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________________ जगत में सोने का भी बड़ा आकर्षण है। पर वह जगत के परिप्रेक्ष्य में उचित ही कहा जावेगा; क्योंकि हम पैसा देकर सोना खरीद सकते हैं व जब चाहें सोना बेचकर फिर पैसा प्राप्त कर सकते हैं। दोनों के बीच बराबरी का व्यवहार है और इसलिए दोनों बराबरी की वस्तुएँ हैं, एक के पीछे दूसरे की कीमत चुकाई जा सकती है, पर जीवन और पैसे के बीच इसप्रकार का रिश्ता नहीं है, सारा जीवन झोंक डालें फिर भी पैसा मिले तो मिले, न मिले तो न भी मिले। यदि मिल भी जावे, विपुल दौलत मिल जावे; तब भी उस सारी दौलत को एक क्षण के जीवन में परिवर्तित नहीं किया जा सकता। उक्त तथ्य साबित करता है कि जीवन कोई बाजारु चीज नहीं है, क्योंकि यह बाजार के नियमों का पालन नहीं करता। ठीक यही फार्मूला चरित्र पर, भावनाओं पर व संवेदनाओं पर भी लागू होता है। अपने चरित्र का पतन कर व स्नेहीजनों व समाज की भावनाओं को आहत कर हम धन-दौलत तो जुटा सकते हैं, पर फिर धन-दौलत लुटाकर चरित्र व भावनायें पैदा नहीं की जा सकतीं; इसलिए मैं कहता हूँ कि ये वस्तुएँ भी बाजारु नहीं, क्योंकि ये भी बाजार के नियमों का पालन नहीं करतीं। यदि इस दृष्टिकोण से मैं विचार करता तो क्या सारा जीवन यूँ ही 'धन संग्रह' में ही नष्ट कर डालता ? अब रामू की ही बात लें। क्या रामू की गाथा हमारे जीवन का सबसे काला अध्याय नहीं है? आखिर क्या अन्तर था हम सभी में व उसमें ? उसने लगभग अपना सारा जीवन ही तो हमारे ही घर में हमारे साथ ही बिता दिया, हम सभी की सेवा करते हुए; अभी बमुश्किल १०-१२ साल का ही तो रहा होगा, जब उसकी माँ उसे हमारे घर पर छोड़ गई थी, यह कहते हुए कि 'यहीं किसी कोने में पड़ा रहेगा, बचा-खुचा बासी खाकर पलबढ़ जायेगा बाबूजी! और बदले में घर के कामों में हाथ बंटा दिया करेगा।' अन्तर्द्वन्द/१५ उस दिन छोड़कर क्या गई मानो मातृत्व के दायित्व से मुक्त हो गई, फिर तो उसने कभी मुड़कर उसकी खोज-खबर ही न ली। रामू यहीं इसी घर में, इन्हीं बच्चों 'समकित व सुरभित' के साथ ही तो खेलते-खाते बड़ा हो गया, फर्क था तो सिर्फ इतना कि जब वे साथ-साथ खेलते तो वे जीतते रहे वह हारता रहा, वे रूठते रहे वह मनाता रहा, वे फैलाते रहे वह समेटता रहा। लगभग साथ-साथ जन्मे, पले-बड़े व रहे; पर वे क्या बन गए और यह क्या बनकर रह गया? रसोईघर के कामों में हाथ बंटाते-बंटाते रामू एक सिद्धहस्त रसोईया बन गया था। यह तो उसकी काबिलियत थी कि रसोईघर पर वह एकछत्र काबिज हो गया था। उसके रहते कभी किसी को वहाँ जाने की जरूरत ही न पड़ती। शायद उसके सिवा कोई और जानता भी न था कि चाय में किसे कितनी चीनी चाहिए व सब्जी में किसे कितनी मिर्ची या कि किसका फुल्का कितना सिकना चाहिए? आलम तो ये हो चला था कि जब कभी यदा-कदा उसे अपने गाँव जाने का मन हो आता तो मानो घर-परिवार पर संकट के बादल से छा जाते। सबके कारण अपने-अपने थे, पर उसके जाने की खबर सुनकर सांप सभी को सूंघ जाता था। ___ अम्मा को लगता था कि दिन का अधिकांश समय अब रसोईघर में ही बीतेगा। मुझे चिन्ता होने लगती कि शायद दिन में दो-तीन कप चाय की कटौती तो हो ही जायेगी। समकित जानता था कि अब समय पर स्कूल पहुँचने के लिए उसे विशेष सावधानी रखनी होगी, तो सुरभित को चिन्ता थी अपनी पसन्द का भोजन न मिल पाने की; क्योंकि माँ का जोर स्वादिष्ट खाने की अपेक्षा पौष्टिक व स्वास्थ्यवर्धक भोजन पर अधिक रहता था। वह साल में मुश्किल से १५-२० दिन के लिए गांव जाता था और एक खुली जेल के आजन्म कैदी की भांति पैरोल की अवधि खत्म होते ही अन्तर्द्वन्द/१६
SR No.008339
Book TitleAntardvand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmatmaprakash Bharilla
PublisherHukamchand Bharilla Charitable Trust Mumbai
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size150 KB
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