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________________ साथ क्यों नहीं; इसी सिद्धान्त को लागू करते ? सिर्फ कहीं-कहीं ही क्यों? पर हम तो सिद्धान्तवादी नहीं, सुविधाभोगी जीवन जीते हैं, जहाँ कोई तथाकथित सिद्धान्त हमारे क्षणिक स्वार्थ का पोषण करता है, वहाँ हम सिद्धान्तवादी बन जाते हैं और किसी क्षुद्र से स्वार्थ की पूर्ति में यदि बड़े बड़ा सिद्धान्त बाधक बनता है, तो हम उसकी भी परवाह नहीं करते हैं। जब किसी लंगड़े- लूले, अपंग-असमर्थ, बूढ़े- भिखारी को मात्र पेट भरने के लिए एक-दो रुपये भीख देने का सवाल खड़ा होता तो भिक्षावृत्ति को बढ़ावा न देने का मेरा सिद्धान्त आड़े आ जाता है और मेरी जेब में पड़े वे सिक्के वहीं अठखेलियाँ करते रह जाते हैं, मेरे हर कदम के साथ 'हरी कीर्तन' करते रहते हैं व उस भिखारी के पेट में चूहों की उछल-कूद जारी रहती है; पर ट्रेन में एक रात के लिए सीट पाने के लिए हम तुरन्त कुछ सौ रुपये निकाल कर टी.सी. को दे देते हैं एवं धन्यवाद बोलते हैं। तब हमें याद नहीं आता कि इसतरह रिश्वतखोरी को बढ़ावा देकर मैं सम्पूर्ण समाज को भ्रष्ट कर रहा हूँ और यह नासूर न जाने देश और समाज को किस गर्त में ले जावेगा। सचमुच यह संसार तो सम्पूर्णतः अन्यायपूर्ण ही है। अरे ! अन्यायपूर्ण क्या ? 'अन्याय' ही संसार है व संसार मात्र 'अन्याय' ही है। अरे दैनिक जीवन की छोटी-बड़ी बातों की तो बात ही क्या की जावे ? कौन फैसला करेगा कि ट्रेन में चढ़ते वक्त आपने मुझे जो धक्का दिया, वह इरादापूर्वक किया गया कृत्य था या अनायास, उचित या अनुचित, काबिलेमाफ था या नाकाबिले माफ ? अरे यहाँ तो अपने एक समय की उदरपूर्ति के लिए एक प्राणी दूसरे प्राणी को बिना अपराध, बिना पहिचान, बिना शत्रुता - मित्रता के, जीवित ही निगल जाता है और किसी को कोई मलाल नहीं रहता। ऐसे इस जगत में न्याय-अन्याय की बात करना बेमानी नहीं लगता ? क्या अब भी न्याय की कोई उम्मीद रह जाती अन्तर्द्वन्द / १३ है ? यदि हमें न्याय ही चाहिए तो “मात्र मुक्ति का विचार ही अन्याय का प्रतिकार हो सकता है।" समझाने को तो मैं अपने मन को समझा सकता था कि प्यार, युद्ध व व्यापार में सब जायज है; पर क्या मैं सचमुच अपने आपको उस मुनाफा खोरी के कृत्य के लिए माफ कर पाऊँगा, जिसके कारण हो न हो कितने लोगों को चार रोटियों की आवश्यकता होते हुए भी तीन रोटियों से ही संतुष्ट होना पड़ा होगा, या कि बच्चे का पेट अच्छी तरह से भरने के प्रयास माता को भूखा ही सो जाना पड़ा होगा। आखिर इसप्रकार उपार्जित वह धन आज मेरे किस काम आया ? आज तो मुझे न उसे गिनने का अवकाश है न सम्भालने की सामर्थ्य; इस निष्ठुर कृत्य से उपार्जित वह द्रव्य आज मेरी सम्पत्ति का एक नगण्य सा हिस्सा ही तो है। उन निर्दयी परिणामों के फलस्वरूप हुए कर्म बन्धनों का अनन्त बोझ तो आज मेरे सिर पर है; पर क्या इस राशि का कुछ भी हिस्सा मैं अपने साथ ले जा सकूँगा ? पैसा! पैसा!! पैसा !!! न जाने कैसी अद्भुत वस्तु है यह पैसा ! मानव सभ्यता का अनुपम अनुसंधान एक विस्मयकारी सर्जन । आचार्यों ने कहा है समयो सव्वत्थ सुन्दरो लोए अर्थात् आत्मा लोक में सबसे सुन्दर है; पर हमें तो लोक में पैसे से ज्यादा सुन्दर कुछ दिखाई ही नहीं देता; न जाने कैसा गजब का आकर्षण है इसमें । सारी दुनिया दीवानी हुई जा रही है इसके पीछे । क्या सचमुच यह ऐसी वस्तु है, जिसके पीछे सबकुछ समर्पित कर दिया जावे, कोई भी बलिदान किया जा सके । जिस पैसे के लिए हम अपना सारा जीवन झोंक डालते हैं, क्या वह सम्पूर्ण पैसा देकर भी हम पुनः जीवन का एक क्षण भी खरीद सकते हैं ? नहीं ! तब हम अपना यह जीवन धनोपार्जन में कैसे झोंक सकते हैं ? अन्तर्द्वन्द / १४
SR No.008339
Book TitleAntardvand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmatmaprakash Bharilla
PublisherHukamchand Bharilla Charitable Trust Mumbai
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size150 KB
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