।
कि उन कुकर्मों में मैं स्वयं लिप्त नहीं हुआ, परन्तु अपने ही कॉलेज के साथी मित्रों द्वारा अनेकों नवयौवनाओं के उज्ज्वल जीवन में अनंत अंधकार बिखेर देने के प्रयासों का मैं मूक साक्षी कैसे बनकर रह सका ?
क्या सचमुच ही मैं अपने स्वयं के मित्रों को रोकने में अक्षम था ? मुझे उन कन्याओं में अपनी भगिनी (बहिन) के दर्शन क्यों नहीं हुए? कहीं मेरे अवचेतन के किसी कोने में छुपी वासना उनका मौन अनुमोदन तो नहीं किया करती थी ? क्यों नहीं मैंने उस दौर में अपने अन्तर को टटोलने का प्रयास किया ? क्या किसी की क्षणिक वासना की तृप्ति के लिए, किसी का संपूर्ण जीवन कलंकित कर डालने का प्रयास काविले माफ है?
मैं तो अपने आपको चारित्रिक व मानसिक धरातल पर समाज के उच्चतम वर्ग का प्रतिनिधि समझता हूँ। अगर इस सर्वोच्च वर्ग का मानस ऐसा है तो अन्य किससे क्या अपेक्षा की जा सकती है ? और सारा समाज इसीप्रकार की वृत्तियों से आप्लावित है - यह जानकर आज अपने कोमलमति बालकों को रक्षणहीन, स्वतंत्ररूप से अपने इस समाज में विचरण करने के लिए अकेला छोड़ने की कल्पनामात्र आज मुझे कम्पायमान कर देती है।
एक सभ्य समाज अपने सदस्यों से सभ्य, नैतिक, उदार एवं सच्चरित्रमय स्नेहिल व्यवहार की अपेक्षा करता है और लड़कपन का उद्दाम प्रवाह इसप्रकार की अपेक्षाओं को बन्धनों का नाम देकर रोंद डालना चाहता है; पर वक्त के साथ-साथ जब वह प्रवाह मन्द पड़ता है व हम शिकारी से मिटकर शिकार बनने की स्थिति में आने लगते हैं; तब हमें सभ्यता, नैतिकता, उदारता, सच्चरित्रता एवं स्नेह के सुरक्षा कवच की आवश्यकता गहराई से महसूस होने लगती है; पर उससमय कोई और लड़कपन की उन्हीं निर्लज्ज, निष्ठुर, उदण्ड, उद्दाम तरंगों पर सवार होकर समाज की उक्त अपेक्षाओं के विरुद्ध विद्रोह का विगुल बजाने लगता है
अन्तर्वन्द/११ -
___क्या हम स्वयं अपनी वृत्तियों को परिमार्जित करके अपने स्वयं के लिए एक बेहतर समाज की रचना नहीं कर सकते; एक ऐसा समाज, जिसमें रहने से हम भयभीत व सशंकित न रहें; हम अपने आपको संरक्षित महसूस करें।
अब वर्माजी वाले मामले की ही बात लीजिए। इस बात से कौन इन्कार करता है कि पड़ौस वाले वर्माजी का हमारे घर की भूमि का एक हिस्सा दबा लेना, एक अन्यायपूर्ण कदम था; तथापि क्या उस कुछ गज भूमि के टुकड़े के लिए अनेकों वर्षों तक कोर्ट में केस लड़ना व अपने उपयोग को उसमें उलझाये रखना मेरे लिए उचित था? मैंने कितनी रातें काली की हैं उन द्वेषपूर्ण विचारों में। आखिर मिला क्या ? भूमि का वह टुकड़ा तो पहले भी वहीं था, अब भी वहीं है; तब भी खाली पड़ा था, अब भी वैसा ही खाली पड़ा है।
जीवन के वे कुछ वर्ष व वह महत्त्वपूर्ण समय जो किसी सार्थक चिन्तन में बीत सकता था, द्वेष के गन्दे नाले में बह गया। शायद वर्माजी द्वारा किया गया वह छोटा-सा अन्याय, मेरे स्वयं के द्वारा अपने स्वयं के प्रति किये गये अनन्त कर्मबन्धन के इस घोर अन्याय के सामने नगण्य ही ठहरता। __और फिर वर्माजी का प्रकरण तो मात्र एक उदाहरण मात्र है, पर इसतरह के अनेकों प्रसंग कदम-कदम पर मेरे जीवन में आते रहे और उन्हें निमित्त बनाकर मैं निरन्तर ही आर्त-रौद्र ध्यान में व्यस्त रहा, बड़े-बड़े सैद्धान्तिक जामे पहिनाकर अपनी इसी मलिन परिणति को विभूषित करता रहा।
“अन्याय करना भी अपराध है व अन्याय सहना भी अपराध है।"
उक्त उक्ति का सहारा लेकर अपने हर विद्वेषपूर्ण कर्म को अन्याय के विरुद्ध अपने संघर्ष का नाम देता रहा। यदि सचमुच हम उक्त सिद्धान्त का पालन करते हैं तो हर समय क्यों नहीं, हर घटना में क्यों नहीं, हर व्यक्ति के
अन्तर्द्वन्द/१२