________________
न? क्या हमारी ओर तुम्हारी कोई जबावदारी नहीं ? अभी तो सामने पहाड़-सी जिन्दगी पड़ी है......और अब मैं जीवन जीना चाहती हूँ......हे मेरे नाथ! मुझ पर रहम कीजिए। कामिनी की नारी सुलभ निर्बलता समकित का यह वार झेल न सकी
और अपनी पत्नी सुलभ धृष्टता का प्रदर्शन करते हुए वह विफर पड़ी...। • आगत स्वर्णिम भोर की आशा और इन्तजार में अभावों की घोर काली रातें भी बिना पीड़ा पहुँचाए देखते ही देखते व्यतीत हो गईं। और इसप्रकार अपने जीवन में परिवर्तन के इस दूसरे मोड़ पर आज वह अकेला ही खड़ा है। ....कोई भी असामान्य हालात् उत्पन्न कर, अपने जीवन के सरल क्रम में कठिनाइयाँ पैदा नहीं करना चाहता था। अभी वह स्थिति तो आई नहीं कि घर व समाज को छोड़कर जंगल चला जावे, तब एक ऐसे समाज की ही रचना करनी होगी, जहाँ उसके विचारों को स्वीकृति मिले, उसके समान विचार वाले कई लोग हों
और तब परिजनों को भी ऐसा नहीं लगेगा कि “इन्हें कहीं कुछ हो तो नहीं गया न । उसके सभी परिजन भी उसके साथ उसी समुदाय मोहल्ला बन जायेंगे और इस बात में गौरव का अनुभव करेंगे तो सभी समाज के अन्दर एक विशिष्ट वर्ग के अंश हैं। विचित्रता तो यह है कि अकेला व्यक्ति उत्कृष्ट से उत्कृष्ट कार्य करने में भी लज्जा का अनुभव करता है व समूह के साथ घृणित कार्य भी गौरव
के साथ कर डालता है। ....अरे! अकेले तो इसे जीना भी गवाँरा नहीं और यदि सौ-पचास लोग
एकसाथ मरने को तैयार हों तो इसे मरने में भी डर नहीं लगता। • न जाने ऐसी कौन-सी महत्त्वपूर्ण व सुन्दरतम वस्तु है यह दर्पण कि
दुनियाँ का हर व्यक्ति, चाहे वह कितना ही व्यस्त क्यों न हो व उसका
समय कितना भी कीमती क्यों न हो, अपने जीवन का,अपने दिन का सबसे महत्त्वपूर्ण समय दर्पण के सामने बिताता है। • प्रतिदिन तो वह दर्पण के सामने खड़ा हो, उभरती हुई उम्र की सच्चाइयों
को नकारने का प्रयास करता था, उन्हें छुपाने के प्रयासों में लगा रहता था; परन्तु आज उन हकीकतों को कुरेद-कुरेद कर पढ़ने की कोशिश
कर रहा था, आज वह वास्तविकताओं से रुबरु होना चाहता था। • अब व्यापार से उसे नया कुछ भी नहीं मिलता क्योंकि वह सब तो अब उसके पास पहले से ही है, जो व्यापार से जुटाया जा सकता है। हाँ हर सांझ कुछ नई-नई परेशानियाँ जरूर उसकी समस्याओं की लम्बी लिस्ट मे जुड़ जाया करती हैं। अब वह अपने व्यापार का मालिक नहीं मात्र ट्रस्टी रह गया है, जो सतर्कता पूर्वक आय-व्यय का लेखा-जोखा रखता है। बजाय इसके कि वे सभी मृग की भाँति जीवन भर मात्र दूर से ही मरीचिका की उपासना करते रहें, समकित चाहता था कि वे सभी सरोवर के किनारे पहुँचकर उसकी निरर्थकता को जियें। • जब आप नाव पर सवार होते हैं व जब एक बार मंझधार में पहुँच जाती है, तब आप और कुछ भी नहीं रहते, सर्वप्रथम आप एक नाविक बन
जाते हैं। • आप कोई भी हों, कितने ही महत्त्वपूर्ण क्यों न हों ? व आपकी अन्य प्राथमिकताएँ कुछ भी क्यों न हों ? यदि नैया डगमगाती है तो अपनी समस्त प्राथमिकताओं को तिलांजलि देकर सर्वप्रथम उसे सम्भालने
का उपक्रम तो करना ही पड़ता है। ....लोग कहते हैं खोया-खोया-सा पर कौन जाने “खोया-खोया
सा” या “पाया-पाया-सा", खोया हुआ तो अबतक था, अब तो वह पा लेना चाहता है, अपने आपको।