Book Title: Anekant 1948 10
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनकान्त आश्विन, संवत् २००५ :: अक्तूबर, सन् १९४८ विषय-सूची किरण १० विषय प्रधान सम्पादक जुगलकिशोर मुख्तार सञ्चालक-व्यवस्थापक भारतीय ज्ञानपीठ, काशी ३६६ १-मदीया द्रव्य-पूजा (कविता) ३६५ २-समन्तभद्र-भारतीके कुछ नमूने (युक्त्यनुशासन) .... ३६६ ३–महावीरकी मूर्ति और लङ्गोटी ४-गाँधीजीकी जैन-धर्मको देन ५-भारतीय इतिहासमें अहिंसा ३७५ ६-अहारक्षेत्रके प्राचीन मूर्ति-लेख ३८३ ७-नर्स (कहानी) ... ३६१ ८-अपभ्रंशका एक शृङ्गार-वीर काव्य ३६४ ह-चित्र क्षुल्लक श्रीगणेशप्रसादजी वर्णी ४०५ १०-समाज-सेवकोंके पत्र .... ४०६ सह सम्पादक मुनि कान्तिसागर दरबारीलाल न्यायाचार्य अयोध्याप्रसाद गोयलीय डालमियानगर (विहार) -000-000 संस्थापक-प्रवर्तक वीरसेवामन्दिर, सरसावा Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्तका 'सन्मति - सिद्धसेनाङ्क' अनेकान्तकी अगली (११वीं) किरण 'सन्मति - सिद्धसेनाङ्क' के रूप में विशेषाङ्क होगी, जिसमें अनेकान्तके प्रधान सम्पादक मुख्तार श्री जुगलकिशोरजीका 'सन्मति - सूत्र और सिद्धसेन' नामका एक बड़ा ही महत्वपूर्ण एवं गवेषणापूर्ण खास लेख (निबन्ध) रहेगा, जो हाल ही में उनकी महीनोंकी अनमोल साधना और तपस्यासे सिद्ध हो पाया है। लेखमें सन्मतिसूत्रका परिचय देने और महत्व बतलाने के अनन्तर १ ग्रन्थकार सिद्धसेन और उनकी दूसरी कृतियाँ, २ सिद्धसेनका समयादिक, ३ सिद्धसेनका सम्प्रदाय और गुणकीर्तन नामके तीन विशेष प्रकरण हैं, जिनमें गहरी छान-बीन और खोजके साथ अपने-अपने विषयका प्रदर्शन एवं विशद विवेचन किया गया है। और उसके द्वारा यह स्पष्ट करके बतलाया गया है कि सन्मतिसूत्र, न्यायावतार और उपलब्ध सभी द्वात्रिंशिकाओं को जो एक ही सिद्धसेनकी कृतियाँ माना जाता तथा प्रतिपादन किया जाता है वह सब भारी भूल, भ्रान्त धारणा अथवा ग़लत कल्पनादिका परिणाम है और उसके कारण आजतक सिद्धसेनके जो भी परिचय-लेख जैन तथा जैनेतर विद्वानोंके द्वारा लिखे गये हैं वे सब प्रायः खिचड़ी बने हुए हैं और कितनी ही ग़लतफहमियोंको जन्म दे रहे तथा प्रचारमें ला रहे हैं। इन सब प्रन्थों के कर्ता प्रायः तीन सिद्धसेन हैं, जिनमें कतिपय द्वात्रिंशिकाओं के कर्ता पहले, सन्मतिसूत्रके कर्ता दूसरे और न्यायावतारके कर्ता तीसरे सिद्धसेन हैं - तीनोंका समय भी एक दूसरेसे भिन्न है, जिसे लेखमें स्पष्ट किया गया है । शेष द्वात्रिंशिकाओं के कर्ता इन्हींमें से कोई हो सकते हैं। साथ ही, यह भी स्पष्ट किया गया है कि सन्मति सूत्रके कर्ता सिद्धसेन दिगम्बर सम्प्रदायके एक महान आचार्य थे - श्वेताम्बर सम्प्रदायने उन्हें समन्तभद्रकी तरह अपनाया है । अनेक द्वात्रिंशिकाएँ भी दिगम्बर सिद्धसेनकी कृतियाँ हैं। मुख्तार साहबकी इस एक नई खोजसे शताब्दियोंकी भूलोंको दूर होनेका अवसर मिलेगा और कितनी ही यथार्थ वस्तुस्थिति सभीके सामने आएगी, इसमें जरा भी सन्देह नहीं है । लेख विस्तृत, गम्भीर तथा विचारपूर्ण होनेपर भी पढ़ने में बड़ा रोचक है—: एकबार पढ़ना प्रारम्भ करके छोड़नेको मन नहीं होता- और उसमें दूसरी भी कित ही बातोंपर नया प्रकाश डाला गया है । पाठक इस विशेषाङ्कको देखकर प्रसन्न होंगे और विद्वज्जन उससे अपने-अपने ज्ञानमें कितनी ही वृद्धि करने में समर्थ हो सकेंगे, ऐसी दृढ़ आशा है । For Personal & Private Use Only परमानन्द जैन शास्त्री . प्रकाशक 'अनेकान्त ' Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ अहम् त्व विश्वतत्त्व-प्रकाशक वार्षिक मूल्य ५) एक किरणका मूल्य ॥ नीतिविरोषध्यसीलोकव्यवहारवर्तकः सम्यक् । परमागमस्य बीज भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः। वर्ष ६ । किरण १० वीरसेवामन्दिर (समन्तभद्राश्रम ), सरसावा, जिला सहारनपुर आश्विनशुक्ल, वीरनिर्वाण-संवत २४७४, विक्रम संवत् २००५ 4 ] अक्तूबर १९४८ RECEIOMISEDIOMISRO BECOMISEOCERASIDOMARY मदीया द्रव्य-पूजा (शार्दूलविक्रीडितम्) ... (१) नीरं कच्छप-मीन-भेक-कलितं, 'तज्जन्म-मृत्याकुलम्, निःसारं प्रतिबुध्य रत्ननिवहं, नानाविधं भूषणम् । वत्सोच्छिष्टमयं पयश्च, कुसुमं घ्रातं सदा षट्पदैः । हृद्य कान्तिसमन्वितं च वसनं सर्व त्वया श्रीपते !" मिष्टान्न च फलं च नाऽत्र घटितं यन्मक्षिकाऽस्पर्शितम्। संत्यक्त प्रमुदा विरागमतिना तत्तम् त्वदनऽधुना 6 तत्किं देव ! समर्पयामि इति मच्चित्त तु दोलायते ॥ यद्याऽऽराध्य ! समर्पयामि भगवन् ! तद् धृष्टता मेऽखिला (३) BROGRERWEBAGHESAR DESegr@MISRO-COMICRO एतच्चाऽऽहृदि वर्तते प्रभुवर ! क्षुत्त ड् विनाशाच्च ते तस्मान्न्यस्त-शिरोग्र-हस्त-युगलो भूत्वा विनम्रस्त्वहं, न @ नार्थः कोऽपि हि विद्यते रसयुतै-रनादिपानैः सह । भक्त्या त्वां प्रणमामि नाथमसक-लोकैक-दीपं परम् । ६ 6 नो वांछा न विनोदभावजननं नष्टश्च रागोऽखिलः, शक्त्या स्तोत्रपरो भवामि च मुदा दत्ताऽवधानः सदा, एवं त्वर्पण-व्यर्थता गतगदे, सद्भषजाऽऽनर्थ्यवन् ॥ एतन्मे तव द्रव्य-पूजनमहो ! मोहारि-संहारये ॥ FaceGHSICOMGISTERWEGIASROGRE S S For Personal & Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्र-भारतीके कुछ नमूने युक्त्यनुशासन विशेष - सामान्य - विषक्त-भेद- महासमुद्रको तिरा जाता है-सर्वान्तवान है-सामान्यविधि-व्यवच्छेद-विधायि-वाक्यम् । विशेष, द्रव्य-पर्याय, विधि-निषेध, एक-अनेक, आदि अशेष धर्मोको लिये हुये है-और गौण तथा मुख्यकी अभेद-बुद्धरविशिष्टता स्याद् कल्पनाको साथमें लिये हुये है-एक धर्म मुख्य है तो व्यावृत्तिबुद्धश्च विशिष्टता ते ॥६॥ 1 दूसरा गौण है, इसीसे सुव्यवस्थित है, उसमें असंग'वाक्य (वस्तुतः) विशेष (विसदृश परिणाम) और तता अथवा विरोधके लिये कोई अवकाश नहीं है । सामान्य (सदृश परिणाम) को लिये हुये जो (द्रव्य जो शासन-वाक्य धर्मोमें पारस्परिक अपेक्षाका प्रतिपर्यायकी अथवा द्रव्य-गुण-कर्मकी व्यक्तिरूप) भेद . पादन नहीं करता-उन्हें सर्वथा निरपेक्ष बतलाता है हैं उनके विधि और प्रतिषेध दोनोंका विधायक होता वह सर्व धर्मोंसे शून्य है-उसमें किसी भी धर्मका है। जैसे घट लाओ' यह वाक्य जिस प्रकार घटके अस्तित्व नहीं बन सकता और न उसकेद्वारा पदाथलानेरूप विधिका विधायक ( प्रतिपादक) हैउसी व्यवस्था ही ठीक बैठ सकती है। अतः आपका ही प्रकार अघटके न लानेरूप प्रतिषेधका भी विधायक यह शासनतीर्थ सर्व दुःखोंका अन्त करनेवाला है, है, अन्यथा उसके विधानार्थ वाक्यान्तरके प्रयोग यही निरन्त है-किसी भी मिथ्यादर्शनके द्वारा का प्रसंग आता है और उस वाक्यान्तरके भी खंडनीय नहीं है और यही सब प्राणयोंके अभ्युदयतत्प्रतिषेधविधायी न होनेपर फिर दूसरे वाक्यके. का कारण तथा आत्माके पूर्ण अभ्युदय (विकास) प्रयोगकी जरूरत उपस्थित होती है और इस तरह का साधक है ऐसा सर्वोदयतीथ है। वाक्यान्तरके प्रयोगको कहीं भी समाप्ति बन न सकनेसे भावार्थः-आपका शासन अनेकान्तके प्रभावसे अनवस्था दोषका प्रसंग आता है, जिससे कभी भी घट सकल दुर्नयों (परस्परनिरपेक्ष नयों) अथवा मिथ्याके लानेरूप विधिकी प्रतिपत्ति नहीं बन सकती । ।। दर्शनोंका अन्त (निरसन) करनेवाला है और ये अतः जो वाक्य प्रधानभावसे विधिका प्रतिपादक दुर्नय अथवा सर्वथा एकान्तवादरूप मिथ्यादर्शन ही है वह गौणरूपसे प्रतिषेधका भी प्रतिपादक है और संसारमें अनेक शारीरिक तथा मानसिक दुःखरूप जो मुख्यरूपसे प्रतिषेधका प्रतिपादक है वह गौण आपदाओंके कारण होते हैं, इसलिये इन दुर्नयरूप रूपसे विधिका भी प्रतिपादक है, ऐसा प्रतिपादन सिध्यादर्शनोंका अन्त करनेवाला होनेसे आपका करना चाहिये । ___ शासन समस्त आपदाओंका अन्त करनेवाला है, (हे वीर जिन!) आपके यहाँ-आपके स्याद्वाद- अर्थात् जो लोग आपके शासनतीर्थका आश्रय लेते शासनमें-(जिस प्रकार) अभेदबुद्धिसे (द्रव्यत्वादि हैं उसे पूर्णतया अपनाते हैं-उनके मिध्यादर्शनादि व्यक्तिकी) अविशिष्टता (समानता) होती है ( उसी . दूर होकर समस्त दुःख मिट जाते हैं। और वे अपना प्रकार) व्यावृत्ति(भेद)बुद्धिसे विशिष्टताकी प्राप्ति होती है।' पूर्ण अभ्युदय-उत्कष एवं विकास-सिद्ध करनेमें सर्वान्तवत्तद्गुण-मुख्य-कल्पं समर्थ हो जाते हैं। सर्वान्तशून्यं च मिथोऽनपेक्षम् । कामं द्विषन्नप्युपपत्तिचक्षुः. सर्वाऽऽपदामन्तकरं निरन्तं समीक्ष्यतां ते समदृष्टिरिष्टम् । सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव ॥६१॥ (हे वीर भगवन् !) आपका तीर्थ-प्रवचनरूप त्वयि ध्रुवं खण्डित-मान-शृङ्गो शासन-अर्थात् परमागमवाक्य जिसके द्वारा संसार .. भवत्यभद्रोऽपि समन्तभद्रः ॥६२॥ For Personal & Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १० ] समन्तभद्र-भारतीके कुछ नमूने [३६७ - दिरूप कर्मशत्रुकी-सेनाको न रागान्नः स्तोत्रं भवति भव-पाशनि (हे वीर जिन !) आपके इष्ट-शासनसे यथेष्ट' के संसारबन्धनोंको तोड़ना-हमें भी इष्ट है और इस अथवा भरपेट द्वेष रखनेवाला मनुष्य भी, यदि सम- लिये यह प्रयोजन भी इस स्तोत्रकी उत्पत्तिका एक दृष्टि (मध्यस्थवृत्ति) हुआ; उपपत्ति-चक्षुसे–मात्सर्यके हेतु है । इस तरह यह स्तोत्र श्रद्धा और गुणज्ञताकी . त्यागपूर्वक युक्तिसङ्गत समाधानकी दृष्टिसे-आपके अभिव्यक्ति के साथ लोक-हितकी दृष्टिको लिये हुये है।' इष्टका-शासनका-अवलोकन और परीक्षण करता इति स्तुत्यः स्तुत्येत्रिदश-मुनि-मुख्यैःप्रणिहितैः है तो अवश्य ही उसका मानशृङ्ग खंडित होजाता है स्तुतः शक्तया श्रेयःपदमधिगस्त्वं जिन ! मया । और वह अभद्र अथवा मिथ्यादृष्टि होता हुआ भी महावीरो वीरो दुरित-पर-सेनाऽभिविजये. सब ओरसे भद्ररूप एवं सम्यग्दृष्टि बन जाता है। विधेया मे भक्तिं पथि भवत एवाऽप्रतिनिधौ॥६४ अथवा यों कहिये कि आपके शास्नतीर्थका उपासक और अनुयायी हो जाता है।' . हे वीर जिनेन्द्र! आप चूँकि दुरितपरकी-मोहान रागानः स्तात्र भवात भव-पाश-च्छिाद मुना करने में वीर हैं-वीर्यातिशयको प्राप्त हैं-निःश्रेयस न चाऽन्येषु द्वषादपगुप-कथाऽभ्यास-खलता। पदको अधिगत (स्वाधीन) करनेसे महावीर हैं और किमु न्यायाऽन्याय-प्रकृत-गुणदोषज्ञ-मनसों . देवेन्द्रों तथा मुनीन्द्रों (गणधर देवादिकों) जैसे स्वयं हिताऽन्वेषोपायस्तव गुण-कथा-सङ्ग-गदितः॥६३॥ स्तुत्योंके द्वारा एकाग्रमनसे स्तुत्य हैं, इसीसे मेरे हे वीर भगवन ! ) हमारा यह स्तोत्र आप जैसे मुझ परिक्षाप्रधानीके द्वारा-शक्तिके अनरूप नति भव-पाश-छेदक मुनिके प्रति रागभावसे नहीं है, न किये गये हैं । अतः अपने ही मार्गमें अपने द्वारा हो सकता है;- क्योंकि इधर तो हम परीक्षा-प्रधानी अनुष्ठित एवं प्रतिपादित सम्यग्दर्शन-ज्ञान चारित्र हैं और उधर आपने भव पाशको छेदकर संसारसे रूप मोक्षमागमें, जो प्रतिनिधिरहित है-अन्ययोगअपना सम्बन्ध ही अलग कर लिया है; ऐसी हालतमें व्यवच्छेदरूपसे निर्णीत है अर्थात् दूसरा कोई भी आपके व्यक्तित्वके प्रति हमारा राग-भाव इस मार्ग जिसके जोड़का अथवा जिसके स्थानपर प्रतिस्तोत्रकी उत्पत्तिका कोई कारण नहीं हो सकता। ष्ठित होनेके योग्य नहीं है मेरी भक्तिको सविशेष दूसरोंके प्रति द्वेषभावसे भी इस स्तोत्रका कोई रूपसे चरितार्थ करो-आपके मार्गकी अमोघता . · सम्बन्ध नहीं है; क्योंकि एकान्तवादियोंके साथ और उससे अभिमत फलकी सिद्धिको देखकर मेरा अर्थात् उनके व्यक्तित्वके प्रति हमारा कोई द्वेष नहीं है अनुराग (भक्तिभाव) उसके प्रति उत्तरोत्तर बढ़े, -हम तो दुर्गुणोंकी कथाके अभ्यासको ‘खलता' जिससे मैं भी उसी मार्गकी आराधना-साधना करता समझते है और उस प्रकारका अभ्यास न होनेसे हुआ कर्म शत्रुओंकी सेनाको जीतनेमें समर्थ वह 'खलता हममें और इमलिये दसरोंके प्रति होऊँ और निःश्रेयस (मोक्ष) पदको प्राप्त करके सफल द्वेषभाव भी इस स्तोत्रकी उत्पत्तिका कारण नहीं हो मनोरथ हो सकूँ। क्योंकि सच्ची सविवेक-भक्ति ही सकता। तब फिर इसका हेतु अथवा उद्देश ? उद्देश मागका अनुसरण करनेमें परमं सहायक होती है यही है कि जो लोग न्याय-अन्यायको पहचानना और जिसकी स्तुति की जाती है उसके मार्गका अनुचाहते हैं और प्रकृत पदार्थके गुण-दोषों को जानने- सरण करना अथवा उसके अनूकूल चलना ही स्तुतिकी जिनकी इच्छा है उनके लिये यह स्तोत्र को सार्थक करता है, इसीसे स्तोत्रके अन्तमें ऐसी 'हितान्वेषणके उपायस्वरूप' आपकी गुणकथाके फलप्राप्तिकी प्रार्थना अथवा भावना की गई साथ कहा गया है। इसके सिवाय जिस भव-पाशको इति युक्त्यनुशासनम्। . आपने छेद दिया है उसे छेदना-अपने और दूसरों जुगलकिशोर मुख्तार For Personal & Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीरकी मूर्ति और लङ्गोटी (लेखक-श्री'लोकपाल') एक दिन मैं बाबू रघुवीरकिशोरजीके साथ वृन्दा- लक्षण है। देखें, भारत कबतक मानसिक पतनके वन गया । वहाँ उन्होंने रास्तेमें बिड़लामन्दिर खड्डेसे ऊपर उठता है। दिखलाया और मन्दिरमें चारों तरफ देखते भालते तथा जबतक एक पतली-सी भी लङ्गोटी किसीके लिए इधर उधर घूमते हुए एक जगह एक जैनमूर्ति श्रीवर्द्धमान रखनी आवश्यक रहेगी तबतक वह पूर्णरूपसे महावीर स्वामीकी बनी हुई दिखलायी। और मेस निर्विकार हो ही नहीं सकता। और अधिक कपड़ोंकी ध्यान विशेषतौरसे एक बातकी तरफ आकर्षित किया कौन कहे केवल-मात्र एक लङ्गोटीका भी रखना ही यह कि मूर्ति लङ्गोटी पहनी हुई बनाई गई है। मुझे दुःख साबित करता है कि लङ्गोटी पहननेवाला व्यक्ति हुआ।खेद है कि ये लोग दिगंबरत्वका महत्व नहीं समझ पूर्णरूपसे निर्विकार नहीं है। इसके अतिरिक्त भी सके और यह इन लोगोंकी मानसिक कमजोरी तथा लङ्गोटी जबतक मौजूद है वह निर्विकार या एकदम विकारका सूचक है जिसने उलटी बातें सुनते और परम निश्चिन्त हो ही कैसे सकता है ? लङ्गोटी गन्दी वर्तते रहनेके कारण जड़ पकड़ ली है। सच्ची बात होगी मैली होगो-बदबू करगो-उसे साफ करना जाननेकी कोशिश कौन कहे उसे सुनना भी गवारा या साफ रखना एक फिकर या चिन्ता तो यही हुई। करने या बरदाश्त करनेको तैयार नहीं। ऐसा वाता- फट जाय तो दूसरीका प्रबन्ध करना-इत्यादि । वरण आज भारतमें पैदा कर दिया गया है कि लोग यह तो हुई सांसारिक बात जो हर आदमी यदि वार सोचे-समझे-विचारे ही यों ही किसी बातपर समझना चाहे तो स्वयं समझ सकता है यदि ठीक निरे बेवकूफ और भौंदू-सा हँस देने में ही अपनी या मानसिक स्थितिमें हो तो। आगे तत्वतः देखा जाय अपने धर्मकी बहादुरी समझते हैं। इसे हम अज्ञान तो जिसने संसारका सब कुछ जान लिया उसके लिए न कहें तो और क्या कहें ? आज कॉलेजोंमें जाइए- क्या छिपा रह जाता है वह तो सब कुछ एकदम जैन लड़के अधिकतर जैनमन्दिरोंमें जानेमें शर्माते हैं खुला हुआ यों ही प्रत्यक्ष देखता या जानता है। जब और नहीं जाते हैं, केवल इस लिए कि दस आदमी किसीको समता प्राप्त हो जाय, सबमें वह एक ही शुद्ध किसी लड़केको यह कहकर लजवा देते हैं कि वह “नङ्गे" आत्माका दर्शन करने लगे या उसको देखने लगे जो स्वयं देवताओंकी पूजा करता है। दस आदमी मिलकर उसके शरीरके अन्दर है-या वह सभीको अपने किसी भी बड़ेसे बड़े विद्वान या व्यक्तिको हँसकर समान केवल आत्मारूप ही देखने लगे तो फिर वहाँ और ताली पीटकर बेवकूफ बना देते हैं या बना सकते पर्देकी क्या जरूरत रह जाती है ? परमवीतरागी, हैं। यही तरीका अबतक खासतौरसे जैन-धर्म या · सर्वज्ञ-सर्वदर्शी और पूर्णतः शक्ति-सम्पन्न महात्मा जैनधर्मावलम्बियोंके साथ वर्ता जाता रहा है । जब किसके लिये लङ्गोटी लगाए ? उसे न अपने लिये तर्क और बुद्धिसे कोई हार जाता है तब इन्हीं ओछे जरूरत रहती है और न दूसरोंकी खातिर । वास्तवमें तौर-तरीकोंको अपनाता है । खैर, ये सब तो पुरानी सविवेक दिगम्बरत्वका बड़ा महत्व है जो साधारणतः बातें हो गईं। अब तो मिलने-मिलानेका समय है सभीके दिमागमें घुसना सम्भव नहीं। जिस समय इस और सभी एक दूसरेसे मिलना या एक दूसरेकी विषयकी महत्ता लोगोंको ज्ञात होजाय उसी समय समबातोंको समझनेकी चेष्टा करने लगे हैं। यह अच्छा झना चाहिएकि अब देश या संसारके उत्थानमें देर नहीं। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाँधीजीकी जैन-धर्मको देन (श्री पं० सुखलालजी) धर्मके दो रूप होते हैं । सम्प्रदाय कोई भी हो उसका धर्म बाहरी और भीतरी दो रूपों में चलता रहता है। ब्राह्म रूपको हम धर्म कलेवर' कहें तो भीतरी रूप को 'धर्म चेतना' कहना चाहिये । धर्म का प्रारम्भ, विकास और प्रचार मनुष्य जाति में ही हुआ है। मनुष्य खुद न केवल चेतन है और न केवल देह । वह जैसे सचेतन देहरूप है वैसे ही उसका धर्मं भी चेतनायुक्त कलेवर रूप होता है । चेतना की गति प्रगति और अवगति कलेवर के सहारे के बिना सम्भव है । धर्म चेतना भी बाहरी आचार रीति- रस्म, रूढ़ि - प्रणाली आदि कलेवरके द्वारा ही गति, प्रगति और अवगति को प्राप्त होती रहती है । धर्म जितना पुराना उतने ही उसके कलेवर नाना-. रूपसे अधिकाधिक बदलते जाते हैं। अगर कोई धर्म जीवित हो तो उसका अर्थ यह भी है कि उसके कैसे भी भद्दे या अच्छे कलेवरमें थोड़ा-बहुत चेतनाका अंश किसी न किसी रूपमें मौजूद है। निष्प्राण देह सड़-गड़कर अस्तित्व गँवा बैठती है । चेतनाहीन सम्प्रदाय कलेवर की भी वही गति होती है । जैन परम्पराका प्राचीन नाम रूप कुछ भी क्यों न रहा हो; पर उस समयसे अभीतक जीवित है जब जब उसका कलेवर दिखावटी और रोगग्रस्त हुआ है तब तब उसकी धर्म चेतनाका किसी व्यक्तिमें विशेषरूपसे स्पन्दन प्रकट हुआ है। पार्श्वनाथके बाद महावीरमें स्पन्दन तीव्ररूपसे प्रकट हुआ है जिसका इतिहास साक्षी है । धर्मचेतनाके मुख्य दो लक्षण हैं जो सभी धर्मसम्प्रदायोंमें व्यक्त होते हैं। भले ही उस आविर्भावमें तारतम्य हो । पहला लक्षण है, 'अन्यका भला करना' और दूसरा लक्षण है 'अन्यका बुरा न करना' । ये विधि - निषेधरूप या हकार नकाररूप साथ ही साथ चलते हैं । एकके सिवाय दूसरेका सम्भव नहीं । जैसे-जैसे धर्मचेतनाका विशेष और उत्कट स्पन्दन वैसे-वैसे ये दोनों विधि-निषेधरूप भी अधिकाधिक सक्रिय होते हैं । जैन- परम्पराकी ऐतिहासिक भूमिका को हम देखते हैं तो मालूम पड़ता है कि उसके इतिहास कालसे ही धर्मचेतनाके उक्त दोनों लक्षण साधारणरूपमें न पाये जाकर असाधरण और व्यापकरूपमें ही पाये जाते हैं । जैन - परम्पराका ऐतिहासिक पुरावा कहता है कि सबका अर्थात् प्राणीमात्रका, जिसमें मनुष्य, पशु-पक्षी के अलावा सूक्ष्म कीट जन्तु तकका समावेश हो जाता है - सब तरहसे भला करो। इसी तरह प्राणीमात्रको किसी भी प्रकारसे तकलीफ न दो । यह पुरावा कहता है कि जैन परम्परागत धर्मचेतनाकी वह भूमिका प्राथमिक नहीं है । मनुष्यजातिके द्वारा धर्मचेतनाका जो क्रमिक विकास हुआ है उसका परिपक्क विचारका श्नय ऐतिहासिक दृष्टिसे भगवान् महावीरको तो अवश्य है ही । कोई भी सत्पुरुषार्थी और सूक्ष्मदर्शी धर्मपुरुष अपने जीवनमें धर्मचेतनाका कितना ही स्पंदन क्यों न करे पर वह प्रकट होता है सामयिक और देशका - लिक आवश्यकताओं की पूर्तिके द्वारा। हम इतिहास 'जानते हैं कि महावीरने सबका भला करना और किसीको तकलीफ न देना इन दो धर्मचेतनाके रूपों को अपने जीवनमें ठीक-ठीक प्रकट किया। प्रकटीकरण सामयिक जरूरतोंके अनुसार मर्यादित रहा । मनुष्यजातिकी उस समय और उस देशकी निर्बलता, जातिभेदमें, छूआछूतमें, स्त्री की लाचारीमें For Personal & Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० ] अनेकान्त [ वर्ष और यज्ञीयहिंसामें थी। महावीरने इन्हीं निर्बलताओं मालूम होते रहे; पर अपरिग्रहका प्राण उनमें कमसे का सामना किया। क्योंकि उनकी धर्मचेतना अपने कम रहा। इसीलिये सभी फिरकोंके त्यागी अपरिआसपास प्रवृत्त अन्यायको सह न सकती थी। ग्रह व्रत की दुहाई देकर नंगे पाँवसे चलते देखे जाते इसी करुणावृत्तिने उन्हें अपरिग्रही बनाया । अपरि- हैं लूँचन रूपसे बाल तक हाथसे खींच डालते हैं, प्रह भी ऐसा कि जिसमें न घर-बार और न वस्त्र- निर्वसन भाव भी धारण करते देखे जाते हैं. सूक्ष्मपात्र । इसी करुणावृत्तिने उन्हें दलित-पतितका उद्धार जन्तु की रक्षाके निमित्त मुंहपर कपड़ा तक रख लेते करनेको प्रेरित किया। यह तो हुआ महावीर की हैं, पर वे अपरिग्रहके पालनके लिये अनिवार्य रूपसे धर्मचेतनाका स्पंदन। आवश्यक ऐसा स्वावलम्बी जीवन करीब-करीब गँवा पर उनके बाद यह स्पंदन जरूर मन्द हुआ और बहा और बैठे हैं। उन्हें अपरिग्रहका पालन गृहस्थों की मदद धर्मचेतनाका पोषक धर्म कलेवर बहुत बढ़ने लगा, के सिवाय सम्भव नहीं दीखता । फलतः वे अधिकाबढ़ते-बढ़ते उस कलेवरका कद और वजन इतना - धिक पर-परिश्रमावलम्बी होगये हैं। बढ़ा कि कलेवर की पुष्टी और बृद्धिके साथ ही चेतना ___ बेशक, पिछले ढाई हजार वर्षोंमें देशके विभिन्न का स्पंदन मन्द होने लगा। जैसे पानी सूखते ही या भागोंमें ऐसे इने-गिने अनागार त्यागी और सागार कम होते ही नीचे की मिट्टीमें दरारें पड़ती हैं और गृहस्थ अवश्य हुए हैं जिन्होंने जैन परम्परा की मिट्री एक रूप न रह कर विभक्त हो जाती है वैसे ही मूर्छित-सी धर्मचेतनामें स्पंदनके प्राण फूंके । पर एक जैन परम्पराका धर्मकलेवर भी अनेक टुकड़ोंमें तो वह स्पंदन साम्प्रदायिक ढङ्गका था जैसा कि विभक्त हुआ और वे टुकड़े चेतनास्पंदनके मिथ्या अन्य सभी सम्प्रदायोंमें हुआ है, और दूसरे वह अभिमानसे प्रेरित होकर आपसमें ही लड़ने-झगड़ने स्पंदन ऐसी कोई दृढ़ नींवपर न था जिससे चिरकाल लगे। जो धर्मचेतनाके स्पंदनका मुख्य काम था वह तक टिक सके। इसलिये बीच-बीचमें प्रकट हुए गौण होगया और धर्मचेतना की रक्षाके नामपर वे धर्मचेतनाके स्पंदन अर्थात् प्रभावनाकार्य सतत चालू मुख्यतया गुजारा करने लगे। रह न सके। ____धर्म-कलेवरके फिरकोंमें धर्मचेतना कम होते ही पिछली शताब्दीमें तो जैन समाजके त्यागी आसपासके विरोधी बलोंने उनके ऊपर बुरा असर और गृहस्थ दोनोंकी मनोदशा विलक्षण-सी होगई डाला । सभी फिरके मुख्य उद्देश्यके बारेमें इतने थी वे परम्पराप्राप्त सत्य, अहिंसा और अपरिग्रहके निर्बल साबित हुए कि कोई अपने पूज्य पुरुष महावीर आदर्श संस्कार की महिमाको छोड़ भी न सके थे और की प्रवृत्तिको योग्य रूपमें आगे न बढ़ा सके। स्त्री- जीवनपर्यन्तमें वे हिंसा, असत्य और परिग्रहके संस्कारों उद्धार की बात करते हुए भी वे स्त्रीके अबलापनके का ही समर्थन करते जाते थे। ऐसा माना जाने लगा पोषक ही रहे। उच्च-नीच भाव और छूआछूतके था कि कुटुम्ब, समाज, ग्राम, राष्ट्र आदिसे सन्बन्ध दूर करने की बात करते हुए भी वे जातिवादी ब्राह्मण रखने वाली प्रवृत्तियाँ सांसारिक हैं, दुनियावी हैं, परम्पराके प्रभावसे बच न सके और व्यवहार तथा अव्यवहारिक हैं। इसलिये ऐसी आर्थिक औद्योगिक धर्मक्षेत्रमें उच्च-नीच भाव और छूआछूतपनेके और राजकीय प्रवृत्तियोंमें न तो सत्य साथ दे शिकार बन गये। यज्ञीयहिंसाके प्रभावसे वे जरूर. सकता है. न अहिंसा काम कर सकती है और न बच गये और पशु-पक्षी की रक्षामें उन्होंने हाथ ठीक अपरिग्रहव्रत ही कार्यसाधक बन सकता है । ये धर्म ठीक बटाया; पर वे अपरिग्रहके प्राण मूर्खात्यागको सिद्धान्त सच्चे हैं सही, पर इनका शुद्ध पालन दुनिया गँवा बैठे । देखनेमें तो सभी फिरके अपरिग्रही के बीच संभव नहीं। इसके लिये तो एकान्त बनवास Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.lainelibrary.org Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करण १० ] गाँधीजीकी जैन धर्मको देन [३७१ और संसार त्याग ही चाहिये। इस विचारने अन- जैन समाजके अपने निजी भी प्रश्न थे। जो उलझनोंसे गार त्यागियोंके मनपर भी ऐसा प्रभाव जमाया पूर्ण थे। आपसमें फिरकाबन्दी, धर्मके निमित्त अधर्म था कि वे रात दिन सत्य, अहिंसा और अपरिग्रहका पोषक झगड़े, निवृत्तिके नामपर निष्कियता श्री उपदेश करते हुए भी दुनियावी-जीवनमें उन उपदेशों ऐदीपन की बाढ़, नई पीढ़ीमें पुरानी चेतनाका विरोध के सच्चे पालनका कोई रास्ता दिखा न सकते थे। वे और नई चेतनाका अवरोध, सत्य, अहिंसा और थक कर यही कहते थे कि अगर सच्चा धर्म पालन अपरिग्रह जैसे शाश्वत मूल्य वाले सिद्धान्तोंके प्रति करना हो तो तुम लोग घर छोड़ो, कुटुम्ब समाज और सबकी देखादेखी बढ़ती हुई अश्रद्धा ये जैन समाजकी राष्ट्रकी जबाबदेही छोड़ो, ऐसी जवाबदेही और सत्य- समस्याएँ थीं। अहिंसा अपरिग्रहका शुद्ध पालन दोनों एक साथ .. सम्भव नहीं। ऐसी मनोदशाके कारण त्यागी गण ___ इस अन्धकार प्रधान रात्रिमें अफ्रिकासे एक कर्मवीरकी हलचलने लोगोंकी आँखें खोली। वही देखनेमें अवश्य अनगार था, पर उसका जीवन कर्मवीर फिर अपनी जन्म-भूमि भारत भूमिमें पीछे तत्त्वदृष्टिसे किसी भी प्रकार अगारी गृहस्थों की लौटा । आते ही सत्य, अहिंसा और अपरिप्रहकी र अपेक्षा विशेष उन्नत या विशेष शुद्ध बनने न पाया निर्भय और गगनभेदी वाणी शान्त-स्वरसे और था। इसलिये जैन समाज की स्थिति ऐसी होगई थी जीवन-व्यवहारसे सुनाने लगा । पहले तो जैन कि हजारोंकी संख्या साधु-साध्वियोंके सतत होते हात समाज अपनी संस्कार-च्युतिके कारण चौंका । उसे रहनेपर भी समाजके उत्थानका कोई सच्चा काम भय मालूम हुआ कि दुनियाकी प्रवृत्ति या सांसारिक होने न पाता था और अनुयायी गृहस्थवर्ग तो साधु राजकीय प्रवृत्तिके साथ सत्य, अहिंसा और अपरिग्रह साध्वियोंके भरोसे रहनेका इतना आदि हो गया . का मेल कैसे बैठ सकता है ? ऐसा हो तो फिर त्याग था कि वह हरएक बातमें निकम्मी प्रथाका त्याग मार्ग अनगार धर्म जो हजारों वर्षसे चला आता है सुधार, परिवर्तन वगैरह करनेमें अपनी बुद्धि और वह नष्ट ही हो जायगा। पर जैसे-जैसे कमवीर गाँधी साहस ही गँवा बैठा था। त्यागीवर्ग कहता था कि एकके बाद एक नये-नये सामाजिक और राजकीय हम क्या करें ? यह काम तो गृहस्थोंका है। गृहस्थ कहते थे कि हमारे सिरमौर गुरु हैं। वे महावीरके क्षेत्रको सर करते गये और देशके उच्चसे उच्च मस्तिष्क प्रतिनिधि हैं. शास्त्रज्ञ हैं, वे हमसे अधिक जान सकते. . भी उनके सामने झुकने लगे। कवीन्द्र रवीन्द्र, लाला हैं, उनके सुझाव और उनकी सम्मतिके बिना हम कर लाजपतराय, देशबन्धुदास, मोतीलाल नेहरू आदि ही क्या सकते हैं ? गृहस्थोंका असर ही क्या पड़ेगा? मुख्य राष्ट्रीय पुरुषोंने गाँधीजीका नेतृत्व मान लिया। साधुओंके कथनको सब लोग मान सकते हैं .. वैसे-वैसे जैन समाजकी भी सुषुप्त और मुच्छितसी इत्यादि । इस तरह अन्य धर्म समाजों की तरह जैन । धमचेतनामें स्पन्दन शुरू हुआ। स्पन्दनकी यह लहर समाजकी नैया भी हर एक क्षेत्रमें उलझनोंकी क्रमशः ऐसी बढ़ती और फैलती गई कि जिसने भँवरमें फंसी थी। ३५ वर्षके पहलेकी जैन समाजकी काया ही पलट दी। जिसने ३५ वर्षके पहलेकी जैन समाजकी बाहरी और ____ सारे राष्ट्रपर पिछली सहस्राब्दीने जो आफ़तें भीतरी दशा आँखों देखी है और जिसने पिछले ३५ ढाई थीं और पश्चिमके सम्पर्कके बाद विदेशी राज्य- वर्षोंमें गाँधीजीके कारण जैन समाजमें सत्वर प्रकट ने पिछली दो शताब्दियोंमें गुलामी, शोषण और होने वाले सात्विक धर्मस्पन्दनोंको देखा है वह यह आपसी फूटकी जो आफत बढ़ाई थी उसका शिकार विना कहे नहीं रह सकता कि जैन समाजकी धर्मतो जैन समाज शत प्रतिशत था ही, पर उसके अलावा चेतना-जो गाँधीजीकी देन है-वह इतिहास कालमें For Personal & Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ ] अनेकान्त [ वर्ष अभूतपूर्व है । अब हम संक्षेपमें यह देखें कि गाँधीजी जादूसे स्त्री शक्ति इतनी अधिक प्रकट हुई कि अब तो की यह देन किस रूपमें है। ... . पुरुष उसे अबला कहनेमें सकुचाने लगा। जैन स्त्रियों जैन समाजमें जो सत्य और अहिंसाकी सार्वत्रिक के दिलमें भी ऐसा कुछ चमत्कारिक परिवर्तन हुआ कार्यक्षमताके बारेमें अविश्वासकी जड़ जमी थी, कि वे अब अपनेको शक्तिशाली समझकर जबाबदेही गाँधीजीने देशमें आते ही सबसे प्रथम उसपर कुठारा- के छोटे मोटे अनेक काम करने लगी और आमतौरघात किया। जैन लोगोंके दिलमें सत्य और अहिंसाके से जैनसमाजमें यह माना जाने लगा कि जो स्त्री प्रति जन्मसिद्ध आदर तो था ही। वे सिर्फ प्रयोग ऐहिक बन्धनोंसे मुक्ति पानेमें असमर्थ है वह साध्वी करना जानते न थे और न कोई उन्हें प्रयोगके द्वारा बनकर भी पारलौकिक मुक्ति पा नहीं सकती। इस उन सिद्धान्तोंकी शक्ति दिखाने वाला था। गाँधीजीके मान्यासे जैन बहनोंके सूखे और पीले चेहरेपर सुर्थी अहिंसा और सत्यके सफल प्रयोगोंने और किसी आ गई और वह देशके कोने कोनेमें जवाबदेहीके समाजकी अपने सबसे पहले जैन समाजका ध्यान अनेक काम सफलतापूर्वक करने लगीं। अब उन्हें खींचा। अनेक बूढ़े तरुण और सभ्य शुरूमें कुतूहल- त्यक्तापन, विधवापन या लाचार कुमारीपनका कोई वश और पीछे लगनीसे गाँधीजीके आसपास इकट्ठे दुःख नहीं सताता। यह स्त्रीशक्तिका कायापलट है। होने लगे। जैसे जैसे गाँधीजीके अहिंसा और सत्य- यों तो जैन लोग सिद्धान्तरूपसे जाति भेद और छुआके प्रयोग अधिकाधिक समाज और राष्ट्रव्यापी होते. छूतको बिल्कुल मानते न थे और इसीमें अपनी गये वैसे वैसे जैन समाजको विरासतमें मिली अहिंसा- परम्पराका गौरव भी समझते थे; पर इस सिद्धान्तको वृत्तिपर अधिकाधिक भरोसा होने लगा और फिर तो व्यापकतौरसे वे अमलमें लानेमें असमर्थ थे। गाँधी वह उन्नत मस्तक और प्रसन्नवदनसे कहने लगा कि जीकी प्रायोगिक अंजनशलाकाने जैन समझदारोंके 'अहिंसा परमो धर्मः' यह जो जैन परम्पराका मुद्रा- नेत्र खोल दिये और उनमें साहस भर दिया फिर तो लेख है उसीकी यह विजय है। जैन परम्परा स्त्रोकी वे हरिजन या अन्य दलितवर्गको समान भावसे समानता और मुक्तिका दावा' तो करती ही आरही अपनाने लगे। अनेक बूढ़े और युवक स्त्री-पुरुषोंका थी; पर व्यवहारमें उसे उसके अबलापनके सिवाय खास एकवर्ग देशभरके जैन समाजमें ऐसा तैयार कुछ नजर आता न था। उसने मान लिया था कि हो गया है कि वह अब रूढ़िचुस्त मानसकी बिल्कुल त्यक्ता, विधवा और लाचार कुमारीके लिये एकमात्र मरवाह बिना किये हरिजन और दलितवर्गकी सेवामें बलप्रद मुक्तिमार्ग साध्वी बननेका है। पर गाँधीजीके या तो पड़ गया है, या उसके लिये अधिकाधिक जादने यह साबित कर दिया कि अगर स्त्री किसी सहानुभूति पूर्वक सहायता करता है। अपेक्षासे अबला है तो पुरुष भी अबल ही है। अगर जैनसमाजमें महिमा एकमात्र त्यागकी रही. पर पुरुषको सबल मान लिया जाय तो स्त्रीके अबला कोई त्यागी निवृत्ति और प्रवृत्तिका सुमेल साध न रहते वह सबल बन नहीं सकता। कई अंशोंमें तो सकता था। यह प्रवृत्तिमात्रको निवृत्ति विरोधी समझ पुरुषकी अपेक्षा स्वीका बल बहुत है। यह बात गाँधी कर अनिवार्यरूपसे आवश्यक ऐसी प्रवृत्तिका बोझ जीने केवल दलीलोंसे समझाई न थी, पर उनके भी दसरोंके कन्धे डालकर निवृत्तिका सन्तोष अनुभव करता था। गाँधीजीके जीवनने दिया कि निवृत्ति और १ यह श्वेताम्बर परम्पराकी दृष्टिसे है। प्रवृत्ति वस्तुतः परस्पर विरुद्ध नहीं है। जरूरत है तो दिगम्बर-परम्परा स्त्री-मुक्ति नहीं मानती। दोनोंके रहस्य पानेकी । समय प्रवृत्तिकी माँग कर रहा -सम्पादक था और निवृत्तिकी भी। मुमेलके बिना दोनों निरर्थक For Personal & Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १० ] गाँधीजीकी जैन धर्मको देन [३७३ ही नहीं बल्कि समाज और राष्ट्रघातक सिद्ध हो रहे विजय कैसे पाया जा सकता है ? अनेकान्तवादके थे। गाँधीजीके जीवनमें निवृत्ति और प्रवृत्तिका ऐसा हिमायती क्या गृहस्थ क्या त्यागी सभी फिरकेबन्दी सुमेल जैनसमाजने देखा जैसा गुलाबके फूल और और गच्छ-गणके ऐकान्तिक कदाग्रह और झगड़ेमें सुवासमें। फिर तो मात्र गृहस्थोंकी ही नहीं, बल्कि 'फंसे थे। उन्हें यह पता ही न था कि अनेकान्तका त्यागी अनगारों तककी आँखें खुल गई। उन्हें अब यथार्थ प्रयोग समाज और राष्ट की सब प्रवृत्तियोंमें जैन शास्त्रोंका असली मर्म दिखाई दिया या वे शास्त्रों- कैसे सफलतापूर्वक किया जा सकता है ? गाँधीजी को नये अर्थमें नये सिरेसे देखने लगे। कई त्यागी तख्तेपर आये और कुटुम्ब, समाज, राष्ट्रकी सब अपना भिक्षुवेष रखकर भी या छोड़कर भी निवृत्ति- प्रवृत्तियोंमें अनेकान्तदृष्टिका ऐसा सजीव और प्रवृत्तिके गङ्गा-यमुना संगममें स्नान करने आये और सफल प्रयोग करने लगे कि जिससे आकृष्ट होकर वे अब भिन्न-भिन्न सेवाक्षेत्रामे पड़कर अपना अन- समझदार जैनवर्ग यह अन्तःकरणसे महसस करने गारपना सच्चे अर्थमें साबित कर रहे हैं । जैन गृहस्थ- लगा कि भङ्गजाल और वादविजयमें तो अनेकान्तका की मनोदशामें भी निष्क्रिय निवृत्तिका जो घुन लगा कलेवर ही है। उसकी जान नहीं । जान तो व्यवहारके था वह हटा और अनेक बूढ़े जवान निवृत्ति प्रिय जैन सब क्षेत्रोंमें अनेकान्तदृष्टिका प्रयोग करके विरोधी स्त्री-पुरुष निष्काम प्रवृत्तिका क्षेत्र पसन्द कर अपनी दिखाई देने वाले बलोंका संघर्ष मिटानेमें ही है। निवृत्ति-प्रियताको सफल कर रहे हैं। पहले भिक्षुभिक्षुणियोंके लिये एक ही रास्ता था कि या तो वे वेष म जन परम्पराम विजय सेठ और विजया सेठानी जैन परम्परामें विजय सेठ और विजया सेठानी धारण करनेके बाद निष्क्रिय बनकर दूसरोकी सेवा इस दम्पती युगलके ब्रह्मचर्यकी बात है । जिसमें दोनों लेते रहे, या दूसरोंकी सेवा करना चाहें तो वे वेष का साहचर्य और सहजीवन होते हुए भी शुद्ध ब्रह्मचर्य छोडकर अप्रष्ठित बनकर समाजबाह्य हो जायें। पालनका भाव है । इसी तरह स्थूलिभद्र मुनिके ब्रह्मगाँधीजीके नये जीवनके नये अर्थने निष्प्राणसे त्यागी चर्य की भी कहानी है जिसमें एक मुनिने अपनी पूर्व वर्गमें भी धर्मचेतनाका प्राण स्पन्दन किया। अब उसे परिचित वेश्याके सहवासमें रह कर भी विशुद्ध ब्रह्मन तो जरूरत ही रही भिक्षुवेष फेंक देनेकी और न डर चर्य पालन किया है। अभी तक ऐसी कहानियाँ रहा अप्रतिष्ठितरूपसे समांजबाह्य होनेका । अब लोकोत्तर समझी जाती रहीं। सामान्य जनता यही निष्काम सेवाप्रिय जैन भिक्षुगणके लिए गाँधीजीके समझती रही कि कोई दम्पती या स्त्री-पुरुष साथ रह जीवनने ऐसा विशाल कार्य-प्रदेश चुन दिया है, कर विशुद्ध ब्रह्मचर्य पालन करे तो वह दैवी चमत्कार जिसमें कोई भी त्यागी निर्दम्भ भावसे त्यागका जैसा है। पर गाँधीजीके ब्रह्मचर्यवासने इस अति आस्वाद लेता हुआ समाज और राष्ट्रके लिए आदर्श कठिन और लोकोत्तर समझी जाने वाली बातको बन सकता है। प्रयत्न साध्य पर इतनी लोकगम्य साबित कर दिया __जैनपरम्पराको अपने तत्वज्ञानके अनेकान्त कि आज अनेक दम्पती और स्त्री-पुरुष साथ रह कर सिद्धान्तका बहुत बड़ा गर्व था । वह समझती थी कि विशुद्ध ब्रह्मचर्य पालन करनेका निर्दम्भ प्रयत्न करते ऐसा सिद्धान्त अन्य 'किसी धर्म परम्पराको नसीब हैं। जैन समाजमें भी ऐसे अनेक युगल मौजूद हैं। नहीं है; पर खुद जैन परम्परा उस सिद्धान्तका सर्व अब उन्हें कोई स्थूलिभद्र की कोटिमें नहीं गिनता । लोक हितकारक रूपसे प्रयोग करना तो दूर रहा, हालाँकि उनका ब्रह्मचर्य-पुरुषार्थ वैसा ही है। रात्रिपर अपने हितमें भी उसका प्रयोग करना जानती न भोजनत्याग और उपभोग-परिभोग परिमाण तथा थी। वह जानती थी इतना ही कि उस वादके नाम उपवास, आयंबिल जैसे व्रत-नियम नये युगमें केवल पर भङ्गजाल कैसे किया जा सकता है और विवादमें उपहासकी दृष्टि से देखे जाने लगे थे और श्रद्धालु लोग For Personal & Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ ] अनेकान्त [ वर्ष ह इन व्रतोंका आचरण करते हुए भी कोई तेजस्विता कारण ही अब जैन समाज अहिंसा, स्त्री-समानता प्रकट न कर सकते थे। उन लोगोंका व्रत-पालन वर्ग-समानता, निवृत्ति और अनेकान्तदृष्टि इत्यादि केवल रूढ़िधर्म-सा दीखता था। मानों उनमें भावप्राण अपने विरासतगत पुराने सिद्धान्तोंको क्रियाशील रहा ही न हो। गाँधीजीने इन्हीं व्रतोंमें ऐसा प्राण और सार्थक साबित कर सकता है। फूंका कि आज कोई इनके मखौलका साहस नहीं जैन परम्परामें "ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा कर सकता। गाँधीजीके उपवासके प्रति दुनिया-भर नमस्तस्मै" जैसे सर्वधर्मसमन्वयकारी अनेक उद्गार का आदर है। उनके रात्रिभोजनत्याग और इने-गिने मौजूद थे। पर आम तौरसे उसकी धर्मविधि और खाद्य पेयके नियमको आरोग्य और सुभीते की दृष्टि प्रार्थना बिल्कुल साम्प्रदायिक बन गई थी। उसका से भी लोग उपादेय समझते हैं। हम इस तरह की चौका इतना छोटा बन गया था कि उसमें उक्त अनेक बातें देख सकते हैं जो परम्परासे जैन समाज उद्गारके अनुरूप सब सम्प्रदायोंका समावेश दुःसंभव में चिरकालसे चली आती रहनेपर भी तेजोहीन-सी होगया था। पर गाँधीजी की धर्मचेतना ऐसी जाग- . दीखती थीं; पर अब गाँधीजीके जीवनने उन्हें श्राद- रित हुई कि धर्मोको बाड़ाबन्दीका स्थान रहा ही नहीं। रास्पद बना दिया है। गाँधीजीकी प्रार्थना जिस जैनने देखी सुनी हो वह जैनपरम्पराके एक नहीं अनेक सुसंस्कार जो. र कृतज्ञता पूर्वक बिना कबूल किये रह नहीं सकता कि _ 'ब्रह्मा वा विष्णुर्वा' की उदात्त भावना या 'राम कहो सप्त या मूर्छित पड़े थे उनको गाँधीजी की धर्मचेतनाने रहिमान कहो की अभेद भावना जो जैन परम्परामें स्पंदित किया, गतिशील किया और विकसित भी मात्र साहित्यिक वस्तु बन गई थी। उसे गाँधीजीने किया। यही कारण है कि अपेक्षाकृत इस छोटेसे और विकसित रूपमें सजीव और शाश्वत किया। समाजने भी अन्य समाजों की अपेक्षा अधिक ___हम गाँधीजीकी देनको एक-एक करके न तो गिना संख्यक सेवा-भावी स्त्री-पुरुषोंको राष्ट्रके चरणोंपर अर्पित किया है, जिसमें बूढ़े, जवान, स्त्री-पुरुष होन सकते हैं और न ऐसा भी कर सकते हैं कि गाँधीजी की अमुक देन तो मात्र जैन-समाजके प्रति ही है हार तरुण-तरुणी और त्यागी भिक्षु वर्गका भी । और अन्य समाजके प्रति नहीं । वर्षा होती है तब समावेश होता है। क्षेत्रभेद नहीं देखती। सूर्य चन्द्र प्रकाश फेंकते हैं तब ___ मानवताके विशाल अर्थमें तो जैन समाज अन्य भी स्थान या व्यक्तिका भेद नहीं करते । तो भी समाजोंसे अलग नहीं । फिर भी उसके परम्परागत जिसके घड़ेमें पानी आया और जिसने प्रकाशका संस्कार अमक अंशमें इतर समाजोंसे जदे भी हैं। सख अनभव किया. वह तो लौकिक भाषामें यही ये संस्कार मात्र धर्म कलेवर बन धर्मचेतनाकी कहेगा कि वर्षा या चन्द्र सूर्यने मेरेपर इतना उपभूमिकाको छोड़ बैठे थे । यों तो गाँधीजीने विश्वभरके कारे किया। इसी न्यायसे इस जगह गाँधीजीकी देन समस्त सम्प्रदायों की धर्मचेतनाको उत्प्राणित किया का उल्लेख है, न कि उस देनको मर्यादाका। है; पर साम्प्रदायिक दृष्टिसे देखें तो जैन समाजको गाँधीजीके प्रति अपने ऋणको अंशसे भी तभी मानना चाहिये कि उनके प्रति गाँधीजीकी बहुत बड़ी अदा कर सकते हैं जब हम उनके निर्दिष्ट मार्गपर और अनेकविध देन है। क्योंकि गाँधीजीकी देनके चलनेका दृढ़ संकल्प करें और चलें। For Personal & Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय इतिहासमें अहिंसा (लेखक-श्रीदेवेन्द्रकुमार) सृष्टि और मनुष्यका विकास कैसे हुआ, यह प्रश्न विकास नहीं समझ सकते। अभी भी विवाद-ग्रस्त है । धार्मिक कल्पना और 'वेद-वाङ्गमय' भारतका ही नहीं विश्वका प्राचीन वैज्ञानिक अनुसन्धान भी इस विषयमें हमारी अधिक वाङ्गमय है । उसका तथा दूसरी सभ्यताओंके विकास सहायता नहीं करते । इतिहासकारोंने सृष्टि विकासके का अध्ययन करनेसे एक बात विशेषरूपसे हमारा जो सिद्धान्त स्थिर किये हैं उनके अनुसार मानव ध्यान आकर्षित करती है और वह यह कि सभी जातिका इतिहास कुछ ही हजार वर्षोंका है । अग्रेज सभ्य मानव जातियाँ आरम्भमें शिकार और खेतीइतिहासकार, एम० जी० वेल्सने विश्व इतिहासकी बाड़ीसे अपना कार्य चलाती रहीं । इस प्रथाके साथ रूपरेखा खींचते हुए, ई० पू० छठवीं सदीको मान- 'पशुबलि' अनिवार्य रूपसे जुड़ी हुई थी। कहीं-कहीं वीय सभ्यताकी विभाजक रेखा स्वीकार किया है। मनुष्योंकी भी बलि दी जाती थी, वेदोंमें मनुष्यबलिआपके अनुसार यह सदी ही वह समय है जब का उल्लेख नहीं मिलता परन्तु पशुबलिका स्पष्ट मानवजातिने दर्शन और चिन्तनके नये युगमें कदम, विधान है। यज्ञ वैदिक आर्योंका प्रधान सामाजिक रक्खा । और तभीसे आधुनिक विचारधारांकी नींव उत्सव था। उसमें सभी जातिके लोग भाग लेते । पड़ी। एच० जी० वेल्सका यह भी कहना है कि यज्ञोंका मुख्य लक्ष्य ऐहिक सुख-समृद्धि था, धन प्रारम्भिक युगोंमें मनुष्य निरा असभ्य था। बहुत धान्यकी बढ़नी और शत्रुओंका संहार ही प्रारम्भिक युगोंके विकासके बाद उसमें विचारपूर्वक सोचनेकी आर्योंकी धामिकताका उद्देश्य था । पर ज्यों-ज्यों उनमें चेतना आई और उसने रक्तिम बलिदान, पुरोहिती विचार चेतना बढ़ी त्यों-त्यों पशुबलिके विरुद्ध भीषण तथा आडम्बरके विरुद्ध नई क्रान्ति की, यह क्रान्ति प्रतिक्रिया जोर पकड़ती गई। इस प्रतिक्रियाका स्पष्ट भारत, बेवोलीन, चीन और एफेससमें एक साथ आभास हमें उत्तर वैदिककालमें होने लगता है। हुई। इस कालमें कई समाज नेता और सुधारक आगे चलकर 'सोलहमहाजनपद' युगमें वह आभास, उत्पन्न हए, जिन्होंने पुराने गरुडमका विरोधकर नये कोरा आभास ही नहीं रह जाता किन्तु अहिंसा आदर्शोंकी प्रतिष्ठा की। उनके मतसे सरल जीवन भारतीय संस्कृति की रीढ' बन जाती है । महावीर और आत्मसंयम ही जीवन सुखी बनानेका सच्चा और बुद्धके युगसन्देशोंके लिये पृष्ठभूमि बहुत उपाय था । जहाँ तक विश्व इतिहासकी दृष्टिसे पहिलेसे बनना शुरू होगई थी, और एक प्रकारसे विचार करनेका प्रश्न है, उक्त लेखकका कथन प्रायः उनके समय भारतीय राजनीति, समाजसंस्थान और ठीक है । परन्तु भारतीय इतिहासमें यह 'सामाजिक दार्शनिक विचार स्पष्टरूपसे अपना आकार-प्रकार क्रान्ति' ई०पू० छटवीं सदीके कई सौ वर्ष पहिले हो ग्रहण कर चुके थे, उन्होंने उसमें केवल 'अहिंसा और चुकी थी; भगवान महावीर और बुद्धने जिस विचार मनुष्यता' का दार्शनिक एवं आध्यात्मिक सौन्दर्य धारापर जोर दिया वह बहुत प्राचीनकालसे भारतीय प्रतिष्ठित कर उसे नई दिशामें मोड़ा। जीवनमें प्रवाहित होती चली आरही थी, उसका ऊपर कहा जा चुका है कि महावीर और बुद्धठीक आकलन किये बिना हम अहिंसाका सही के पहले ही 'हिंसा और अहिंसा' का संघर्ष शुरू For Personal & Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ ] हो चुका था । 'यह संघर्ष' धार्मिक हिंसा के अनौचित्य• से प्रारम्भ हुआ। परन्तु धीरे-धीरे वह मानव-समाज के सभी में फैलता गया । इसका क्रमिक विकास समझने के लिये दो एक घटनाओंका अङ्कन कर देना जरूरी है। वैदिक वाङ्गमय में ऐसी बहुत-सी कहानियों का उल्लेख मिलता है जिससे इतना ऐतिहासिक तथ्य स्पष्ट निकल आता है कि 'वसु' चैचोमयर के समय धार्मिक सुधारकी एक लहर चली जो यज्ञोंमें पशुके बजाय नको आहुति देनेके पक्षमें थी । तथा जो कर्मers और तपकी जगह भक्ति और सदाचारपर बल देती थी। आगे चलकर यही विधि सात्वतविधि कहलाई। इसके साथ वासुदेव कृष्ण संकर्षण प्रद्युम्न एवं अनुरुद्धका नाम जुड़ा हुआ है । यह सात्वत विधि पूणरूपसे अहिंसक थी । पर इसमें अहिंसाका भाव एकाएक नहीं आया, विश्व में कोई भी घटना बिना कारण नहीं घटती । सात्वत पूजा विधिके विषय में भी यही समझना चाहिये । जैन पुराणों में यदुकुमार 'नेमिनाथ' के वैराग्यकी घटना इस बातका स्पष्ट प्रमाण है किस तरह आर्योंके जीवन और संस्कृतिमें परोपकारके लिये कुछ लोग अपने व्यक्तिगत सुखको लात मारकर साधनामय जीवन स्वीकार कर रहे थे । नेमिनाथ रथपर बैठे, राजुलको व्याहने जा रहे थे, रास्ते में उन्होंने देखा बहुतसे पशुपक्षी एक बेड़े में घिरे छटपटा रहे हैं। उन्होंने पूछा क्यों ? उत्तर मिला, साथी क्षत्रिय कुमारोंको भोजन के लिये इनका शिकार होगा ? युवकका हृदय करुणा और समानानुभूति से भर आया, उन्होंने 'मौर' उतार कर दीक्षा ले ली । जब राजुलने यह सुना तो वह साध्वी भी उमङ्गोंकी चिता जलाकर गिरनार पर्वत पर तपस्या करने लगी । उनके इस साधना और त्यागमय जीवनका जो असर गुजरात और आसपासकी लोकसंस्कृतिपर पड़ा वह आज भी अमिट है । उसके बाद दूसरा उदाहरण पार्श्वनाथका है, कि उन्होंने किस प्रकार सहिष्णुता और धैर्यसे व्यक्तिगत विरोधका बदला चुकाया । एक नहीं कितने ही जन्मों तक वे विरोधी हिंसाका अहिंसक सामना करते रहे अनेकान्त [ वर्ष परन्तु कभी भी उनके भावोंमें विकृति नहीं आई । इन दो उदाहरणोंसे इस बात में सन्देह नहीं रह जाता कि भारतीय इतिहास में अहिंसाकी प्रतिष्ठा व्यक्तिसाधना और त्यागके बलपर ही हुई । नेमिकुमार और पार्श्वनाथ किसी सम्प्रदाय के नहीं थे, क्योंकि सम्प्रदाय उस समय नहीं थे। ये लोग चाहे जिस वर्गके रहे हों, परन्तु वे उन विचारकों में नहीं थे जो यज्ञमें पशुवलि आदि के समर्थक थे । मैं समझता हूँ हिंसा और अहिंसाका यह विचार तभी से मनुष्य के साथ चला आ रहा है जबसे उसमें सोचने और समझनकी बुद्धि आई । उपनिषद और सोलह महाजन - पद-युगमें यह प्रतिक्रिया अधिक स्पष्टरूपसे दिखाई देने लगती है । आर्य अब 'जन' से जनपद और जनपदसे महाजन पद संस्कृतिमें पहुँच चुके थे । साथ ही उनमें महाजनपद से 'साम्राज्यनिर्माण' की प्रतिक्रिया चल रही थी । हिंसा और अहिंसाका ठीक व्यक्तित्व इस समय हमारे सामने आया । यह दो रूपमें व्यक्त हुआ एक ओर तो वे लोग थे जो पिछली दार्शनिक परम्पराको छोड़नेके लिये प्रस्तुत न थे और उसमें उनकी पूरी आत्मा थी, परन्तु उसके व्यावहारिक रूपमें उन्होंने अहिंसाको स्वीकार कर लिया । इस प्रकार पहले पहल उपनिषदोंमें सुनाई दिया "सवा एते प्रदृढ़ा यज्ञरूपा" ये यज्ञ फूटी नावकी तरह हैं, सृष्टि के अन्दर एक चेतन शक्ति है जो उसका संचालन करती है, प्रायः उस शक्तिको ब्रह्म कहते हैं, इस प्रकार इन्द्र, वरुण आदि पुराने वैदिक देवताओंकी गद्दीपर उपनिषदों के विचारकोंने ब्रह्मकी स्थापना कर दी ! और यज्ञवाली पूजाविधिके वजाय, एक नये आचरण मार्गका उपदेश दिया। यह आचरण-मार्ग था दुश्चरितसे विराम, इन्द्रियों का वशीकरण, मनकी शुचिता और पवित्रता । कठ- उपनिषद में मनुष्यकी जीवनकी यात्राका चरम लक्ष्य विष्णुपदकी प्राप्ति कहा गया है । इन विचारोंसे स्पष्ट है कि 'आत्मतत्त्व' की और आयकी चिंताका विकास होरहा था, परन्तु इसके सिवा एक और वर्ग था जो आत्मतत्त्वको For Personal & Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १० ] , भारतीय इतिहासमें अहिंसा [ ३७७ मानते हुए भी अनीश्वरवादी था, भगवान बुद्ध संभ- अहिंसाका प्रश्न उठा था, परन्तु इसका श्राशय यह वतः इसी वर्गके थे उन्होंने देखा कि मनुष्य 'अज्ञात नहीं है कि उसका प्रभाव समाजके सामूहिक और ईश्वर' और आत्मतत्त्वके मोहमें पड़ कर विविध व्यक्तिगत जीवन पर नहीं पड़ा। . अन्धविश्वासों एवं संग्रहशील प्रवृत्तियोंमें उलझा है, दार्शनिक जागरणके साथ साथ हिंसा की परिफलतः ईश्वर और आत्माका निषेध करते हुए उन्होंने भाषामें भी बहुतसा हेरफेर हुआ एक समय नारा था वर्तमान और दृश्यमान दुख-समूहके विरोधका उपाय - वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति"-इसका सीधा बताया । भगवान बुद्ध पूर्वतः अहिंसावादी थे, अर्थ था कि अहिंसा अच्छी वस्तु है परन्तु वैदिकी महावीर और बुद्धमें तात्त्विक अन्तर यह था कि हिंसा भी हिंसा नहीं अपितु अहिंसा ही है । पर यह महावीर आत्माकी सत्ता स्वीकार करते हुए भी उसे तक अधिक दिन नहीं ठहरा। आर्य जीवनके धार्मिक ईश्वर होनेके योग्य समझते हैं, उपनिषद में एक ही क्षेत्रोंमें रक्तपात तो नहीं हआ किन्तु भोग विलास ब्रह्मको समूची चेतनाका प्रतिनिधि स्वीकार किया और सामाजिक उत्सवमें अभी भी क्रूर हिंसा होती थी। गया है। इस तरह ये तीनों विचार धाराएँ अपने ढङ्ग अशोककी धर्मनीति एवं सामाजिक सुधारोंसे इन बातों से भारतीय संस्कृतिमें अहिंसक भावना ढाल रही थीं पर अच्छा प्रभाव पड़ता है। मनुष्यमें अपने विश्वास अहिंसाकी दार्शनिक पृष्टभूमिमें आगे चलकर इन और विचारोंके प्रति बहुत ही कट्टर ममता होती है, विचारोंका बहुत गहरा असर दिखाई देगा। सबसे एक बार जो विचार उसके मनमें जम जाता है उसे बड़ी बात यह है कि दार्शनिक चिंतनमें भेद होते हुए शीघ्र हटाना बहुत कठिन है। पिछली धार्मिक क्रान्ति भी 'अहिंसा' की उपासनामें भारतीय विचारकोंकी में हिंसा अवश्य कम हुई थी परन्तु पुनः लोग उसकी समान-आस्था बढ़ी। महावीर और बुद्धकी धर्मदेशना और आकृष्ट होरहे थे। बुद्ध और महावीरके प्रयत्नों का तो ऐसा प्रभाव पड़ा कि यज्ञोंकी प्रथा भारतीय से धार्मिक अहिंसाका प्रसार तो हुआ परन्तु सामा-. सामाजिक जीवनसे एक दम उठ गई और उसके जिक जीवनमें वह अभी पूरे तौरपर प्रतिष्ठित नहीं स्थानपर सात्विक जीवन, मित आहार-विहार एवं हुई थी। इतने विशाल देशमें सहसा युगोंके संस्कारों आत्म-चिन्तनकी प्रवृत्ति बड़ी यज्ञकी जगह भक्ति, को बदलना भी आसान बात नहीं थी। अशोक जब भारतीय लोक-जीवनमें स्फुरित हुई । वैदिकोंकी शासनारूड हुआ तो उसने भीरतीय इतिहासमें एक 'आश्रम-प्रणाली में अहिंसाका भाव ही सर्वोपरि सर्वथा नई और उदात्त नीतिका प्रवर्तन किया। यह दीख पड़ता है ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और नीति कलिङ्ग युद्धको लेकर शुरू हुई । या तुरन्त राज्य सन्यासी इन चारों आश्रमोंके क्रमिक अध्ययनसे यह स्थापनाका कार्य जारी करते हुए उसने कलिङ्ग भली भाँति स्पष्ट होजाता है कि वैदिक साधककी (उड़ीसा) पर हमला बोला । कहते हैं उसमें २॥ लाख जीवन-साधना किस प्रकार आगेके आश्रमोंमें अहिंसक कलिङ्ग वासियोंने अपनी स्वाधीनताके लिये प्राणाहुति एकान्त अकिंचन और आत्म-निर्भर होती चली गई दे दी । इस भयङ्कर रक्तपातने विजेता अशोकके है। उच्चकोटिके सन्यासीको परमहंस' की संज्ञा दी विचारोंपर गहरी छाप डाली। उसने तलवारकी . गई है. इसका अर्थ है 'आत्मा' । परम अर्थात् उत्कृष्ट अपेक्षा धर्मविजय द्वारा अपने राज्यका विस्तार किया आत्मविकासका यह उत्कृष्ट रूप बलिदान और बाह्य उस समय सामाजिक उत्सव तथा खानपानमें बहुत आडम्बरसे कथमपि प्राप्य नहीं, वह आत्मचिन्तन ही भोंडी हिंसा होती थी, अशोकने उसे 'विहिंसा' और साधना द्वारा ही सम्भव है। ऊपर इस बातका कहा है। 'समाज' और 'विहार-यात्रा' जिसमें कि संकेत होचुका है कि भारतीय संस्कृतिमें 'पशुबलि' अकारण पशुओंका वध होता था उसने बन्द करवा के औचित्य और अनौचित्यके सिलसिलेमें हिंसा और दी और उसके स्थानपर धर्मयात्राकी नींव डाली। For Personal & Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८) अनेकान्त । [ वर्ष ६ आधुनिक 'रथयात्रा' उसीका विकसित रूप है । मिलता है. यह ई० पू० का जैनग्रन्थ है । उसमें अशोककी अहिंसा नीतिका उद्देश्य अकारण हिंसा अहिंसाका यह लक्षण किया है। एवं भोंडी क्रूरताको रोकना था प्रायः वह सबके प्रति 'मरदु व जियदु व जीवो अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा । समचर्याका पक्षपाती था, उसके सारे कार्य और नीति पयदस्स पत्थि बंधो हिंसामित्तण समिदस्स ॥' इसी भावनासे अनुप्राणित थे. एक राजाके नाते वह जीव मरे या न मरे, किन्तु जो अयत्नपूर्वक प्रवृत्ति जिस प्रकारकी अहिंसा बिना किसी साम्प्रदायिक करता है वह हिंसक है पर जो प्रयत्नशील है हिंसों आग्रहके प्रसारित कर सकता था उसमें अशोकने कोई हो जानेपर भी वह निर्दोष है।' कोर-कसर नहीं रखी, कुछ ऐतिहासिकोंने मौर्य आचार्योंने इसीलिये मूर्छा' और 'प्रमाद' को साम्राज्यके पतनमें उसकी 'धर्मविजय' की नीतिको हिंसा कहा है। इसी सिद्धान्नको तत्त्वार्थसूत्रमें इस दोषी ठहराया है, पर जिन्होंने इतिहासका बारीकीसे प्रकार प्रथित किया गया है-'प्रमत्तयोगा-प्राणव्यपरोमनन किया है. उनसे यह बात छिपी नहीं कि अशोक पणं हिंसा'-अर्थ है कि प्रमादके योगसे प्राणोंका की नीतिके कारण ही भारत महत्तर बना और वह वियोजन करना, ये प्राण परके भी हो सकते हैं और अपनी संस्कृति एशिया तथा अन्य राष्ट्रोंमें फैला सका अपने भी। जैन अहिंसाकी मौलिक और दार्शनिक यदि मौर्य साम्राज्यके पतनका कारण अशोककी नीति मीमांसा इससे बढ़ कर दूसरी नहीं हो सकती ? को माना जाय. तो शुङ्ग और गुप्त साम्राज्यके पतनका मनुष्य बुद्धि जो परे है और जबसे उसमें यह चेतना कारण क्या था ? अस्तु ! यहाँ इतिहासकी छानबीन जाग्रत हुई वह किसी भी तत्त्व' को बिना दर्शनके करना हमारा लक्ष्य नहीं है। अशोकके बाद जिन स्वीकार नहीं करता। वेदयुमका क्रियाकांड भले ही लोगोंने अहिंसा और शान्तिकी नीतिको आगे बढ़ाया जिज्ञासा और भयमूलक रहा हो. परन्तु आगे आर्य उनमें सम्प्रतिका नाम सर्वप्रथम लिया जायगा। विचारकोंने सृष्टि, ईश्वर, लोक, परलोक आदि पर सम्प्रतिने जैनधर्मके प्रसारके लिये अनेक जतन किये खूब चिन्तन किया बिना दार्शनिक समाधानके उन्होंने परन्तु यहाँ जैनधर्म या बौद्धधर्मका संकुचित अर्थ नहीं किसी बातको स्वीकार नहीं किया। लेना चाहिये। मनुष्य 'अहिंसा' को क्यों अपनाए ? हिंसा क्या मौर्य साम्राज्यके पतनके बादसे ई० प्रथम सदी है ? इत्यादि प्रश्नोंका उत्तर खोजनेपर चेतन' 'तत्त्व' तक हम दो विचारोंका साथ-साथ विकास देखते हैं, की अनुभूति हुई; इस चेतन या जीव तत्त्वकी सत्ता पुष्यमित्र शुङ्गने न केवल शुगराज्य स्थापित किया अपितु प्रथक् है यह वह जड़से उत्पन्न है ? वह स्वतन्त्र एक 'अश्वमेध-पुनरुद्धार' और धार्मिक रूढ़ियोंको पुनः इकाई है, या परमार्थसत्ताका एक अंश है. इन प्रश्नोंस्थापित किया उसकी घोषणा थी-'यो मे श्रमणशिपे का बहुत समय विचार होता रहा और तरह तरहके दास्यति तस्याहं दीनारं-शतं दास्यामि"-पिछले युगों मत खड़े हुए ? उनमें जो लोग 'ईश्वर'को कर्तारूप में भारतीय संस्कृतिसे जो धार्मिक हिंसा उठती जारही मानते थे उनके विचारोंका अन्त वेदान्त' विचार थी, इस युगमें वह पुनः जीवित हो उठी ठीक धारामें हुआ. पर जो 'जीव'का स्वतन्त्र अस्तित्व इसी समय 'अहिंसाका वैज्ञानिक विवेचन लिखितरूप समझते थे, या जिन्होंने आत्मवाद'के गहरे मोहका में हमें देखनेको मिलता है। ऐसा जान पड़ता है कि निरसन करनेके लिए-अनात्मवाद और अनीश्वरशुङ्ग शासकोंकी प्रतिक्रिया अधिक नहीं टिक सकी। वादका समर्थन किया-उनकी विचाराधारा श्रमण आर्य विचारकोंके सामने प्रश्न आया कि अहिंसाका कहलाई : इस प्रकार-श्रात्मानुभूति द्वारा 'चेतन'की दार्शनिक आधार क्या हो ? इसका प्रथम विश्लेषण सत्ता हो जानेपर-भारतीय विचारकोंकी दृष्टि, बाह्य जहाँ तक इस लेखकका अनुमान है, 'ओघनियुक्ति' में से हटकर अन्तरकी ओर उन्मुख हुई ! उन्होंने हिंसा For Personal & Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १० ] भारतीय इतिहासमें अहिंसा . [३७९ या बलिद्वारा नहीं. अपित ध्यान. धारणा एवं समाधि- ही वैष्णव भी करते हैं। इसके पीछे. उनकी दार्शनिक को अपनी साधनामें जगह दी ! शङ्करके वेदान्तमें विचारधारा अवश्य कुछ भिन्न है ? 'ईश्वर'का चाहे जो रूप हो. परन्तु यह स्पष्ट है कि . अहिंसाके विषयमें जैनधर्मका दृष्टिकोण वस्तुतः उसमें हिंसाको लेशमात्र भी स्थान नहीं है ? इसी मौलिक है, यह मौलिकता इसमें है कि जैनविचारकोंने प्रकार वानप्रस्थ और सन्यास आश्रममें भी साधकोंकी अहिंसाकी व्याख्याका विचारविन्दु आत्माको माना जो चर्या बतलाई गई है उसमें अपरिग्रह और अहिंसा- है। इसे दूसरे शब्दोंमें आध्यात्मिक भी कहा जा का सूक्ष्म विचार है ? 'अधिनियुक्ति'कारके अहिंसाका सकता है; 'अहिंसा' या हिंसा-पहले 'स्व' में होती लक्षण, और भारतीय साधनामें अहिंसाका प्रवेश, है। बाहर तो उसकी प्रतिक्रिया ही देखने में आती है। एकाएक नहीं हो गया. वह सदियोंकी चिन्तना और अहिंसाका विचार करते हुए न्होंने चार बातोंका साधनाका परिणाम है । विभिन्न धर्मोके शास्त्रोंका विचार किया है । हिंस्य, हिंसक, हिंसा और हिंसाका अध्ययन करनेसे यह स्पष्ट आभास हो जायगा कि फल । सूक्ष्मदृष्टिसे विचारनेपर यह स्वतः अनुभवमें किस प्रकार भारतीय विचारक एक दूसरेसे प्रभावित आता है कि व्यक्ति कषाय करके पहले स्वयं अपने होते रहे ? साम्प्रदायिकता भारतमें ७वीं ८वीं सदीके भावोंका हनन करता है. इस लिए वह स्वयं हिंस्र बाद आई ! इसके पहले खुलकर विचारोंका आदान- और हिंसक है। यह बहुत ही सूक्ष्म विवेचन है ? प्रदान होता था। वास्तवमें देखा जाय तो आत्मा न तो हिंस्य है और न वेदान्त' की पृष्ठभूमि भागवतधर्म और बौद्ध- हिंसक । गीताकारने कहा है:दर्शनके कुछ विचार हैं ? शुङ्गकालमें भागवत-धर्मको ‘य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम् । जन्म, उस विचारधाराने दिया था जो वेदयुगसे ही उभौ तौ न विजानीतौ नाऽयं हन्ति न हन्यते ॥' हिंसाके विरोधमें उठी थी। चिरकालके संघर्षके बाद ऐसी स्थितिमें हिंसा और अहिंसाका प्रश्न ही उस समय इस विचारधाराकी इतनी प्रबलता थी-- नहीं उठता ? यह विवेचन वस्तु-स्वभावको देखनेकी कि हिंसा पूजा विधानके प्रति जनता घृणा करने लगी दिखानेकी दृष्टिसे है । यदि व्यवहार-जगतमें उसे थी। इसलिये भागवतधर्म और उसके उत्तरकालीनरूप लगाया जाय तो हमारी सारी व्यवस्था छिन्न-भिन्न वैष्णवधर्ममें 'अहिंसा' को प्रधान स्थान दिया गया ? हो जाय ? इसलिए 'अहिंसा'का व्यवहारिक पक्ष गुप्तकालमें पुनः हिन्दूधर्मका उद्धार हुआ, परन्तु भी है। प्रकृत विश्वमें 'सुखदुख' भय और आशङ्का इतिहासकी धारा सदैव आगे बढ़ती है. उसे पीछे नहीं का अनुभव सभीको होता है। प्रत्येक प्राणीमें जीनेका ढकेला जा सकता ? यह कहा जा चुका है कि आर्योंने मोह है. चाहे वह कैसी परिस्थितिमें क्यों न हो; अतः धार्मिक उपासना प्रकृतिसे ग्रहण की थी। उन्होंने प्रकृति यथाशक्ति उनमें प्राणोंकी विराधनासे बचना ही में दो तत्त्व देखे, भद्र और भयङ्कर । इन्हींके आधार- व्यवहारिक अहिंसा है, जो साधक आलस्य रहित पर शिव और रुद्रं इन दो शक्तियोंकी कल्पना की गई; होकर, अपने लौकिक जीवनका निर्वाह करता है और उसीके अनुरूप उसकी उपासना प्रचलित हुई। वह अहिंसक है ? पर और अध्यात्मिक साधनामें भागवद्धर्ममें उसे ब्रह्म' कहा गया और उसके विष्णु लगा हुआ प्रमादी मनुष्य हिंसक है ? इस तरह आदि अवतार स्वीकार किए गए—पर इन अवतारों- अहिंसाका सारा तत्त्वज्ञान आत्माकी जागरुकतापर की उपासनापद्धति पूर्ण अहिंसक रही ? आचार्य ही निर्भर रहता है ? ... शङ्करने संगुणकी जगह ब्रह्मको निर्गुण माना । परन्तु 'अहिंसा' अनुभूतिगम्य है ? वह तर्क सिद्ध नहीं। अहिंसा वहाँ भी आवश्यक मानी गई। अहिंसाका है ? इसलिये अहिंसाका जितना भी तत्त्वज्ञान है, व्यवहारमें जितना सूक्ष्मपालन जैन करते हैं-उतना वह 'आत्मानुभूति' पर अवलम्बित है ? मनुष्यने For Personal & Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० ] अनेकान्त [वर्ष ह जब अपनेमें स्थित चैतन्यका अनुभव किया होगा तभी जाता ? विरोधी और आरम्भ-सम्बन्धी हिंमा इसउसके मनमें दूसरे प्राणियोंके प्रति ममताका भाव लिये अनिवार्य है; क्योंकि गृहस्थको सांसारिक उत्तरजमा होगा ? किन्तु मानव जातिके इतिहासमें अनु- दायित्वके लिये वह आवश्यक है ? अहिंसाका यह भूति भी बुद्धिका विषय बनती रही है ? भगवान् संतुलितरूप ही एक ओर युद्ध में हत्याका विधान बुद्धके सामने जब दार्शनिक प्रश्न आए तो उन्होंने करता है और दूसरी ओर जलगालन का उपदेश मौन रहना ही श्रेष्ठ समझा । उन्होंने विश्वमैत्री, समता करता है । वैदीययुगमें जैन-गृहस्थके आचार-विचारमें और सदाचारका जो भी उपदेश किया वह अनुभूतिसे जो अहिंसक बारीकियाँ दीख पड़ती हैं, वे आज भी ही उद्भूत था, परन्तु आगे चलकर-उस अनुभूतिकी ज्योंकी त्यों हैं। उनके इस आचार-विचारको देखकर, जो छानबीन हुई-उसने उनके धर्मको दर्शनकी सहस्रों लोग जैन-धर्मकी अहिंसाको अव्यवहार्य अनेक धाराओं में बाँट दिया। 'अहिंसा' की भी यही समझने लगते हैं ? इसमें सन्देह नहीं कि शास्त्रोंके गत हुई । पं० आशाधर' (१३वीं सदी)के समय 'माँस रूढ़िवादी अध्ययनसे गृहस्थोंमें बहुत-सा मुनिधर्म भक्षण' करना चाहिए या नहीं, आदि तार्किक प्रश्न प्रवेश पा गया है ! व्यक्तिकी दृष्टिसे चाहे यह कितनी पूछे जाते थे । उन्होंने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ सागार ही उच्चकोटिकी साधना हो, परन्तु समाजकी दृष्टिसे धर्मामृतमें ऐसे ही प्रश्नोंका बहुत ही कटु उत्तर दिया वह किसी कामकी नहीं। इसमें व्यर्थ अहङ्कारकी पुष्टि है। किसीने तर्क उपस्थित किया कि प्राणीका अङ्ग होती, पर व्यक्तिकी आलोचना सिद्धान्तकी आलो होनेसे माँस भी भक्षणीय है; जैसे गेहूँ आदि ! इसपर चना नहीं है। •आशाधरजीने उत्तर दिया है-प्राणीका अङ्ग होनेसे सर्वभूत दयाका भाव सभी धर्मों में अच्छा कहा ही प्रत्येक चीज़ भक्षणीय नहीं होजाती ! क्योंकि स्त्रीत्व गया है । इसलिये वे हिंसा, झूठ, चोरी, दुःशील और रहनेपर भी पत्नी ही भोग्य है न कि माता ? तो फिर परिग्रहसे बचनेका उपदेश करते हैं, या इस उपदेशमें इसका निर्णय कैसे हो; साफ है कि विवेक-बुद्धि ? भी अहिंसाका भाव दिया हुआ है और इसकी सङ्गात हमेस्वयं साचनाहागा किव्यवहारम कसा आचरण- तभी ठीक बैठ सकती है जब अहिसाका सम्बन्ध अहिंसा हो सकता है ? सम्भवतः इसीके विवेचनके आत्मासे माना जाय । झूठ बोलना, चोरी करना और लिये और व्यवहारमें अहिंसाको खड़ा करनेके लिये परस्त्रीगमन करना क्यों बुरा है ? जबकि देखा गया है उसमें भेद कल्पित हुए ! आखिर खण्डरूपमें ही कोई कि उससे मनुष्यको एक प्रकारका सुख-सन्तोष सिद्धान्त जनताके जीवनतक पहुँच सकता है ? मिलता है । इस सुख-सन्तोषसे आत्माको वञ्चित ___ अहिंसाका सम्पूर्ण आचरण गृहस्थोंके लिये करना उसे दुख पहुँचाना है; और यह हिंसा ही है ?. असम्भव है, इसलिये उन्हें संकल्पी-हिंसासे बचनेका यदि हम आत्माको पकड़कर चलें तो सहजमें इस प्रश्न प्रयत्न करना चाहिए ! इसका आशय यह है कि वह का उत्तर मिल जायगा। हम स्वयं अनुभव करते हैं संकल्प करके दूसरोंको हानि पहुंचानेकी चेष्टा न कि झूठ, चोरीसे जो सुख मिलता है वह क्षणिक है। करेगा, परन्तु साथमें उसका जीवन इतना सरल और क्षणिक ही नहीं, दूसरे क्षणमें दुखदायी भी है। क्यों ? श्राडम्बर-शून्य होना चाहिए कि जिससे अप्रत्यक्षरूप वह आत्माके व्यक्तित्वका हनन करता है । वह सुख से भी वह, अपने लिये दूसरोंके हित न छीने ! यदि नहीं. सुखाभास है । आत्मा स्वयं अच्छे-बुरे कार्योंका वह अपने भोग-विलासका अधिक विस्तार करता है निर्णायक है, और यहीं वह आत्म-न्याय है जिससे तो निश्चित है कि उसके लिये अधिक विरोधी और पापी व्यक्ति, कानून और समाजसे बचकर भी आरम्भी-हिंसा करना पड़ेगी ? और ऐसे व्यक्तिके आत्मग्लानिमें गलता रहता है। जैन-वाङ्गमयमें पाँच लिये-संकल्पी अहिंसाका कोई मूल्य नहीं रह पापोंके मूल में हिंसा को ही बताया गया है, इसलिये For Personal & Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १० ] भारतीय इतिहासमें अहिंसा [ ३८१ पाँच महाव्रतोंके मूलमें अहिंसा ही निहित समझना हत्या पर घृणाके गीत लिखे जा रहे थे और दूसरी चाहिए। ओर-जीवनमें गहरी और विषाक्त आसक्ति बढ़ 'अहिंसा' से न केवल भारतीयोंका जीवन ही रही थी। जिस तरह राजपूतोंकी वीरता-प्रेम एवं संस्कृत हुआ अपितु-उसके स्थापत्य, ललितकला भोग-विलासमें निखर रही थी उसी तरह-अहिं और वाङ्गमयपर भी उसकी अमिट छाप पड़ी। मौर्य- सकोंकी अहिंसा जीवतन्तुओंको बचाती हुईकालसे गाँधीयुग तक जितना जो भी विकास, कलादिका मनुष्यका शोषण कर रही थी। अंग्रेजोंकी शासनहुआ उसमें भारतीयोंकी सहज़ सुकुमार वृत्तियों और छायामें दोनोंके लिए छूट थी। एक ओर-कालीके भावोंकी ही अभिव्यक्ति हुई है। कुछ स्थल और मन्दिरोंमें बलिकी स्वतन्त्रता थी और दूसरी ओर देवस्थान अवश्य ऐसे हैं जहाँ अभी भी धार्मिक जैनियोंके अहिंसा चरणमें किसी प्रकारकी बाधा न हत्याएँ होती हैं. पर नगण्यरूपमें । भारतमें वस्तुतः आए इसका भी सुप्रबन्ध था। जैनी चतुर्दशीको हरा आज अहिंसाका भाव इतना उग्र है कि कट्टरसे कट्टर शाक नहीं खा सकता परन्तु परोंकी टोपी और विदेशी सनातनी भी अश्वमेधकी बात भी नहीं कर सकता ? चमड़ेके जूते पहन सकता है ? फिर भी वहअनुव्रती है ? क्यों, कारण स्पष्ट है ? विश्वशान्तिके नामपर जो कुछ एक मारवाड़ी वैष्णव, एक ओर पिंजरापोल खोलकर यज्ञ अभी हालमें हुए उनका 'शाकल्य एकदम अपनी दयाका प्रदर्शन करता है और दूसरी ओरसात्विक था । आरम्भमें भारतीय जीवन कितना कलकत्ता, बम्बई एवं अहमदाबादमें शोषितोंको हड्डियों'असंस्कृत था, इसको कल्पना भी इस युगमें नहीं की पर बड़ी २ हबेलियाँ खड़ी करता है ? प्रश्न उठता है जा सकीं; कोई भी समाज धीरे २ संस्कृत होता है। कि जीवनमें यह असङ्गति-क्यों ? जिस देशमें मनुष्योंआज गो-हत्या बहुत बड़ा पाप है, परन्तु पुराने- की इतनी दुर्दशा हो; वहाँ 'अहिंसा के इस प्रदर्शनका समयमें वह आम रिवाज था। ‘उत्तररामचरित' में क्या मूल्य ? क्या भारतीय अहिंसा मनुष्यके प्रति प्रेम जब “विश्वामित्र' आश्रममें पहुंचे तो उनके स्वागतमें करना नहीं सिखाती ? जिस देशके पूर्वजोंने चीन और एक बछियाका वध किया गया। 'भवभूति' ने इस जापानकी क्रूर हिंसक जातियोंको भी अहिंसाका पाठ क्रियाके लिए-मिडमिडायता' शब्दका प्रयोग किया दिया, जिस महादेशने बुद्ध जैसे अहिंसाके पुजारीको है। कलकत्तेकी काली या इस प्रकारको अन्य प्राकृत उत्पन्न किया जो आज आधेसे अधिक विश्वका पूज्य देवियोंको छोड़कर, शेष हिन्दू देवता अब अहिंसक है; जिन्होंने अहिंसाके तत्त्वज्ञानको मुक्तिके चरमविंदु उपासनासे ही सन्तुष्ट होते हैं ? हिन्दू सन्तों, तक पहुंचाया, उस देशके मनुष्य दुनियामें सबसे वेदान्तियों और वैष्णवोंने इस बारेमें अकथनीय प्रयत्न अधिक दरिद्र दीन और पीड़ित हों, यह बात सहसा किए। विभिन्न विचारधाराओंके रहते हुए भी अहिंसा- समझमें नहीं आती ? अहिंसा और हिंसाका जो के प्रति सभी धर्मोकी आस्था है। संघर्ष वैदिकयुगमें शुरू हुआ था. इसमें संदेह नहीं _' इस प्रकार इतिहासकी गतिके साथ जहाँ अहिंसा उसमें अहिंसाकी विजय हुई ? परन्तु अब हिंसा भारतीय जीवनधारामें स्पन्दित हो रही थी, वहाँ दूसरे रूपमें अपना प्रभाव बढ़ा रही है ? उसमें कुछ रूढ़ियाँ भी आ चलीं। सिद्धान्त जब तक गाँधीजीने उस प्रभावको समझ लिया था और गतिशील रहते हैं तभी तक वे हमारे जीवनको उसके उपचारका भी उन्होंने जतन किया था। अपने सुसंस्कृत और स्वस्थ बना सकते हैं, पर जब उसमें जीवनमें उन्होंने जो काम किया वह यह कि अहिंसा जड़ता आ जाती है तो सहसा चट्टानकी तरह हमारे को रूढ़ियोंसे मुक्तकर जीवनमें प्रतिष्ठित किया; विकासको रोक देते हैं। मध्ययुगमें अहिंसामें इस गाँधीजीकी अहिंसाकी जितनी आलोचना हुई, उतनी प्रकारकी स्थिरता आई ! एक ओर 'भाखा' में 'जीव- शायद ही विश्व-इतिहासमें किसी सिद्धान्तकी हुई हो। For Personal & Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ ] हिंसा में आस्था रखने वालोंने तो उनकी आलोचना की ही, किन्तु अहिंसावादियोंने भी कोई कोर-कसर उठा नहीं रखी, पर वे विचलित नहीं हुए । आजसे कुछ सौ वर्ष पहले यदि गाँधी उत्पन्न हुए होते तो शायद ही आजकी दुनिया यह विश्वास करती कि धरतीपर ऐसा भी व्यक्ति हो सकता है । प्रत्येक अहिंसावादी के सामने - यह प्रश्न साकार हो उठता है कि क्या उसमें वही आत्मा है जिसके बलपर गाँधीजी इस घोर हिंसक और विज्ञानवादी युगमें श्रद्धा और अहिंसापर जीते रहे । जिए ही नहीं, उन्होंने भौतिक शक्तियोंपर विजय प्राप्त की ! और एक दिन दुनियाने दुख और आश्चर्य से सुना कि उनकी विजयी आत्मा, एक विक्षिप्त व्यक्तिकी गोलीका शिकारे होगयी । हम जीकर जीते हैं, पर गाँधीजी मरकर भी जिए। अहिंसा व्यापक तत्त्व है, उसे किसी शास्त्रीय मर्यादा में नहीं बाँधा जा सकता; उसपर भी गाँधीजी ऐसे समयमें जन्मे थे जब उन्हें विचित्र समस्याओं का सामना करना पड़ा उन्होंने अहिंसाका अभ्यास शास्त्रसे नहीं जीवनसे किया था । अपना यह जीवन गुजरातकी लोकसंस्कृतिसे बहुत अनुप्राणित है, वहू ठीक उस प्रदेशके थे जहाँ आजसे कई हजार वर्ष पहले एक ‘राजकुमार' पशुओं के आर्तनादसे विरक्त होकर वनमें तपस्या करने चला गया था; उसका नाम नेमिकुमार था, शुरूमें इसकी चर्चा आचुकी है। ऐसा लगता है कि उनके तपस्वी जीवनका प्रभाव अब भी गुजरात के वायुमण्डलमें व्याप्त है । महापुरुष जीवनकालमें जनताको प्रभावित करते हैं पर मरनेपर उनके संस्कार—कणकणमें भर जाते हैं ? और हजारों सदियों बाद, वे पुनः नये दशकी प्रेरणा देते हैं ? नेमिकुमारके समय क्षत्रिय-वगके आमोद-प्रमोदके लिए—पशुओंकी हत्या होती थी परन्तु गाँधीयुग में मनुष्यकी दशा पशुओंसे भी अधिक दयनीय हो उठी थी ? ब्रिटिश सङ्गीनोंने समूचे देशके चैतन्यको कुचल रक्खा था ? उससे उद्धार पाना आसान नहीं था। मैं समझता हूं भारतीय इतिहासमें जितना काम गाँधीके सिरपर आया, उतना किसी दूसरे व्यक्तिपर नहीं । अनेकान्त [ वर्ष गाँधीजी अहिंसक परम्पराकी ही एक कड़ी थे ? इसी दृष्टिसे उनकी अहिंसाकी परख करनी चाहिए ? उनकी मृत्यु के बाद पुनः हिंसा और अहिंसाका प्रश्न हमारे सामने हैं। गाँधीवादियोंकी असफलताने इस प्रश्नको और भी उम्र बना दिया है ? स्वतन्त्र होनेके बाद देशके सामने अनेक समस्याएँ हैं और यदि उनका हल नहीं हुआ तो निश्चय है कि देशमें पुनः नई व्यवस्थाओं को जारी करनेके लिए क्रान्तियाँ होंगी ? गाँधीजी या अहिंसाके नामपर उन – क्रान्तियों को रोका नहीं जा सकता ? धीरे धीरे ये शक्तियाँ जोर पकड़ रही हैं । शक्ति पानेके बाद जो शिथिलता और कुण्ठित विचारकता आती है, वर्तमान शासन उससे वश्चित नहीं है ? धार्मिक - अहिंसावादियोंको अहिंसा, मुक्तिपरक - सी हो गई है ? वर्तमान जीवनकी समस्याओंसे उनका सम्बन्ध ही दिखाई नहीं देता; क्योंकि उनकी सारी चेष्टाएँ ऐसे प्रश्नोंके सुलझाने में लगी हुई हैं— जो इस लोकसे परे है ? नवयुवकों के जीवनमें विदेशी विचारधारा घर करती जा रही है; एक बार फिर यह प्रश्न हमारे सामने है कि क्या भारतोय संस्कृति - अपनी सामाजिक व्यवस्था के लिए किसी विदेशी काकोंको अपनाएगी ? व्यापार क्षेत्रइस देशके पूँजीपतियोंने सदैव पश्चिमका अनुगमन किया है। उसके विरोध में गाँधीजीने में महाप्रयाणके बाद ही विदा हो लीं ? और अब ग्राम्य सुधारकी बातें रक्खी थीं पर वे मानो उनके आर्थिक निर्माण एवं जनता के विकासका प्रश्न सामने हैं ? यदि किसी विदेशी विचारधाराने एक हर देशपर आक्रमण कर दिया तो यह निश्चित है कि हमारा, पिछले इतिहासका गौरव नष्ट हो जायगा, उसके बाद भारतीय इतिहास में अहिंसा कथावस्तु रह जायगी ? भावी इतिहास लेखक कहेंगे कि हमने गाँधीजीको पूजा पर उनकी धरोहर नहीं बचा सके ? सन्मति निकेतन, नरिया लङ्का, बनारस ) For Personal & Private Use Only ४ सितम्बर ४८ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहारक्षेत्रके प्राचीन मूर्ति-लेख (संग्रहाक-पं० गोविन्ददास जैन, न्यायतीर्थ, शास्त्री) प्रास्ताविक वर्मका शासन (राज्य) था और अहारका उस समय 'मदनेशसागरपुर' नाम था। सुदूरकालमें बुन्देलखण्डकी भव्य वसुन्धरा बुन्देलों यहाँकी मतियों के शिलालेखोंसे पता चलता है कि की अमर गाथाओंसे तो गौरवान्वित होती रही, खण्डेलवाल, जैसवाल, मेडवाल, लमेचू, पौरपाट, साथमें जैन संस्कृति और उसके अमर साहित्यकी संरक्षणी भी रही । यह मानते हैं कि बुन्देलखण्ड गृहपति, गोलापूर्व, गोलाराड, अवधपुरिया, गर्गराट आदि अनेक जातियोंका अस्तित्व था । इन सभी एक समय जैनियोंका अच्छा और प्रधान केन्द्र रहा , जातियोंकी प्रतिष्ठित मूर्तियाँ यहाँ विद्यमान हैं। है, इसका प्रमाण अनेक उस प्राचीन जैनतीर्थ, विशाल जैनमन्दिर, जिनविम्बोंके शिलालेख और उन यहाँ वि० सं० ११२३से लेकर वि० सं० १८६६ शिलालेखोंमें उल्लिखित जैनोंकी विभिन्न अनेक उप- तककी प्राचीन मूर्तियाँ पाई जाती है। अतः ज्ञात जातियाँ आदि हैं। होता है कि बीचकी एक-दो सदियोंको छोड़कर बराबुन्देलखण्डमें खजुराहा. देवगढ़, सीरोंन, चन्देरी. बर १२वीं सदीसे लेकर १९वीं सदी तक विम्ब थूवौन; पवा, पपौरा, द्रोणगिरि. रेशिंदीगिरि, बाणपुर " प्रतिष्ठाएँ यहाँ होती रहीं । मूल नायक भगवान आदि अनेक प्राचीन पवित्र क्षेत्र हैं। इनमें कई क्षेत्र शान्तिनाथकी प्रतिविम्बसे जो विक्रमकी तेरहवीं सदीतो प्रकाशमें आचुके हैं और उनके शिलालेखादि भी में प्रतिष्ठित हुई है, १०० वर्ष पहलेकी यहाँ प्रतिमाएँ प्रकाशित होचुके हैं परन्तु कई क्षेत्र अभी पूर्ण प्रकाश- प " पाई जाती हैं। . में नहीं आये और न उनके शिलालेख वगैरह ही यहाँ भट्टारकोंकी शताब्दियों तक गहियाँ रही हैं प्रकाशमें आये हैं। अहारक्षेत्र भी ऐसे ही क्षेत्रोंमेंसे ऐसा शिलालेखोंसे मालूम होता है । यहाँ के तत्कालीन एक है । जिस प्रकार अनेक प्राचीन मूर्तियों तथा एक प्रभावपूर्ण अतिशयने तो अहारके नामको आज मन्दिरोंके भनावशेष देवगढ़ आदि स्थानोंमें पाये तक अमर रक्खा है। कहते हैं कि यहाँ एक धर्मात्मा जाते हैं-उसी तरह अहारमें भी वे यत्र तत्र पाये व्यापारी (सम्भवतः जैनष्ठी प्राणाशाह) का रांगा, जाते हैं । इनपर उत्कीर्ण शिलालेखोंसे प्रतीत होता है जो बहुत तादादमें था, चाँदी हो गया था। उसने कि श्रीअहारकी प्राचीन बस्तीका नाम 'मदनेशसागर- अपने उस तमाम द्रव्यको चैत्य-चैत्यालय तथा धर्मापुर' था। इसके तत्कालीन शासक श्रीमदनवर्मा थे- यतनोंके निर्माणमें ही लगा दिया। तभीसे यहाँ धार्मिक जो चन्देलोंमें प्रमुख और प्रभावशाली एवं यशस्वी मान्यताओंके साथ अनेक स्तूपोंके रूपमें और भी चन्देल नरेश थे। विक्रमकी ग्यारवीं-तेरहवीं सदीके अनेक मन्दिर निर्माण कराये गये जिनकी निश्चित शिलालेखोंमें जो अहारजीमें विद्यमान हैं मदनेश- संख्या बताना असंभव है। सागरपुरका नाम स्पष्टतया आता है । श्रीअहारके खुदाई करनेपर यहाँपर उत्तरोत्तर बहुत तादादमें पास जो विशाल सरोवर बना हुआ है वह आज भी खण्डित मूर्तियाँ भूगर्भसे प्राप्त हो रही हैं। जिनमें मदनसागर' के नामसे विश्रुत है। इससे यह जान अनेकोंकी आसने शिलालेखोंसे अङ्कित हैं। अनेकोंके पड़ता है कि ग्यारहवीं सदीमें यहाँ चन्देलनरेश मदन- आङ्गोपाङ्ग खण्डित हो चुके हैं। मूर्तियाँ अनेक वर्षों For Personal & Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ ] अनेकान्त [ वर्ष ६ तक भूगर्भमें निहित रहीं फिर भी उनकी पॉलिश करेण्यः । पुण्यैक मूर्तिरभवद् वसुहाटिकायाम् । कीतिर्जगज्योंकी त्यों चमदकार है। • त्रयपरिभ्रमणश्रमार्ता यस्य स्थिराजनि जिनायत___मूर्तियोंके प्रतिष्ठा लेखोंसे पता चलता है कि उस नाच्छलेन ॥॥ एकस्तावदनूनबुद्धिनिधिना श्रीशान्ति समय संस्कृतका अच्छा प्रचार था। प्रशस्तियाँ प्रायः चैत्यालयो दृष्ट्यानन्दपुरे परः परनरानन्दप्रदः श्रीमता । संस्कृतमें ही लिखी जाती थीं। लिपि चाहे प्राचीन हो येन श्रीमदनेशसागरपुरे तज्जन्मनो निर्मिमे । सोऽयं श्रोष्ठिया अर्वाचीन । वरिष्ठगल्हण इति श्रीरल्हणख्यादभूत् ॥३॥ तस्मादजायत . श्री अहारक्षेत्रमें जो शिलालेखयुक्त मूर्तियाँ कुलाम्बर पूर्णचन्द्रः श्रीजाहडस्तदनुजोदयचन्द्रनामा । एकः . खण्डित और अखण्डित रूपमें उपलब्ध हैं उन्हींके परोपकृतिहेतुकृतावतारो धर्मात्मकः पुनरमोघसुदानशिलालेखोंका यह महत्वपूर्ण संग्रह पाठकोंके सामने ' सारः ॥४॥ ताभ्यामशेषदुरितौघशमैकहेतु निमापितं प्रस्तुत है। कई लेख घिसने तथा आसनोंके टूटनेसे भुवनभूषणभूतमेतत् श्रीशान्ति चैत्यमिति नित्यसुखप्रदात् । पूरे २ नहीं पढ़े जा सके हैं, उसके लिये लेखक मुक्तिश्रियो वदनवीक्षणलोलुपाभ्याम् ॥५॥ सम्वत् १२३७ क्षम्य है। मार्गसुदी ३ शक्र श्रीमत्परमद्धिंदेवविजयराज्ये । चन्द्र___इसमें जहाँ संशोधन प्रतीत हो उसे विद्वज्जन भास्करसमुद्रतारका यावदत्र जनचित्तहारकाः। धर्मकारिमुझे सूचित करनेकी कृपा करेंगे। मैं उनका बडा कृतशुद्धकीर्तनं तावदेवजयतात् सुकीर्तनम् ॥ वल्हणस्य आभारी होऊँगा । यदि इस संग्रहसे पाठकोंको थोडा सुतः श्रीमान् रूपकारोमहामतिः । पापटीवास्तुशास्त्रज्ञस्तेन भी लाभ पहुंचा तो मैं अपना श्रम सफल समदूंगा। सुनिर्मितम् । भावार्थः-त्रीतरागके लिये नमस्कार (है) जिन्होंने शिला-लेख (मूर्तिलेख) बानपुरमें एक सहस्रकूट चैत्यालय बनवाया. वे गृह पतिवंशरूपी कमलोंको प्रफुल्लित करनेके लिये सूयके मूर्ति देशी पाषाणसे निर्मित है। पॉलिश मटियाले याल समान श्रीमान् देवपाल यहाँ (इस नगरमें) हुए । रङ्गकी चमकदार है। करीब २२ फुटकी शिलापर १८ फुट ऊँची यह विशालकाय मूर्ति खड्गासन सुशोभित जो बसहाटिकामें पवित्रताकी एक (प्रधान) मूत्ति थे। ___श्लोक २-उनके रत्नपाल नामक एक श्रेष्ठ पुत्र हुए है। आसनके दोनों ओर दो यक्षिणियांकी मूर्तियाँ जिसकी कीर्ति तीनों लोकोंमें परिभ्रमण करनेके श्रमसे उत्कीर्ण है । जिनके अङ्ग वगैरह खण्डित हो चुके है। थककर इस जिनायतनके बहाने ठहर गई । दोनों ओर दो इन्द्र खड़े हैं । मूर्तिका दाँया हाथ टूट श्लोक ३–श्रीरल्हणके श्रष्ठियोंमें प्रमुख, श्रीमान् गया था वह दूसरे पाषाणसे पुनः बनाया गया है। गल्हणका जन्म हुआ जो समग्रबुद्धिके निधान थे उसपर पॉलिश भी किया गया है 'परन्तु पहले और जिन्होंने नन्दपुरमें श्रीशान्तिनाथ भगवानका पॉलिशसे नहीं मिल सका है। नासिका, पैरोंके अंगूठे एक चैत्यालय बनवाया था; और इतर सभी लोगोंको आदि उपाङ्ग भी पुनः जोड़े गये हैं। आसनपर दोनों । आनन्द देनेवाला दूसरा चैत्यालय अपने जन्मस्थान ओर दो हिरण खड़े हैं। उसके नीचे शिलालेख है जो श्रीमदनेशसागरपुरमें बनवाया था। करीब ४ इश्च लम्बा और 6 इश्च चौड़ा है। शिला __श्लोक ४-उनसे कुलरूपी आकाशके लिये पूर्णलेख इस प्रकार है चन्द्रके समान श्रीजाहड़ उत्पन्न हुए । उनके छोटे लेख नम्बर १ भाई उदयचन्द्र थे। उनका जन्म प्रधानतासे परोपकार ___ॐ नमो. वीतरागाय ॥ गृहपतिवंशसरोरुह के लिये हुआ था। वे धर्मात्मा और अमोघदानी थे। सहस्ररश्मिः सहस्रकूटं यः । बाणपुरे व्यधितासीत् • श्लोक ५-मुक्तिरूपी लक्ष्मीके मुखावलोकनके श्रीमानिह देवपाल इति ॥१॥ श्रीरत्नपाल इति तत्तनयो लिये लोलुप उन दोनों भाइयोंने समस्त पापोंके क्षयका For Personal & Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १० ] कारण, पृथ्वीका भूषण-स्वरूप और शाश्वतिक महान् आनन्दको देनेवाला श्रीशान्तिनाथ भगवानका यह प्रतिबिम्ब निर्मापित किया । अहारक्षेत्रके प्राचीन मूर्ति-लेख संवत् १२३७ अगहन सुदी ३, शुक्रवार, श्रीमान् परमर्द्धिदेवके विजय राज्यमें - श्लोक ६ – इस लोक में जब तक चन्द्रमा, सूर्य, समुद्र और तारागण मनुष्योंके चित्तोंका हरण करते हैं तब तक धर्म्मकारीका रचा हुआ सुकीर्त्तिमय यह सुकीर्त्तन विजयी रहे। श्लोक ७ – वाहके पुत्र महामतिशाली मूर्तिनिर्माता और वास्तु शास्त्रके ज्ञाता श्रीमान् पापट हुए, उन्होंने इस प्रतिविम्बकी सुन्दर रचना की । नोट—इस' लेखकी प्रथम पंक्ति में बाणपुरके जिस सहस्रकूट चैत्यालयका उल्लेख आया है वह वहाँ अब भी विद्यमान है । यद्यपि उसकी भी अधिकांश मूर्त्तियाँ खडित हो चुकी हैं तथा वे सभी मूर्तियाँ और चैत्यालय उत्कृष्ट शिल्पकला के उत्तम आदर्श हैं । दूसरे श्लोक में जो “बसुहाटिकायां" पद आया है इससे विदित होता है कि यह किसी प्रसिद्ध नगरीका नाम रहा होगा । इस श्लोक में वर्णित नन्दपुर भी इसी नगरके करीब होना चाहिये जो उस समय प्रसिद्ध था । तथा "मदनेशसागरपुर” जो पद आया है उससे ज्ञात होता है कि वह सम्भवत: इसी स्थान - अहार - का नाम रहा होगा । यहाँ के तालाबको आज भी 'मदनसागर' कहते हैं । यह मूर्ति क़रीब १३ फुट शिलापर क़रीब ११ फुट ऊँची खड्गासन है । मूर्त्तिके कुछ उपाङ्ग छिल गये हैं। नासिका, उपस्थ इन्द्रिय तथा पैरोंके अँगूठे टूट गये हैं । बाँया हाथ पुनः जोड़ा गया है। शिलालेखका बहुभाग टूट गया है। भावको लेकर पूर्ति की है। चिह्न बकरे का है। पालिश मटियाले रङ्गकी है । लेख नम्बर २ 1 ॐ नमो वीतरागाय । बभूव मिरामा, श्रीरल्हणस्येह महेश्वरस्य । [ ३८५ 118 11 पंकसंगा, जड़ाशयानेव परं नवोढ़ा ||१|| गार्हस्थधर्मनितरां ग्रहणप्रवीणा, निरंतर मनिधानधात्री । पुत्रत्रयं मंगलकार्यसूता, येषां च कीर्त्तिरिव सत्वरधर्मवृत्तिः ॥२॥ तेषां गांगेयकल्पः प्रथमतनुभवः पुण्यमूत्तिः प्रसूतः । स्कन्दो भूतेशमेवागुणवतिरुदयादित्यनामापरस्य । ख्याताधर्मे कुमुदशशिलघुभ्रातृयुग्मे वियुक्त े, संसारासारतां “हिबुद्धिः ॥ ३ ॥ वित्तानि विद्युदिव सत्वर गत्वराणि, राजीविनी जलसामनि व जीवतानि । तुल्यानि “गणस्यहि यौवनानि भावार्थ: वीतरागके लिये नमस्कार हो । श्रीरल्हूण के महेश्वर की तरह पापोंसे रहित नवविवाहित नयनोंको प्यारी गङ्गा नामकी स्त्री हुई | १|| जो हमेशा गृहस्थ धर्मको ग्रहण करनेमें चतुर तथा हमेशा प्रेमकी निधानभूत थी । उसने मङ्गलरूप तीन पुत्र पैदा किये । जिनकी कीर्त्तिके समान जल्दी धर्ममें प्रवृत्ति हुई । २ ॥ उन तीनों पुत्रोंमेंसे पुण्यकी मूर्तिके समान महादेवको कार्त्तिकेयके मानिन्द पहला पुत्र पैदा हुआ । उसने अपने छोटे दो भाइयोंके वियोग होने से तमाम संसार की असारताको जाना । तथा दान और धर्ममें है बुद्धिं जिसकी ऐसे उसने धनको बिजलीके समान जल्दी नाशवान जाना । तथा जीवनको जल-बुदबुदेके समान माना । तथा बादलोंकी चञ्चलताके समान यौवनको माना । फिर तमाम धनको निज में लगाकर ही धन्य माना ॥ ४ ॥ यह क़रीब ६ इनका मटियाले पाषाणका एक भग्नावशेष मात्र है । इसकी पालिश बहुत कुछ शान्तिनाथकी मूर्त्तिसे मिलती है । चिह्नकी जगह कुछ अस्पष्ट निशान है जो अच्छी तरह नहीं देखा जा सकता। शिलालेखका बहुत भाग टूट गया है । कुछ शब्द पढ़े गये जो नीचे उद्धृत किये जाते हैं:लेख नम्बर ३ सं० १२३७ मार्ग सुदी ३ शुक्र साहु श्रीपाल सुत साहु गेल्हूण | बाक़ी हिस्सा नहीं है । यह मूर्त्ति मन्दिर नं १ के प्रांगणकी दीवार में गंगेवगंगागत ं खचिते है । मूर्त्तिका शिर धड़ से अलग है, परन्तु रामा नयना For Personal & Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ ] . [वर्ष ६ .अनेकान्त चूनासे पुनः जोड़ा गया है। मूर्ति करीब १॥ फुट धर्मपत्नी मामने प्रतिमा बनवाई । उनका पुत्र महीपती पद्मासन है। पाषाण काला है । चिह्नको देखकर और वे उसे प्रतिदिन नमस्कार करते हैं। पुष्पदन्तकी मालूम होती है। कुछ शिलालेखका हिस्सा यह मूर्ति भी नं० १ मन्दिरके चौककी दीवारमें रमें बन्द है. अतः परा नहीं पढा जा सका।. चिन दी गई है। शिर धडसे अलग है। चुनासे पुनः लेख नम्बर ४ जोड़ दिया गया है । दोनों हाथोंकी अँगुलियाँ नहीं ____ सं० १२०६ वैशाख सुदी १३ श्रीमदनसागरपुरे हैं । चिह्न बैलका है मूर्ति चमकदार काले पाषाणकी मेडवालान्वये साहु कोकासुत साहु कारकम्प पडिमा है। श्रासन विशाल है। कारपिता ॥ लेख नम्बर ७ .. ___ भावार्थः-मेडवाल जातिभूषण साहु कोका तथा सं० १२१३ श्रीमाधुन्वये साहुश्रीयशकरसुत साहुश्रीपुत्र कारकम्पने सं० १२०९के वैशाख सुदी १३के दिन यशराय तस्य पुत्रैनः कमल यशधरी दायराउ प्रणप्रतिमा बनवाई। मन्ति नित्यम् ॥ . .. मूर्ति नं. ४की भाँति मन्दिर नं. १के प्रांगणमें . भावार्थः-सं० १२१३में (प्रतिष्ठित की गई इस है, शिर धड़से अलग है, पुनः जोड़ा गया है। मूर्तिकी मूर्तिको) माघुवंशमें पैदा होनेवाले शाह यशकर उनकी हथेली मय अँगुलियोंके छिल गई है। चिह्न बन्दरका धर्मपत्नी उनके पुत्र यशराय उनके पुत्र तीन हुये-कमल है । २ फुटकी अवगाहना है। पाषाण काला तथा यशधर-दार्याराउ, ये सब प्रतिदिन प्रणाम करते हैं । चमकीला है । मूर्ति पद्मासन है। ___ यह मूर्ति भी मन्दिर नं. १ के चौकमें खचित है। लेख नम्बर ५ शिर धड़से अलग होनेपर पुनः जोड़ा गया है। दोनों सं० १२१० वैशाख । सुदी १३ पौरपाटान्वये हाथोंके पहुँचा मय अँगुलियोंके नहीं हैं। दाएँ पैरके साहु ढूंदू-भार्या यशकरी तत्सुत साढू भार्या दिल्हीनलछी टकनोंसे नीचेका हिस्सा नहीं है (छिल गया है) तथा तत्सुत पोपति एते प्रणमन्ति नित्यम् ॥ बाएँ पैरकी जंघा छिल गई है। चिह्न चन्द्रका है। भावार्थः-पौरपाटान्वयमें पैदा होने वाले साहु ३ फुट अवगाहना है। आसन पद्मासन है। काले ढूंदू उनकी धर्मपत्नी यशकरी उनका पुत्र साद उसकी पाषाण की है। पत्री दिल्हीलक्ष्मी उसके पुत्र पोपति ये सब इस लेख नम्बर ८ विम्बकी सं० १२१८के वैशाख सुदी १३को प्रतिष्ठा . सं० १२१८ वैशाख सुदी १३ लामेचूकान्वये साहु कराकर सदा उसे नमस्कार करते हैं। क्षते तद्भार्या बना तयोः सुत नायक कमलबिन्द तद्भार्या ___ यह मूर्ति भी मन्दिर नं० १के प्रांगणमें दीवारमें साल्ही सुत लघुदेव एते प्रणमन्ति नित्यम् ॥ खचित है। शिर धड़से अलग है परन्तु पुनः चूनासे भावार्थः-लमेचूकुलमें पैदा होनेवाले साहु क्षते जोड़ दिया गया है। दायें हाथकी अँगुलियाँ नहीं हैं। उनकी पत्नी बप्रा उन दोनोंके पुत्र नायक कमलबिन्द चिह्न शङ्खका है । ३ फुट ऊँची, पद्मासन काले पाषाण उनकी पत्नी साल्ही पुत्र लघुदेव ये सं० १२१० वैशाखसुदी की है। आसन विशाल है। १३को विम्वप्रतिष्ठा कराकर प्रतिदिन प्रणाम करते हैं। लेख नम्बर ६ ___यह मूर्ति भी मन्दिर नं० १ के चौकमें शिर जोड़ ____सं० १२१६ माघसुदी १३ खडि[खंडे] लवालान्वये कर खचित है। हथेली छिल चुकी है । चिह्न कुछ नहीं साहु सल्हण तस्य भार्या माम तेन कर्मक्षयार्थ प्रतिमा ज्ञात होता है। करीब ३ फुट ऊँची है. पद्मासन है। कारापिता । तस्य सुत महिपति प्रणमन्ति नित्यम् ।। काले पाषाणसे बनी है।। भावार्थ:-सं० १२१६के माघ सुदी १३के दिन लेख नम्बर ६ खण्डेलवाल वंशमें पैदा होनेवाले साहु सल्हण उनकी सं० १२०६ वैशाख सुदी १३ गृहपत्यन्वये साहु अल्ह For Personal & Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १० ] तस्य पुत्र मातन तस्य भगिनी आल्ही एते नित्यं प्रणमन्ति । भावार्थ:- गृहपति (गहोई) वंशोत्पन्न साह अल्ह उसके पुत्र मातन उसकी बहिन आल्ही ये सं० १२०९ वैशाख सुदी १३को विम्बप्रतिष्ठा कराकर प्रतिदिन प्रणाम करते हैं। अहारक्षेत्रके प्राचीन मूर्ति-लेख मूर्त्तिके दोनों तरफ इन्द्र खड़े हैं । कुछ हिस्से छिल गये हैं जैसे--दाढ़ी - नासिका - अंगुली । बाकी सर्वाङ्ग सुन्दर है । करीब ५ फुट अवगाहना को लिये हुए खड्गासन है । पाषाण काला तथा चमकदार है। चिह्न वगैरह कुछ नहीं है । शिलालेख घिस गया है । कुछ हिस्सा पढ़ा जा सका जो इस प्रकार हैलेख नम्बर १० सं० १२०३ माघ सुदी १३ साहु जगचन्द्र पुत्र सखवंत भावार्थ:–सं० १२०३ माघसुदी १३को साह चन्द्र और उनके पुत्र सुखवंत दिने बिम्ब प्रतिष्ठा कराई । यह मूर्त्ति भी मन्दिर नं० १ के चौक में चिनी है । शिर धड़से अलग होनेपर भी जोड़ा गया है। दोनों हाथोंके पहुँचे छिल गये हैं । बैलका चिह्न है। करीब १|| फुटकी अवगाहना है, आसन पद्मासन हैं । पाषाण काला है । लेख नम्बर ११ सं० १२०३ माघसुदी १३ गोलापूर्वान्वये साहु भवदेव भार्या जसमती पुत्र लक्ष्मीवन प्रणमन्ति नित्यम्। भावार्थ:-गोला पूर्ववंश में पैदा होनेवाले शाह भावदेव उनकी धर्मपत्नी जसमती पुत्र लक्ष्मीवनने १२०३ माघ सुदी १३ को प्रतिष्ठा कराकर सब प्रतिदिन प्रणाम करते हैं । [ ३८७. श्रीदेवचन्द्र सुत दामर भार्या ऋपिली प्रणमन्ति नित्यम् । भावार्थ:-- गोलाराड वंशोत्पन्न शाह श्रीदेवचन्द्र उनके पुत्र दामर उनकी पत्नी त्रपिली सं० १२३७के अगहन सुदी ३ शुक्रवारको प्रतिष्ठा कराकर प्रतिनि प्रणाम करते हैं। यह मूर्त्ति भी मन्दिर नं० १के चौकमें विराजमान है। दोनों ओर इन्द्र खड़े हैं। सिर्फ नासिका गई है। बाकी सर्वाङ्ग सुन्दर है। चिह्न हिरणका है। करीब ३। फुट ऊँची खड्गासन है । काले पाषाणसे निर्मित है । लेख नम्बर १३ 1 सं० १२१६ माघसुदी १३ शुक्र जैसवालान्वये साहु श्रीघण तद्भार्या सलषा तस्य पुत्र साहु श्रमदेव - तथा कामदेव सुत लखमदेव तस्य प्रयेदेवचन्द्रवाल्हू सांति - हाल प्रभृतयः प्रणमन्ति । मंगलं । महाश्रीः ॥ भावार्थ : – जैसवाल वंशमें पैदा होनेवाले शाह घण उनकी पत्नी सलषा उसके पुत्र शाह श्रमदेव तथा कामदेव उसके पुत्र शाह लखमदेव उसके गृहमें पैदा होनेवाले देवचन्द्र-वालू- सांति- हालू प्रभृति सं० १२१६ माघ सुदी १३ शुक्रवारके दिन विम्ब टकराई। . यह मूर्ति भी मन्दिर नं० १के चौकमें शिर जोड़ 'कर चिन दी गई है। बाक़ी सर्वाङ्ग सुन्दर है । चिह्न हाथीका है। २। फुट ऊँची पद्मासन है। पाषाण काला - है । लेखका कुछ हिस्सा छिल गया है । लेख नम्बर १४ 'साहु श्रीमल्हण तस्य सुत वाकु तस्य सुत लाल तस्य भार्या नाधर तयोः सुत वाल्हराउश्रमदेव अजितं जिनं प्रणमन्ति नित्यम् । सं० १२०३ माघ सुदी १३ । यह मूर्त्ति भी मन्दिर नं० १ के चौकमें चिनी है। शिर घड़से अलग होनेपर पुनः जोड़ दिया गया है । चिह्न कुछ नहीं है । करीब १ || फुट ऊँची पद्मासन कापाषाणकी है। भावार्थ:-शाह श्रीमल्हण उनके पुत्र वाकु उनके पुत्र लाल उसकी पत्नी नाधर उन दोनोंके पुत्र दोवाल्हराय - श्रमदेव अजित जिनको प्रतिदिन प्रणाम लेख नम्बर १२ सं० १२३७ मार्गसुदी ३ शुक्र - गोलाराडान्वये साहु करते हैं। सं० १२०३ माघ सुदी १३को प्रतिष्ठा हुई। For Personal & Private Use Only . Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८] अनेकान्त [ वर्ष यह मूर्ति भी मन्दिर नं० १के चौककी दीवारमें प्रसन्न था । और जो पंडितरूपी कमलोंको विकसित खचित है । मूर्तिका शिर धड़से अलग होनेपर पुनः करनेके लिये सूर्य था। और जो निर्मल था-ऐसे जोड़ दिया है। चिह्नकी जगह एक कमल है। जो कमलदेव हुए। उनके पुत्र केशवने पुण्य-वृद्धिके लिये किसी कलाका द्योतक है । २। फुट पद्मासन है। पाषाण श्रीवीर वर्द्धमान भगवानकी प्रतिमा बनवाई। काला है। यह मूर्ति भी मन्दिर नं. १ के चौकमें चिनी है। लेख नम्बर १५ शिर धड़से अलग है । पुनः जोड़ा गया है । बाकी . सं० १२०६ आषाढ़ वदी ८ गुरौ जयसवालान्वये सर्वाङ्ग सुन्दर है। करीब २ फुट पद्मासन है । पाषाण साहु श्रीवाहड़ तत्सतौ सोमपति मल्हणौ तथा काला है । चिह्न दण्डका है। साहु श्री नमिचन्द्र तत्सुतौ माहिल-पंडित देल्हणौ तथा लेख नम्बर १७ साहु. श्रीरत तत्सुताः सीद-भावु-कल्हणाः एते नित्यं सं० ११६६ चैत्र सुदी १३ गर्गराटान्वये साहु वाक प्रणमन्ति । तस्य सुत साह लालसाल्हण नाइव तस्य सुत साहु मालु... ___ भावार्थः-जैसवालवंशमें पैदा हुए शाह श्रीवाहड़ राज सोमदेव एते नित्यं प्रणमन्ति। . उनके पुत्र दो-सोमपति और मल्हण । तथा शाह भावार्थः-गगराट वंशमें पैदा होनेवाले शाह श्रीनमिचन्द्र उनके पुत्र दो-माहिल पंडित तथा वाक उनके पुत्र शाह लालसाल्हण नाइव उसके पुत्र देल्हण । तथा शाह श्रीरत उनके पुत्र तीन-सीद, दो-मालुराज और सोमदेवने ११६६ के चैत्र सुदी भावु और कल्हण इन्होंने सं० १२०८के आषाढ़ वदी १३को विम्ब प्रतिष्ठां कराई। ये सब सदा प्रणाम गुरुवारको प्रतिष्ठा कराई। ये सब सदा प्रणाम करते है। . . यह मूर्ति भी मन्दिर नं. १ के चौकमें शिर जोड़ ___ यह मूर्ति भी मन्दिर नं० १के चौकमें शिर जोड़ कर चिन दी गई है। बाकी सर्वाङ्ग सुन्दर है। चिह्न कर चिन दी गई है। चिह्न शेरका है । । फुटकी ऊँची शेर प्रतीत होता है। १।। फुटकी ऊँची पद्मासन है। पद्मासन है । काला पाषाण है । बाकी सर्वाङ्ग पाषाण काला है। लेख नम्बर १८ लेख नम्बर १६ .. कुटकान्वये पंडितस्रीलक्ष्मणदेवस्तस्य शिष्य स्रीमदांसं. १२३७ १३ शक। र्यादेवः तथा आर्यिका ज्ञानस्री-साहेल्लिकामामातिणी एतया श्रीवीरदेव इत्यासीत्, खण्डेलान्वयभास्करः ।। जिनविम्बं प्रतिष्ठापितम् ॥ सं१२१३ । । प्रतिद्यावार्यतेयोभूत्तत्पुत्रो उपशमक्षमः ॥ भावार्थः-कुटकवंशमें पैदा होनेवाले पंडितश्री कमलानिवास वसतिः, कमलदलाक्षः प्रसन्नमुखकमलः । लक्ष्मणदेव उनके शिष्य श्रीमदार्यदेव तथा आर्यिका बुधकमल-कमलबन्धुः विकलंकः कमलदेव इति ॥ ज्ञानस्री-सहेल्लिका-मामातिणी इन्होंने सं० १२१३में श्रीवीरवर्द्धमानस्य विम्बं तत्पुण्यवृद्धये । जिनविम्बकी प्रतिष्ठा कराई। कारितं केशवेनेदं तत्पुत्रेण निर्मलम् ॥ यह मूर्ति मन्दिर नं० १के बाहरी जीनाके बाई साहु श्रीमामटस्याऽपि पुत्रो देघहरानिघः । तरफ एक छोटी कुटीमें विराजमान है । दोनों तरफ तेनापि कारितं चैत्यं तर्वादेवात्र वेतसा । इन्द्र खड़े हैं। आसनके नीचे देवियाँ बैठी हैं। दाई भावार्थः-खण्डेलवाल वंशोत्पन्न तद्वशके लिये तरफका आसन टूट जानेसे देवीकी मूर्ति भी टूट गई सूर्यके समान वीरदेव हुए । जो बड़े बुद्धिमान थे। उन है। मूर्ति प्रायः अखण्डित है। सिर्फ घुटनोंपर तथा के पुत्र अनुपमेय था । जो लक्ष्मीका निवास था, नासिका तथा दाढ़ीका हिस्सा छिल गया है। दाएँ जिसकी आँखें कमलपत्रके समान थीं। जिसका मुख- हाथका अंगूठा तथा पासकी अंगुली टूट गई है। करते हैं। For Personal & Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १० ] अहारक्षेत्रके प्राचीन मूर्ति-लेख [३८६ .................. .......................... .......... बायें हाथके ऊपरका हिस्सा छिल गया है। करीब उनके पुत्र चार-सोम, जनपाहुड़, लाखू, लाले इन्होंने ६ फुटकी खड्गासन है। काला पाषाण है। चिह्न प्रतिविम्ब प्रतिष्ठा कराई। हिरणका है। लेख घिस गया है। इस लिये पूरा पढ़ा मूर्तिका शिर पूरा खण्डित है। करीब १।। फुटकी नहीं जाता। . पद्मासन है । काले पाषाणकी बनी हुई है। चिह्न शङ्ख लेख नम्बर १६ का है। शिलालेख स्पष्ट दीखता है । मूर्तिकी पॉलिश सं० १२१६ माघसुदी १३ शक्रदिने कुटकान्वये पंडित चमकदार है। स्त्रीमंगलदेव तस्य शिष्य भट्टारक पद्मदेव तत्पट्ट ..... लेख नम्बर २१ ___ सं० १२२८ फागुनसुदी १२ जैसवालान्वये साहु देन्द्र भ्रात ईल्ह सुत बाल्ह सुत कुल्हा वीकलोहट वाल्ह सुत भावार्थ:-कुटकवंशोत्पन्न पंडित श्रीमंगलदेव आसवन प्रणमन्ति नित्यम् ॥ उनके शिष्य भट्टारक पद्मदेव उनकी पट्टावलीमें हुए भावार्थः-जैसवाल वंशोत्पन्न साहु देन्द्र उनके .... ने सं० १२१६ भाई ईल्ह उनके पुत्र वाल्हू उनके पुत्र कुल्हा वीकके माघ सुदी १३ शुक्रवारके दिन विम्ब प्रतिष्ठा कराई। लोहट-वालू उनके पुत्र आसवन इन्होंने वि० सं० मूर्तिके दोनों तरफ इन्द्र खड़े हैं। मूर्ति घुटनोंके १२२८के फागुन सुदी १२को विम्ब-प्रतिष्ठा कराई। पाससे बिल्कुल टूट गई है। दोनों हिस्से जोड़कर मूर्तिका शिर नहीं है। तथा दोनों हाथ भी नहीं मन्दिर नं० १के चबूतरेपर लिटा दी गई है । चिह्न हैं। सिर्फ धड़मय आसनके रूपमें उपलब्ध है । चिह्न वगैरह कुछ नहीं हैं। दो व्यक्तियोंने मिलकर प्रतिष्ठा वगैरह कुछ नहीं है लेख स्पष्ट है। करीब १।। फुटकी कराई है ऐसा लेखसे विदित होता है। इसी दिन पद्मासन है। काला पाषाण है । पॉलिश चमकदार है। इसी अवगाहनाकी ३ मूर्तियाँ और भी उक्त दोनों. लेख नम्बर २२ व्यक्तियोंने प्रतिष्ठित कराई हैं। करीब ६ फुटकी खड- सं० १२३७ मार्गसुदी ३ शक गोलापूर्वान्वये साहु गासन है। पाषाण काला है। यशार्ह पुत्र उदे तथा वील्हण एते श्रीनेमिनाथं नित्यं लेख नम्बर २० '-प्रणमन्ति । मंगलं महाश्री ॥ · सं० १२०३ माघसुदी १३ जैसवालान्वये साहु खोने भावार्थः-गोलापूव-वंशोत्पन्न शाह यशाह उनके भार्या यशकरी सुत नायक साहुपाल-वील्हे माल्हा परमे- पुत्र ऊदे तथा वील्हण ये श्रीनेमिनाथको सं० १२३७के महीपति सुत श्रीरा प्रणमन्ति नित्यम् । अगहनसुदी ३ शुक्रवारको प्रतिष्ठा कराकर नित्य - सं० १२०३ माघसुदी १३ जैसवालान्वये साहु बाहड़ प्रणाम करते हैं। . . मार्या शिवदेवि सुतसोम-जनपाहुड लाखू-लोले प्रणमन्ति मूर्तिका शिर और दोनों हाथ नहीं हैं। सिर्फ नित्यम् ॥ धड और आसन विद्यमान है। आसनपर लेखके भावार्थः-जैसवालवंशोत्पन्न शाह खोने उनकी अतिरिक्त कुछ नहीं है। चिह्न बैलका है। करीब डेड़ धर्मपत्नी यशकरी उनके पुत्र नायक साहुपाल्ह वील्हे- फुट ऊँची पद्मासन है । पाषाण काला है। माल्हा-परमे-महीपति. ये पाँच तथा महीपतिके पुत्र लेख नम्बर २३ श्रीराने सं० १२०३ माघ सुदी १३ को विम्ब-प्रतिष्ठा संवत् १२१४ फागुन वदी १ सोमे अवधपुरान्वये कराई। . ठक्कुर श्रीनान सुत ठक्कुर नीनेकस्य भार्या पाल्हणि नित्यं सं० १२०३ को जैसवालवंशमें प्रणमन्ति कर्मक्षयाय । पेक्षा होनेवाले शाह वाहड़ उनकी धर्मपत्नी शिवदेवि भावार्थः-अवधपुरिया वंशोत्पन्न ठक्कुर नान्न ०.२माघ मदा For Personal & Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० ] अनेकान्त - [ वर्ष ६ उनके पुत्र ठक्कुर नीनेक उनकी धर्मपत्नी पाल्हणिने तथा जैसवाल वंशोत्पन्न बाहड़ उनकी धर्मपत्नी सं० १२१४ के फागुन वदी ४ सोमवारको प्रतिष्ठा सिवदे उनकी पुत्री-सावनी-मालती-पदमा-मदनाने कराई । कर्मो के क्षयके लिये प्रतिदिन नमस्कार उक्त सम्वत्में उक्त महात्माओंके आदेशसे अपने करते हैं। द्रव्यका सदुपयोग किया। . मूर्तिका शिर नहीं है। बाकी तमाम अङ्गोपाङ्ग मूर्तिके आसनके अतिरिक्त शिर और धड़ कुछ विद्यमान हैं। चिह्न शेरका है। हथेली कुछ छिल गई भी नहीं है। आसनसे पता चलता है कि प्रतिविम्ब है। करीब श। फुट ऊँची पद्मासन है । पाषाण मनोज्ञ थी । चिह्न शेरका है। करीब २ फुट ऊँची काला है। पद्मासन है। पाषाण काला है। लेख नम्बर २४ लेख नम्बर २७ ___संवत् १२०९ अषाड़ वदी ४ शक जैसवालान्वये सम्वत् १२१० मइडितबालान्वये साहु श्रीसेठो भार्या नायक श्रीसाहुकसस प्रतिमा गोठिता। महिव तयोः पुत्राः श्रील्हा-श्रीबर्द्ध मान-माल्हा, एते श्रेयसे - भावार्थ:-जैसवालवंशोत्पन्न नायक श्रीसाहु प्रणमन्ति नित्यम् । बैशाख सुदी १३। . कससने सम्बत् १२०६ के अषाढ़ वदी ४ शुक्रवारको ___भावार्थः-वि० सं० १२१८के वैशाख सुदी १३को प्रतिमा प्रतिष्ठा कराई। मइडितबालवंशोत्पन्न शाह सेठो उनकी धर्मपत्नी मूर्तिका शिर और दोनों हाथोंके पहुँचे नहीं हैं। महिव उनके पुत्र-श्रील्हा-श्रीवर्द्धमान-माल्हा ये सब वाकी हिस्सा ज्योंका त्यों उपलब्ध है। चिह्न शेरका है। पुण्य वृद्धिके लिये प्रतिदिन प्रणाम करते हैं। करीब १।। फुट ऊँची पद्मासन है। पाषाण काला है। मूर्तिका शिर और दोनों हाथोंकी हथेली नहीं है। लेख नम्बर २५ बाकी तमाम हिस्सा उपलब्ध है। चिह्न सेहीका प्रतीत ___ संवत् १२१३ गोलापूर्वान्वये साहु साल्ह भार्या सलषा होता है। करीब १।। फुट ऊँची पद्मासन है । पाषाण तयोः सुत पोखन एते प्रणमन्ति नित्यम् । आषाड़सदी २। काला है। पालिश चमकदार है। . भावार्थः-गोलापूर्ववंशोत्पन्न शाह साल्ह उसकी लेख नम्बर २८ धर्मपत्नी सलषा इन दोनोंके पुत्र पोखन इन्होंने संवत् सम्वत् १२०२ चैत्रसुदी १२ लमेचुकान्वये साहु भाने १२१३के अषाढ़ सुदी २को प्रतिविम्ब पधराई । ये भार्या पद्मा सुत हरसेन, नायक कदलसिंह, देवपाल्ह नित्य प्रणाम करते हैं। एते प्रणमन्ति नित्यम् । मतिका शिर और दोनों हाथोंके अतिरिक्त बाकी भावार्थः-वि० सं० १२०२के चैतसुदी १२को धड़ उपलब्ध है। चिह्नकी जगह अष्टदल कमल है। इस प्रतिविम्बकी प्रतिष्ठा हुई। लमेचूवंशोत्पन्न शाहकरीब १।। फुट ऊँची पद्मासन है। पाषाण काला है। भाने. उनकी पत्नी पद्मा, उनके पुत्र हरसेन, नायक लेख नम्बर २६ कदलसिंह. देवपाल्ह ये प्रतिदिन प्रणाम करते हैं। संवत् १२१६ फागुन वदी ८ सोमदिने सिद्धान्तश्री मूर्तिका शिर तथा बायाँ हाथ नहीं है। आसनसागरसेन आर्यिका जयश्री रिषिणी रतनरिषि प्रणमन्ति पर दोनों हथेली नहीं है । चिह्न वगैरह कुछ नहीं। नित्यम् । जैसवालान्वये साहु बाहेडभार्या सिवदे पुत्री करीब १।। फुट ऊँचो पद्मासन है। पाषाण काला है । सावनी मालती पदमा-मदना प्रणमन्ति नित्यम् । लेख नम्बर २६ ___ भावार्थ:-संवत् १२१६के फागुन वदी ८ सोम- संवत् १२०० अषाड़वदी ८ जैसवालान्वये साहु को सिद्धान्तश्री सागरसेन तथा आर्यिका जयश्री और खोने भार्या जाउह सुत साढू तथा पाल्ह-वील्हा-आल्हेश्रीरतनऋषिने विम्ब-प्रतिष्ठा कराई। पदमा श्रेयसे प्रणमन्ति ।। (क्रमशः) For Personal & Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहानी नर्स ( लेखक - श्रीबालचन्द्र जैन एम० ए०, साहित्यशास्त्री ) गीके सिरहाने बैठी नर्स उसे एकटक देख रही थी । 'कितनी शान्ति और सौम्यता है इसके चेहरेपर, किन्तु हाय रे भाग्य ! ऐसा भोला और सरल व्यक्ति भी मानसिक वेदनाओंका शिकार हो गया ।' उसे सहानुभूति थी रोगीसे । रोगोकी नींद टूटी। 'मुझे कोई नहीं रोक सकता' —वह बड़बड़ाया – दुनियाकी कोई शक्ति मुझे रोक नहीं सकती. मैं जाऊँगा दूर. इस पापभरी दुनियासे बहुत दूर, जहाँ मनुष्यका निशान भी न होगा, उसके पापोंकी छाया भी न होगी, मैं जाऊँगा रोगीने उठने की चेष्टा की । ........ "ईश्वर के लिए लेटे रहिए" नर्सने सहारा देकर उसे पुनः लिटाना चाहा । “ईश्वर ! ईश्वरका नाम लेनेवाली तुम कौन ?” रोगीने कठोर प्रश्न किया । 'जी. मैं नर्स' नर्सने मृदु उत्तर दिया । 1 "तुम यहाँ क्या करने आईं ?" रोगीने फिर पूछा । "आपकी सेवा” नर्सका जबाब था । "सेवा ! हा हा हा!" रोगी ठहाका मारकर हँसा 'तुम सेवा करती हो, दूसरोंकी सेवा, कितना सुन्दर शब्द है सेवा !” रोगीने पागलकी हँसी-हँसी । "जी, दूसरोंकी सेवा करना ही हमारा धर्म है, नर्सका यही कर्तव्य है" नर्सं डरते-डरते बोली ! "तुम इसे धर्म मानती हो नर्स ! लेकिन कभी तुमने अपनी भी सेवा की ? दुनियांने कभी तुम्हारी सेवाओंका मूल्य चुकाया ? थोडेसे चाँदीके टुकड़े देकर लोग समझ लेते हैं हम नर्सको रोटी देते हैं । पर तुम, जो रातदिन अपनी सुध भूलकर, उन्हें जीवनदान देती हो, इसे क्या ये दुनियावाले कभी समझ पाते हैं ? नहीं। दूसरोंके श्रमको नहीं समझ दुनिया और वे समझने की कोशिश भी तो नहीं करते नर्स !” – रोगीने गहरी साँस ली । “दूसरोंकी इज्जत, विद्या, बुद्धि और सेवाको तराजूपर तौलनेवालोंकी सेवा तुम क्यों करती हो नर्स !” रोगी उद्विग्न हो रहा था - "उन्हें तड़प-तड़पकर मर क्यों नहीं जाने देती, अपने कर्मोंका फल क्यों नहीं भोगने देती" रोगीकी सदय आँखें नर्सकी आँखों से मिल गईं। नर्सं चुप थी । "बोलो बोलो सेवाकी देवी, दुनियाभरके पापियोंको मृत्युशय्यासे जगाकर उनमें जीवनी शक्ति भरकर दुनियाके पापोंकी संख्या क्यों बढ़ाती हो" कहनेके साथ ही रोगीने झटकेसे करवट बदली । "जिलाना और मारना तो ईश्वरके हाथकी बात है चन्द्रबाबू, हम तो अपना कर्तव्य करते हैं" नर्सने धीरेसे कहा । 'ईश्वर' – चन्द्रको जैसे तीर लगा - “ - " तुमने फिर ईश्वरका नाम लिया ” — वह तड़प उठा - "जानती नहीं.. मैं ईश्वरका दुश्मन हूँ। ईश्वर ! दुनियाभर के ठगोंका सरदार” उसने मुँह फेर लिया । “ऐसा न कहिए। उस दयालु परमात्माको बुराभला कहकर पापके भागी न बनिए ।” नर्सने अनुरोध किया । For Personal & Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९२ ] अनेकान्त [वर्ष : __ "तुम उसे दयालु कहती हो, परमात्मा कहती हो, था-डाकृर आपको यहाँ ले आए और कल रातभर जिसने थैली-पतियोंको गरीबोंका शोषण करनेका आपकी सेवामें लगे रहे। अब हालत कुछ ठीक बल दिया, गरीबोंके मौलिक अविकारोंकी माँगको देखकर सबेरे ही घर गए हैं और जाते समय मुझे अनैतिक और विद्रोह बताकर उन्हें चिर गुलामीमें आपकी पूरी फिकर करनेकी आशा दे गए हैं" नर्सने बाँध दिया, जिसने दुनियाभरके अत्याचारों और सरलतासे यह बात कह दी, जिसे डाकृर किशोर अनाचारोंको धार्मिक प्रश्रय दिया, उसे तुम दयालु छिपाना चाहता था। परमात्मा कहती हो नर्स ! पत्थरके भगवानको दयाका "तो यों कहो कि मुझे इस घृणित दुनियामें फिरसे अवतार कहते तुम्हें अपनेपर हँसी नहीं आती देवी !” खींच लानेवाला डाकृर किशोर ही है । नीच ! -चन्द्र खीझ रहा था-'भोली नारी सबको अपने धोखेबाज ! मेरा सर्वस्व छीनकर अब मेरी स्वतन्त्रता जैसा ही समझती है' उसने करवट बदली। भी छीनना चाहता है। मेरे जीवनभरकी मित्रताकी -नर्सने कोई उत्तर न दिया। कमरा नीरव हो गया, कोई कदर न करनेवाला पापी है कहाँ ?” चन्द्रकी । ' दोनों चुप थे। आँखें लाल हो गईं। __"आपके दवा पीनेका समय हो गया, मैं अभी "वे घर गए हैं चन्द्रबाबू, आप शान्त हो जाइए" लाई" नर्सने नीरवता भङ्ग की। नर्सने मीठे अनुनय भरे स्वरमें प्रार्थना की। "दवा ! क्यों ? मुझे हुआ क्या जो दवा पिलाती "ठीक, अच्छा ही हुआ कि वह यहाँ नहीं है । मैं हो।" रोगीने आँखें खोली।। उसकी सूरत भी नहीं देखना चाहता, मुझे उससे __“जी, आप अस्वस्थ है, आपको दवा पीनी ही नफरत है, उसकी सूरतसे नफरत है. उसके पेशेसे चाहिए, मैं अभी लाई” नर्स दवा बनानेको चल दी। नफरत है । मैं जाऊँगा, अभी जाऊँगा" चन्द्रने उठने "नर्स ठहरो । मैं पूर्ण स्वस्थ हूं, मुझे दवाकी की चेष्टा की। आवश्यकता नहीं" रोगीने निषेध किया। . "नहीं-नहीं, लेटे रहिए चन्द्रबाबू" नर्सने कंधे - "नहीं, आपको दवा पीनी ही चाहिए चन्द्रबाबू, पकड़कर उसे फिर लेटानेकी चेष्टा की। पर इस बार आपका स्वास्थ्य अभी ठीक नहीं हुआ ।" नर्सने वह रोगीको मनानेमें असफल रही। चन्द्र उठ खड़ा अनुनय की। हुआ और वेगसे दरवाजेकी ओर बढ़ा। "किसने कहा तुमसे कि मेरा स्वास्थ्य ठीक नहीं "मान लीजिए चन्द्रबाबू. मत जाइए, आपका है" चन्द्रने मधुर हँसी हँसी। स्वास्थ्य ठीक नहीं है, डाकृरके सारे प्रयत्नोंपर पानी _ "डाकृरने, वे आपको मेरी निगरानीमें छोड़ गए फेरकर अपने जीवनको खतरेमें न डालए।" नर्सकी हैं। मुझे अपनी ड्यूटी करने दीजिए अन्यथा डाकृर आँखें डबडबा आई। नाराज होंगे।" नर्सने सरल प्रार्थना की। "मैं यहाँ क्षणभर भी नहीं ठहर सकता देवी, "डाकृर!" चन्द्रने विस्मयसे आँखें फाड़ी-"कौन अपनी बहिनका खून करनेवाले दुष्ट डाकृरकी सूरत मैं डाकृर ?” उसने प्रश्न किया। नहीं देख सकता । मैं चला, अपनी बहिनके पास"डाकृर किशोर" नर्सने उत्तर दिया। देखो देखो वह मुझे बुला रही है"-चन्द्र वेगसे "डाकर किशोर ! तो क्या मैं डाकृर किशोरके अस्पतालसे बाहर हो गया। अस्पतालमें हूं" रोगीकी जिज्ञासा बढ़ी। - नर्स रोकती रह गई। ___“जी हाँ, आप उन्हींके अस्पतालमें हैं । और .. वही आपका इलाज भी कर रहे हैं। आप अपने डाकृरने जब कमरेमें प्रवेश किया तो रोगीके कमरेमें बेहोश पड़े थे-शायद आपने जहर खा लिया पलङ्गको खाली पाया और नर्सको एक कोनेमें खड़े For Personal & Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १० ] आँसू बहाते देखा । “नर्स, चन्द्र कहाँ है ?” उसके स्वरमें तीव्रता थी । "जी, वह चले गए" नर्सने लड़खड़ाते स्वरमें उत्तर दिया । "कहाँ ?” डाकरके स्वर में भयानक आशङ्काजन्य नर्स कम्पन था । “अनजानी जगह । मैंने उन्हें बहुत रोका पर वे रुके नहीं,” नर्सने काँपते हुए जबाब दिया--"आपका अस्पताल जानकर वे एकक्षण भी नहीं रुके" उसने आगे कहा । "तो वही हुआ जिसका मुझे भय था । तुमने उसे बता ही दिया कि मैं उसका इलाज कर रहा हूं । वह मुझे अपनी बहिनका हत्यारा समझता है नर्स ! मेरी सूरतसे नफरत करता है वह । पर मैं क्या करता, मैं किसी से तो लड़ नहीं सकता। मैंने लाख प्रयत्न किए पर क्षमाको कालके गालसे न निकाल सका। मैंने उसे जो झूठा आश्वासन दिया था कि क्षमा अच्छी हो जायगी, वह सिर्फ उसकी रक्षाके लिये। क्योंकि मैं जानता था कि क्षमा ही उसके जीवनका सहारा है और उसके जीवनका अन्त चन्द्र के जीवनका भी अन्त है । इसलिये बहिनकी मृत्यु निश्चित जानते हुए भी मैं उससे छिपाये रहा और उसने मेरे कथनपर विश्वास किया । पर उस अँधेरी रात में जब दीपक बुझ ही गया मैं चन्द्रकी नज़रों में धोखेबाज बन गया । उसने धारणा बना ली है कि मैं ही क्षमाका हत्यारा हूँ. मैं उसे बचा सकता था पर मैंने उसे बचाया नहीं। मेरा मित्र मुझसे नफ़रत करने लगा । दया और ममताकी देवीके उठनेके साथ ही सारी दुनिया उसके लिये दया और ममतासे शून्य हो गई- वह पागल हो गया । चन्द्र- मेरा चन्द्रउसे वापस लाना होगा नर्स, उसे वापस लाना “।” डाकूर विह्वल हो उठा । "मैं आदमी भेजती हूँ ।" नर्स बाहर हो गई। ** * * चन्द्र अस्पताल से भागा तो, पर उसे कुछ भी ज्ञान था कि वह कहाँ जारहा है । वह सिर्फ इतना [ ३९३ ही जानता था कि वह डाकर किशोरकी सूरत भी नहीं देखना चाहता । विक्षिप्त मस्तिष्क और कमजोर शरीर आखिर टकरा गया सामनेसे आनेवाली मोटर कारसे । ड्राईवरके बहुत बचानेपर भी दुर्घटना हो ही गई और चन्द्र भूमिपर गिर पड़ा। उसका सिर फट गया । भीड़ एकत्र हो गई। डाकर किशोरका अस्पताल दूर न था । तत्परतासे उसे वहाँ ले जाया गया, जहाँ से कुछ समय पूर्व भागने के कारण ही यह दुर्घटना हुई थी । चन्द्र !” र किशोरकी आँखों में आँसू भर श्राये उसकी यह हालत देखकर | " तूने यह क्या किया चन्द्र !” डाकरके इस प्रश्न का उत्तर देता कौन ? दुर्घटनाके बाद ही चन्द्र बेहोश होगया था । उसका सारा शरीर रक्तमें सन गया था । “नर्स ! ऑपरेशनकी तैयारी करो. चन्द्र वापस आगया ।" किशोरने भये स्वर में कहा । जी डार !" आँसू पोंछती नर्स ऑपरेशन थिएटरकी ओर चल दी। * चन्द्रने आँख खोली । “अब आप अच्छे हैं ?” नर्सने उसके सिरपर हाथ फेरते धीरे से कहा । “मैं, मैं अच्छा हूँ ! मैं कहाँ हूँ, तुम कौन हो ?" चन्द्र समझ न पारहा था कि वह कहाँ है ? "आप अस्पतालमें हैं चन्द्र भइया !" नर्सको चन्द्रसे भाई जैसा स्नेह होगया था । मोटर दुर्घटना में पड़ जानेसे आपके दिमागको चोट पहुँची थी, लेकिन अब सब ठीक है, ऑपरेशन स आप उनसे मिलेंगे चन्द्र अभी आते ही होंगे भइया!" नर्स अभी भी उसके सिरपर हाथ फेर रही थी । "भइया, तुमने मुझे भइया कहा । पर तुम तो क्षमा नहीं हो। वह तो चली गई मुझे छोड़कर ।" चन्द्र आँखें फाड़कर नर्सको देखा । * “हाँ, मैं क्षमा नहीं, पर क्षमाकी भाँति ही मैं श्रापकी सेवा कर सकती हूँ। मुझे दे दीजिये क्षमाका For Personal & Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९४ ] अनेकान्त [वर्ष है पवित्र स्थान चन्द्र भइया !" नर्सने आँसू भरकर किया । कहा-"आप मुझे 'भझ्या' कहनेका अधिकार दे "मैंने कहा न था चन्द्र, कि बहिनको तुमसे अलग दीजिये।" न होने दूंगा!" किशोरकी आँखें गीली हो गई। ___ "तुम कहोगी मुझे भइया ? मेरी बहिन बनोगी, “हाँ किशोर !” चन्द्रने आँखें बन्द कर ली। मुझे जीवनका दान दोगी ? मेरे निरुत्साह और 'अब तुम आराम करो, मैं जाता हूँ। फिर निराश जीवनमें उत्साह और आशाकी ज्योति प्रदीप्त आऊँगा । पर अब भागना नहीं और न अपने किशोर करोगी देवी !” चन्द्रने नर्समें वही देवीरूप. देखा। से नफरत ही करना।" किशोरने व्यङ्ग किया। .. "हाँ भइया !" नर्सकी आँखोंसे झर-झर आँसू "मुझे क्षमा कर दो किशोर !” चन्द्रने पश्चात्ताप बह पड़े। . किया । "तो आओ, मेरे गलेसे लग जाओ बहिन ! तुम "अच्छा यह सब पीछेकी बात है, हम निपट सचमुच मेरी बहिन हो, क्षमा जैसी ही ममतामयी हो लेंगे। अभी मुझे कई आवश्यक कार्य है, मैं जाता तुम ! क्षमा, मैंने तुम्हें पा लिया !” चन्द्रने नर्सको हूँ।" किशोर चल दिया। दरवाजेतक पहुँचकर वह छातीसे लगानेके लिये हाथ पसार दिये। एक क्षण रुका। भाई और बहिनके सम्मिलनका दृश्य सचमुच "अपने भाईको भागने मत देना नर्स !” वह अपूर्व था। दोनोंकी आँखोंसे अश्रुधारा बह रही थी। मुस्कराया। डाकृर किशोरने इसी समय कमरेमें प्रवेश किया। "जी, आप विश्वस्त रहें, भइया अब नहीं __ "किशोर, डाकृर किशोर ! मेरी बहिन आ गई, भागेंगे।" मुस्कराहटके साथ नर्सने चन्द्रको देखा। क्षमा आ गई किशोर !” चन्द्रने किशोरका स्वागत हाँ, अब मैं नहीं भागूंगा।” चन्द्र भी मुस्कराया। अपभ्रशका एक शृङ्गार-वीर काव्य वीरकृत जंबूस्वामिचरित (लेखक-श्रीरामसिंह तोमर) विक्रम संवत् १०७६में वीर कवि-द्वारा निर्मित पारंभिय पच्छिमकेवलहिं जिहं कह जंबूसामिहि ॥ जम्बूस्वामिचरित अपभ्रंशकी एक महत्वपूर्ण रचना इसी भूनिका-प्रसङ्गमें आगे कविने रस, काव्यार्थ है। प्रस्तुक कृतिके ऐतिहासिक पक्षसे सम्बन्धित एक के उल्लेख किये हैं और स्वम्भू. त्रिभुवन जैसे कवियों सुन्दर लेख प्रेमी-अमिनन्दन-प्रन्थमें श्री पं. परमानन्द तथा रामायण और सेतुबन्ध जैसी विख्यात कृतियोंजी जैनने लिखा है। यहाँ कृतिके साहित्यिक पक्षपर का स्मरण किया हैविचार किया जावेगा। कविने अपनी कृतिको सन्धियोंके सुइ सुहयरु पढइ फुरंतु मणे । अन्तमें 'शृङ्गार-वीर-महाकाव्य' कहा है किन्तु कृतिकी कव्वत्थु निवेसइ पियवयणे । । प्रारम्भिक भूमिकामें उसने कथा कहनेकी प्रतिज्ञा की है रसभावहिं रंजिय विउसयणु । For Personal & Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १० ] सो मुवि यंभु अणु कवणु । सो वेय-गव्वु जइ नउ करड़ । तो कज्जे व तिहुणधरइ । अपभ्रंशका एकशृङ्गार-वीर काव्य महकइ वि निबद्धउ न कव्वभेउ । रामायणम्मि पर सुणिउ सेउ । १-२-३ कृतिके प्रारम्भमें इस प्रकार के उल्लेख बिना प्रयोजनके नहीं हो सकते हैं । प्रस्तुत कृति 'कथा' है अथवा शृङ्गार- वीररस प्रधान महाकाव्य इसकी परीक्षा करनेके पूर्व कृतिकी कथावस्तु संक्षेपमें देखना आवश्यक है । मङ्गलाचरण तथा कथानिर्देशके अनन्तर कवि सज्जन-दुर्जनों, पूर्वके कवियों आदिका स्मरण किया है और नम्रतापूर्वक काव्य रचनामें अपनी असमर्थता प्रकट की है। फिर कविने अपना और अपने सहायकोंका उल्लेख किया है। इस छोटीसी प्रस्तावनाके अन्तर कविने मगधदेश, और उसमें स्थित राजगृहनगर. उसके निवासियोंके सुन्दर काव्यशैलीमें वर्णन उपस्थित किये हैं । वहाँके श्रेणिक राजा तथा उनकी रानियोंका वर्णन किया है। नगर के समीपस्थ उपवनमें भगवान वर्द्ध मानके समवसरण रचे जानेका समाचार पाकर पुरजनों सहित मगधेश्वर इन्द्र द्वारा निर्मित समवसरण-मण्डपमें पहुँचकर जिन भगवान की स्तुति करके बैठते हैं । (सन्धि १) प्रणाम करके विनय भावसे श्र णिकराज जिनबरसे जीवतत्त्वके सम्बन्धमें जिज्ञासा करता है । गणधर राजासे जीवके सम्बन्धमें व्याख्या कर रहे थे उसी समय आकाश मार्गसे तेजपुञ्ज विद्युन्माली भासुर आया । और विमानसे उतरकर जिनदेवको प्रणाम करके बैठ गया । तेजवानदेवके सम्बन्धमें राजाके पूछने पर गणधर ने बताया कि वह (विद्युन्माली) अन्तिम केवली होगा। अभी उसकी आयुके केवल सात दिन है किन्तु उसे अभी तेजने नहीं छोड़ा। राजाने उस देवके ऐश्वर्यसे प्रभावित होकर उसके पूर्व जन्मों की कथा सुनने की इच्छा प्रकट की । जिनदेवने उसकी कथाको इस प्रकार प्रारम्भ किया [ ३६५ मगध मण्डल वर्धमान ग्राम था, जहाँ वेदघोष करनेवाले, यज्ञमें पशुओंकी वलि देनेवाले, सोमपान करनेवाले, परस्पर कटुवचन बोलनेवाले अनेक ब्राह्मण रहते थे । उस ग्राममें अत्यन्त गुणवान ब्राह्मण-दम्पति श्रुतकण्ठ- सोमशर्मा रहते थे । उनके दो पुत्र भवदत्त और भवदेव थे। जब उन दोनोंकी आयु क्रमशः १८, १२ वर्ष थी, श्रतकण्ठ चिरजन्मोंमें अर्जित पाप कर्मोंके फलस्वरूप कुष्ठ रोगसे पीड़ित हुआ और जीवन से निराश होकर चिता बनाकर अभिमें जल गया। प्रियविरहसे सोमशर्मा भी श्रमि में जल मरी । शोक संतप्त दोनों भाइयोंको स्वजनोंने शान्त किया। उन्होंने अपने माता-पिताकेसंस्कार किये। दीक्षा लेकर शुद्ध चरित्र दिगम्बर होगयाभवदत्तका मन संसार में नहीं रमता था अतः वह दंसणु स लहंतउ विसयचयंत सुद्धचरित्त दियंबरु । गुरु वयण सवण रइ दिढमइ विहरइ कम्मासयकयसंवरु ॥ २-७ ।। उवयार बुद्धि समणीय परहो, तो हुय भवयत्त दियंबरहो । २-८ ।। इस प्रकार बारह वर्ष तक तपस्या करनेके पश्चात् भवदत्त एक बार संघके साथ अपने ग्रामके समीप पहुँचा । संघकी आज्ञा से वह भवदेवको संघमें दीक्षित करनेके लिये वर्धमान ग्राममें गया । इस समय भवदेवका दुर्मर्षण और नागदेवीकी पुत्री नागवसू परिणय होरहा था । भाईके आगमनका समाचार सुनकर वह उससे मिलने आया और स्नेहपूर्ण मिलन के पश्चात् उसे भोजनके लिये घरमें लेजाना चाहता था । भवदेवको इसके अनन्तर भवदत्त अपने संघमें लेगया और वहाँ मुनिवरने उससे तपश्चर्यात्रत लेनेको कहा । भवदेवको इधर शेष विवाह कार्य सम्पन्न करके विषय सुखों का आकर्षण था, किन्तु भाईकी इच्छा का अपमान करनेका साहस उसे नहीं हुआ और प्रव्रज्या (दीक्षा) लेकर वह देश - विदेशों में संघके साथ बारह वर्षतक भ्रमता रहा। एक दिन अपने ग्रामके पाससे निकला । भवदेव घर जाकर विषयोंके सुखोंका For Personal & Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९६ ] अनेकान्त [ वर्ष ६ आस्वादन करना चाहता था, किन्तु भवदत्तने फिर और सातवें दिन मनुष्यरूपमें अवतरित होगा । उसे रोक दिया । भवदेव अन्तमें संसारको त्यागकर श्रेणिकराजने वर्धमान जिनसे फिर, विद्युन्माली जिन अन्तिम दीक्षा ले लेता है। दोनों भाई तप करते हुए चार देवियोंके - साथ रमण करता था, उनके पूर्व अवसान-समयमें पंडितमरणसे मरते हैं, दोनों सनत्कु- भवान्तरोंके विषयमें पूछा। जिनवरने बताया कि चंपा मार स्वर्गमें जाते हैं और वहाँ सप्तसागर आयु तक नगरीमें सूरसेन नामक धन-सम्पन्न श्रेष्ठी था, उसकी वास करते हैं, देवयोनिमें रहकर वे विमानोंमें चढ़कर जयभद्रा, सुभद्रा, धारिणी, यशोमती नामक चार रमण करते हैं । (सन्धि २) स्त्रियाँ थीं। वह श्रेष्ठी पूर्वसंचित पापकर्मोके फलस्वरूप भवदत्तका जन्म स्वर्गसे च्युत होनेपर पुंडरीकिनी व्याधिग्रस्त होकर मर गया और उसकी चाराँ पत्नियाँ नगरीमें वदन्त राजाकी रानी यशोधनाके पत्रके रूप आजिकाएँ होगई। तपःसाधन करनेके पश्चात् मरकर में हुआ और भवदेव वीतशोका नगरीके राजा वे स्वर्गमें विद्युन्मालीकी पत्नियाँ हुईं। इसके पश्चात् महापद्मकी रानी वनमालाके पुत्र के रूपमें उत्पन्न हुआ। श्रेणिकराजने विद्युञ्चरके विषयमें पूछा कि इतना भवदत्तका नाम सागरचन्द रक्खा गया और भवदेव तेजवान् होनेपर भी वह चोरत्वको क्यों प्राप्त हुआ ? का शिवकुमार। शिवकुमारका एकसौपाँच (सयपंच) जिनवरने बताया कि मगधदेशमें हस्तिनापुर नगर था, राजकन्याओंसे परिणय होगया और कोड़ियों उनके वहाँ विसन्धर राजा था, उसकी प्रिया श्रीसेना थी, अङ्गरक्षक थे। उन्हें बाहर नहीं जाने दिया जाता था। उसका पुत्र विद्युच्चर हुआ। वह सकल विद्याओंमें उधर पुंडगीकिनी नगरीके समीप उपवनमें चारण पारङ्गत था । विद्याबलसे वह चोरी करता था। मुनियोंसे पूर्व जन्मका वृत्तान्त सुनकर सागरचन्दने औषधिसे खम्भ बनाकर रत्रिको अपने पिताके घरमें संन्यास (साधुदीक्षा) व्रत ले लिया था और द्वादश- पहुंचकर चोरी कर लेता था, जगते हुए राजाको सषप्त विधि तपश्चर्या में रत था। एक बार वह वीतशोका कर देता था और कटि-हार आदि आभूषण उतार नगरीमें पहुँचा । शिवकुमारने प्रासादोंके ऊपरसे लेता था, वह राज्य छोड़कर राजगृह नगरी चला गया मनियोंको देखा। उसे पूर्व जन्मोंका स्मरण हो आया और चोरी करने लगा। इसीसे उसका नाम विद्यच्चर और वैराग्य-भावोंका उसके मनमें उदय हुआ। यह हुआ (सान्ध ३)। देखकर राजप्रासादमें कोलाहल मच गया। राजाने चतुर्थ सन्धि वीरकविकी प्रशंसासे प्रारम्भ होती आकर कुमारको समझाया कि घरमें ही रहकर तप है। वर्धमान जिस समय कथा प्रारम्भ कर रहे थे कि और व्रतोंका पालन हो सकता है, संन्यास लेनेकी एक यक्ष उठकर नाचने लगा। पश्चिम केवली मगधमें आवश्यकता नहीं है। पिताके वचनोंको मानकर अरहदास वणिकके कुलमें जन्म होनेकी बात सुनकर कुमारने नवविध श्रेष्ठ ब्रह्मचर्यव्रत धारण किया, वह आनन्दित होकर नाच रहा था। विस्मित होकर तरुणीजनोंके पास रहते हुए भी उनसे वह विरक्त राजाने आनन्दसे नाचते हुए यक्षसे प्रश्न, किया। रहता था। उपवास करता था। दूसरे घरोसे भिक्षा जिनेन्द्रने इस प्रकार उत्तर दिया-सइत्तउ नगरी थी लेकर पारणा करता था। इस प्रकार तप करके अन्तमें वहाँ सन्तप्रिय (संताप्पिउ) वणिक रहता था। उसकी इस लोकको छोड़कर वह विद्युन्माली देव हुआ। गोत्रवती प्रिया थी । अरहदास उसका पुत्र था, दूसरा दससागर उसकी आयु हुई और चार देवियों के साथ पुत्र जिनदास था। जिनदास तरुण अवस्थामें दुर्व्यसुख भोग करता था। उधर सागरचन्द भी मरकर सनोंमें फंस गया। मदिरा पीता था, द्यूतक्रीड़ामें रत सुरलोकमें इन्द्र के समान देव हुआ। वर्धमान जिनने रहता था । किन्तु उसने अन्तमें श्रावक व्रत लेकर राजाको बताया कि यही विद्युन्माली वहाँ आया था पाप विसजित किए और वह मरकर यक्ष हुआ इसके For Personal & Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १० ] अपभ्रंशका एक शृङ्गार-वीर काव्य [३९७ भाई अरहदासके यहाँ विद्युन्मालीका अन्तिम केवली- वहाँ जाकर कन्याके साथ परिणय करनेकी प्रार्थना के रूपमें जन्म होगा यह सुनकर हर्षित होकर यह करता है । जम्बू अकेले जाकर विद्याधरसे युद्ध करते नाच रहा है। सातवीं रात्रिके चतुर्थ प्रहरमें अरहदास हैं। मृगाङ्कराजा कन्या जम्बूस्वामीको समर्पित कर देता की प्रियाने जम्बूफल आदि वस्तुएँ स्वप्नमें देखीं। स्वप्नों है । पीछेसे श्रेणिकराजकी सेना भी देशान्तरों में का फल बताते हुए मुनि कहते है कि उसके एक पुत्र भ्रमण करती हुई पहुँच जाती है। रत्नशेखर(-सिंहहोगा जो सोलह बरस रहकर दीक्षा लेगा। समया: चूल) विद्याधरकी हार होगी ऐसा प्रतीत होने लगता नुकूल जम्बू जन्म लेते हैं और शीघ्र विद्याध्ययन है (सन्धि ५)। समाप्त करते हैं। जम्बूफल स्वप्नमें उनकी माताने देखा छठी सन्धिका प्रारम्भ कुछ प्राकृत पद्योंमें की गई था इसलिये उनका नाम जम्बूस्वामी रखा गया। कविवीरकी कवि-प्रतिभाकी प्रशंसासे होता है। उस जम्बूस्वामी अत्यन्त सुन्दर थे नगरकी रमणियाँ उन्हें सम्पूर्ण सन्धिमें जम्बूस्वामीके युद्ध कौशलका वर्णन देखकर आसक्त होजाती थीं और विरहका अनुभव किया गया है। अन्तमें रत्नशेखरको मृगाङ्क राजा पराकरने लगती थीं। .. जित कर देता है और जम्बू सहस्रों भटोंको परास्त उसी नगरमें समुद्रदत्त श्रेष्ठि रहता था. उसके कर देते हैं । युद्धका वर्णन बड़ी क्षमतापूर्वक कविने चार सुन्दर पुत्रियाँ थीं, समुद्रदत्तने उन कुमारियोंका किया है । युद्धके प्रसङ्गमें अद्भुत, बीभत्स व्यापारोंका विवाह जम्बूस्वामीसे करना निश्चित किया । विवाहकी चित्रण करते हुए कविने साङ्गोपाङ्ग युद्ध वर्णन किया तैयारियाँ हो रहीं थी. इतनेमें ही वसन्त-ऋतु आ है । आठ सहस्र विद्याधरोंको उसने परास्त कर दिया। पहुंची. सब लोग वसन्तोत्सवके लिए राजोद्यानमें अन्तमें पराजित रत्नसिंहको वह क्षमा कर देता है। जाते हैं। क्रीडाके उपरान्त सुरति खेदको दूर करनेके विद्याधर रत्नसिह पाँचसो विमान लेकर जम्बूके साथ लिए सरोवरमें जलक्रीडा सब करते हैं. सब लोग जब उसे मगध पहुंचाने चल देता है। विमान नर्मादकुरुल वस्त्र आभूषणोंको पहनकर नगरकी ओर जा रहे थे (णम्मायकुरुल) शिखरपर पहुंचता है जहाँ मगधेशकी कि एक प्रमत्त गज आकर सबको त्रस्त कर देता है सेनाका स्कंधावार था, जम्बूने उतरकर उनसे भेंट की। जब सब भयभीत होकर भाग रहे थे जम्बू उसे वीरता गगनगति सबका राजासे परिचय कराता है मृगाङ्ककी पूर्वक परास्त कर देते हैं (सन्धि ४)। पुत्रीसे शुभ मुहूर्तमें जम्बूका विवाह होता है। जम्बू वीरताके इस कार्यसे प्रसन्न होकर राजाने जम्बू जिस समय अपने नगरमें प्रवेश कर रहे थे उपवनमें 3 महर्षि सुधर्मस्वामी पश्च शिष्यों सहित आते हैं। कुमारको अपने बराबर आसन दिया। जब यह राजसभा चल रही थी उसी समय आकाशसे, एक महर्षिको जम्बूस्वामी भक्तिपूर्वक नमस्कार करते हैं विमान वहाँ पहुंचा और एक विद्याधर सम्मुख उप (सन्धि ६-७)। . स्थित हुआ। उसने अपना निवास सहससिंग' नगरी मुनिसे जम्बूस्वामी अपने पूर्व-भावोंका वृत्तान्त में बताया तथा उसका नाम गगनगति था। उसने सुनते हैं और तदनन्तरे घर आकर माता पिताको बताया कि केरल नगरीके राजा मृगाङ्कने उसकी बहिन प्रणाम करके प्रव्रज्यावत लेनेका विचार करते हैं। मालतीसे विवाह किया है और उसकी पुत्री विलास- पुत्रके ऐसे वचन सुनकर माता मूर्छित हो जाती है। वती अत्यन्त रमणीय है। हंसद्वीपमें निवास करने जम्बूको वह समझाती है कि उसके वैराग्य लेनेसे कुल वाले विद्याधरसे रत्नसिंहने मृगाङ्कसे उस कन्याको विलीन हो जावेगा । इसी समय सागरदत्तके द्वारा माँगा । राजाके न देनेपर उसने केरलनगरीपर कुमारी प्रेषित व्यक्ति आकर जम्बूका विवाह निश्चित करता है को लेनेके लिए धावा कर दिया । वह विद्याधर जम्बूसे और सागरदत्तकी चार कन्याओंसे जम्यूका विवाह For Personal & Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ ] है । शृङ्गारके अनेक उपकरणोंसाथ जम्बू और नवपरिणीतावधुओं के संभोग शृङ्गारका वर्णन किया है । कविने इस सन्धिको अत्यन्त उपयुक्त 'विवाहोत्सव' नाम दिया है (संधि ८) महिलाओंके मोहसे उत्पन्न प्रेमसे जम्बूके हृदयमें वैराग्य उत्पन्न होता है। महिलाओंकी वे निन्दा करते हैं. उनकी विरक्ति भावनाको दूर करने के लिए जम्बूकी प्रियतमाएँ कमलश्री. कनकश्री, विनयश्री, रूपश्री प्राचीन कथानक कहती हैं; जम्बू इसके विपरीत वैराग्यके महत्वको प्रतिपादित करनेवाली कहानियाँ कहते हैं । बात करते-करते इस प्रकार आधी रात बीत गई किन्तु कुमारका मन सांसारिक प्रेममें नहीं लगा. इसी समय विद्युचर चोरी करता हुआ नगर में आया अनेकान्त वोल्लं हो तो वि कुमार ण भवे रमइ । तहें काले चोर विज्जुचरु चोरेवइ पुरे परिभमइ ॥ ११ ॥ नगरमें घूमता हुआ जम्बूके गृहमें विद्युच्चर पहुंचता है । जम्बूकी माता सोई नहीं थी, चोरका समाचार जाननेपर उसने कहा कि वह जो चाहे सो aa । विद्युच्चरको जब जम्बूकी माता शिवदेवी से जम्बू की वैराग्य-भावनाके विषयमें ज्ञात हुआ तो उसने प्रतिज्ञा की कि या तो वह जम्बूकुमारके हृदयमें विषयोंमें रति उत्पन्न कर देगा और नहीं तो स्वयं तपस्या व्रत ले लेगावहुवयण-कमल-रसलंपुड भमरु कुमारु ण जइ करमि । एणसमाणु विहाणए तो तव चरणु हउं विसरमि | १६ | 'वधु वदनकमल कुमारको रस- लम्पट भ्रमर यदि नहीं करूँ तो मैं भी इसीके समान प्रातःकाल तपश्चरण करूँगा ।' जम्बूकी माता रात्रिको उसी समय उस चोरको अपना छोटा भाई कहकर जम्बूके समीप लेजाती है । जम्बू वेष बदले हुए विद्युच्चरको देखकर उससे कुशल प्रश्न करके पूछते हैं कि उसने किन-किन देशोंमें भ्रमण किया । व्यापार के भ्रमण किये देशोंके नामोंको सुनकर जम्बू उसे बड़ा वीर समझते हैं— [ वर्ष विहुरावि सिरु विभियचित्त े बुच्चई मामु ण वणियवरु । पच्चक्खु दइउ इय सत्तिए अवस होसि तुहं वीरणरु |१| विस्मितचित्त होकर शिर हिलाकर कहता हैमामा मात्र ही नहीं है, प्रत्यक्ष दैवसे प्राप्त शक्ति से युक्त श्रवश्य तुम वीर पुरुष हो । (सन्धि ) दसवीं सन्धिमें कई मनोहर श्राख्यान जम्बू और विद्युच्चरद्वारा कहे गये हैं। जम्बू वैराग्यमें उपसंहार होनेवाले आख्यान कहकर विषय-भोगोंकी निस्सारता दिखाते हैं और विद्युश्वर वैराग्यको निरर्थक बतानेवाले आख्यान कहता है । अन्तमें जम्बूकी दृढ़तासे वह प्रभावित होजाता है । जम्बू सुधर्मस्वामी से तपस्या की दीक्षा ले लेते हैं. सभी उनकी पत्नियाँ आर्यिका होजाती हैं, विद्युच्चर भी प्रव्रज्याका व्रत ले लेता है । सुधर्मस्वामी निर्वाण प्राप्त करते हैं। जम्बूस्वामी केवलज्ञान प्राप्त करते हैं और में संल्लेखना करते हुए निर्वाण प्राप्त करते हैं। विद्युश्वर भ्रमण करता हुआ ताम्रलिप्तपुरमें पहुंचता है जहाँ कात्यायनी भद्रमारीके प्राधान्य को नष्ट करता है । ग्यारहवीं सन्धिमें विद्युमर के दशविधधर्म पालनद्वारा और तपस्याद्वारा अन्त में समाधिमरण पूर्वक सर्वार्थसिद्धि प्राप्तिका वर्णन है ग्रन्थकी समाप्ति करते हुए कविने कहा है कि उसकी कृतिका पाठ करने से मङ्गलकी प्राप्ति होती है। जम्बूस्वामिचरितकी ग्यारह सन्धियोंमेंसे प्रायः प्रत्येक में सद्- काव्यकी प्रशंसा की गई है । कवि १ सन्धि प्रथम में कई उल्लेखोंके साथ अन्तमें कहा है 'कव्वेयं पूर्वसिद्ध वा भूयोपक्रियते मया' । सन्धि ३के प्रारम्भ में निम्न प्राकृत पद्य है :वालक्कीलासुवि वीर वेयण पसरत कव्व-पीऊसं । कण्णपुडएहिं पिजइ जणेहिं रस मउलियछेहिं ॥ १ ॥ भर हालंकार लक्खणाइं लक्खे पयाइं विरयंती । वीरस्स वयणरगे सरस्सई जयउ गच्चंती ॥ २ ॥ सन्धि ५के प्रारम्भ में स्वयंभू पुष्पदन्त और देवदत्त कवियोंकी प्रशंसाके साथ वीरकी प्रशंसा की गई है :दिवसेहिं इह कवित्तं लिए लियम्मि दूरमाययणं । For Personal & Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १० ] अपभ्रंशका एक शृङ्गार-वीर काव्य [ ३६६ 'सुकवित्त्व' रचना करनेकी इच्छा प्रथम सन्धिमें प्रकट वह पीछे नहीं हठता । कविने भवदेवके भावद्वंद्वका की है और अपनेको उसके अयोग्य कहा है। इस प्रकार चित्रण किया है; जब उसका भाई मुनिसे 'सुकवित्त करण मण वावडेण' । १-३ . कहता कि भवदेव 'तप चरणु लहेसई' (तपश्चरण प्राप्त इस प्रकारके उल्लेखोंसे प्रस्तुत कृति केवल धार्मिक करेगा) वह सोचता हैकथा-कृति नहीं ज्ञात होती और कविने स्वयं भी उसे सुणंतु मणि डोल्लइ । निठुर केम दियंवरु वोल्लइ । महाकाव्य कहा है, जिसमें शृङ्गार और वीर रसोंकी तुरिउ तुरिउ घरि जामि पवित्तमि , प्रधानता है । कृतिकी ग्यारह सन्धियोंमें कथा-रसके सेसु विवाह कज्जु निव्वत्तमि । अनुकूल इस प्रकार है। दुल्लहु सुख्यविलासु व मुजमि , प्रथम सन्धि भूमिकास्वरूप जिनकेवलीके सम- नववहुवाए समउ सुहु भुजमि ॥२-१२॥ वसरणका वर्णन हैं और श्रेणिकके उस धर्मसभामें किन्तु भाईके वचनोंका उसे ध्यान आता हैजानेकी कथा है । इस सन्धिमें कथा कही गई है और तो बरि न करमि एह अपमाणउ, देश, नगर आदिके सुन्दर वर्णन भी हैं। किसी विशेष जेट्ट सहोयरु जणणु समाउ ॥२-१३॥ रस-परिपाकके लिये इस सन्धिमें स्थान नहीं मिल 'इसका अपमान कदापि नहीं करूँगा. ज्येष्ठ सका । श्रेणिकके भक्तिभावमें उत्साह है जिसे शान्त सहोदर पिताके समान है।' और दीक्षित होने के लिये रसका स्थायी कहा जा सकता है। प्रस्तुत सन्धिमें 5 स्वीकृति देता है । दीक्षाके समय वह मन्त्रोंका उच्चारण वीर और शृङ्गार रसका कोई स्थान नहीं हैं। भी ठीक नहीं कर पारहा था; क्योंकि उसका मन नवदसरी सन्धिमें श्रेणिकके प्रश्नका उत्तर गणधर यौवना पत्नीमें लगा था .. पादंतहं. अक्खरु मउ आवइ । देते हैं। इसी समय बड़े लटकीय कौशलसे कविने लडहंगउ कलत्तु परझायइ ॥२-१४॥ जम्बूके जन्मान्तरोंसे सम्बन्धित कथाका प्रारम्भ किया। .. दीक्षित होकर बारह वर्षतक भ्रमण किया और है। अतः जम्बूचरितका प्रारम्भ इसी सन्धिसे होता है। वह भ्रमण करता हुआ अपने ग्राम बधमानके पास हम देखनेका प्रयत्न करेंगे कि प्रमुख चरित्रमें कहाँतक , आया, ग्रामके सम्पर्कके स्मरणसे उसके हृदयमें शृङ्गार और वीर रसोंका चित्रण हुआ है और कविका विषय-वासना जागृत होजाती है। कविने उसकी इन अपनी कृतिको शृङ्गार-वीर रससे युक्त रचना कहना उद्दाम भावनाओं को इस प्रकार चित्रित किया है:कहाँतक संगत है। चिक्कसंतु चित्तु परिओसइ , - जम्बूके पूर्व जन्मोंकी कथा कहते हुए ऋषि बताते एरिसु दिवसु न हुयउ न होसइ । हैं कि एक पूर्व जन्ममें ब्राह्मणपुत्र भवदेव थे। उनके तो वरि घरहो जामिपिय पेक्खमि , बड़े भाई भवदत्त जैनधर्मकी दीक्षा ले चुके थे । भवदेव . विसय सुक्ख मणवल्लह चक्खमि ॥२-१५॥ का जब विवाह होरहा था भवदत्त आता है, भवदेव । 'चिकने (स्नेहाभिषिक्त) चित्तको वह परितोषित विवाह-कार्य अधूरा छोड़कर भाईकी आज्ञा मानता करता है, इस प्रकारका दिन न हुआ है न होगा, तो हुआ दीक्षा लेकर चला जाता है। एक ओर उसे । अवश्य घर जाकर प्रियाका दर्शन करूँगा और मनकिंचित नवविवाहका भी ध्यान है किन्तु वैराग्यसे भी वल्लभ विषय-सुखोंका श्रास्वादन करूँगा।' संपइ पुणो णियत्त जाए कइ वल्लहे वीरे ॥२॥ समयानुकूल भवदत्त आकर उसे संबोधित करता सन्धि में इस प्रकार एक पद्य है:- . है और वह कुपथसे बच जाता है। इसी प्रसङ्गमें देंत दरिद्द पर वसण दुम्मणं सरस-कव्व-सव्वस्सं । कविने जम्बूचरितके सबसे कोमल और रमणीय कह वीर सरिस-पुरिसं धरणि धरती कयथासि ॥१॥ स्थलका चित्रण किया है * चत्यहम Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० ] .. . अनेकान्त [ वर्ष । भवदेव जाता है और वहाँ एक क्षीणकाय स्त्री तपस्या- पात्र विजय पाते हैं, तपके लिए उनमें 'वीर'का स्थायी में रत बैठी थी, उससे भवदेव अपने और भवदत्तके 'उत्साह' पाठकोंको दीख सकता है। इस शृङ्गार विषयमें पूछता है। वह स्त्री सब बताती है कि किस भावना और 'उत्साह' भावनाका संघर्ष इस सन्धिमें प्रकार वे दोनों ब्राह्मणपुत्र संसार तरङ्गोंको पारकर पयाप्त सुन्दर और वह कविको दिगम्बर होगए थे। और भवदेवने नागवसुसे विवाह शृङ्गार वीरकाव्य बनानेमें सहायक है। किया था, वह भवदेवके यौवनावस्थामें तपव्रत लनेकी भवदेवका जन्म वीतशोकानगरीके राजकुमार प्रशंसा करती है। उसने भवदेवको पहिचान लिया के रूपमें होता है। उसका विवाह एकसौ पाँच राजथा; वह उसकी पत्नी थी: कन्याओंसे कर दिया जाता है, राजप्रासादोंके बाहर तरणत्तणेवि इंदियदवणु । जानेमें शिवकुमार (भवदेवका इस जन्मका नाम) पर दीसई पई मुयवि अण्णुकवणु ॥ देखरेख रखी जाती है। एक बार उस नगरीमें सागरपरिगलिए वयसिसव्वहुविजई, चन्द मुनिक आगमसे नगरीमें कोलाहल हुआ (भवविसयाहिलास हवि उवसमई । दत्तका जन्म सागरचन्द नामसे पुण्डरीकिनी नगरी में कच्चेपल्लट्टइ को रयणु, हुआ था और वह मुनि हो गया था)। शिवकुमारने पित्तलइ हेमु विक्कइ कवणु । २-१८ धवलगृहके ऊपरसे मुनिको देखा और उसे जाति 'तरुणावस्थामें इन्द्रियोंका दमन करने वाला स्मरण हो आया । वह मूर्छित होगया और तपव्रत तुम्हारे अतिरिक्त और कौन है, अवस्थाके परिगलित लेना चाहता है, राजा उसे उस पथसे दूर करना होनेपर सभी यती हैं जब कि विषयाभिलाषाएँ उप- चाहता है। राजा और राजकुमारके प्रसङ्गकी कुछ शमित हो जाती हैं. काँचको रत्नसे कौन बदलेगा और पंक्तियाँ इस प्रकार हैं. राजा उसे शृङ्गार और राजपीतलले सोनेको कौन बेचेगा।' नागवसु उससे कहती वैभवमें रत रहनेके लिए कहता है किन्तु कुमारका कि उसके जानेपर उसके एकत्रित धनसे उसने वह मन वैराग्यके लिए दृढ़ हैचैत्य बनवाया है। उसकी धर्मदृढ़ताको सुनकर भवदेव आहासइ चक्केसरु तणुरुहु, लजित होता है, मुनिके पास जाकर सब वृत्तान्त कवणु कालु पावज्जते किर तुहु । सुनाकर सविशेष दीक्षा लेता है । भवदत्तके साथ तप अखयगिहाणु . रयगरिदिल्ली, करता हुआ वह और भवदत्त अनशन करके पण्डित- रायलच्छि तुहु भुजहिं भल्ली । मरणसे देह त्याग कर तृतीय स्वर्गको जाते हैं। भणइ कुमारु ताय जय सुदरु, विषयोंकी ओर झुकनेकी मनुष्यकी शाश्वत दुर्ब ता कहि चक्कवट्टि हरि हलहर । लताका सुन्दर विश्लेषण करते हुए कविने भवदेवको समलकाल एवणव वर इत्ती, उसपर विजय पाते हुए चित्रित किया है। शृङ्गारके वसुमई वेसव केण ण मुत्ती । १-८ भालम्बन विभाव यहाँ भवदेव और नागवसु है। फिर राजा कहता है कि रागद्वेषका त्याग करनेपर संचारीभावोंका सुन्दर चित्रण हुआ है. पुरानी तपव्रतकी क्या आवश्यकता है घरवास करते हुए ही स्मृतियाँ. ग्रामकी सन्निकटता भवदेवके हृदयमें विषय- नियम व्रतोंको धारण करना चाहिये। कुमार पिताके सुखको जागृत करते हैं अतः उद्दीपन कहे जा सकते वचनको मानकर मन. वचन. कायसे नवविध ब्रह्मचर्य हैं. शृङ्गारके पूर्ण चित्रणके लिए कथाकी परम्पराके व्रत धारण करनेका व्रत लेता है। तरुणियोंके पास कारण कवि विवश था. और परिस्थितियोंके कारण होनेपर भी वह उस ओरसे उदास रहता है। परगृहसे नायक नायिका दोनों तपवन लेते हैं। दुर्बलताओंसे भिक्षा लाता है। बहुत वर्ष तप करनेके पश्चात् समय संघर्ष ही वीररस' का यहाँ प्रतीक है. उनपर कथाके आनेपर वह विरक्त होगया और देह त्यागकर For Personal & Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १० ] अपभ्रंशका एक शृङ्गार-वीर काव्य [४०१ विद्युन्मालीदेव हुआ। शृङ्गारके समस्त साधन रहते सङ्गीत, कोमलवृत्ति और शृङ्गारके अनुकूल माधुर्यहुए भी शिवकुमारका मन उससे विरक्त रहा उस गुण-प्रधान ऐसे वर्णनोंको व्यक्त करनेकी क्षमता भावद्वन्दको कविने यहाँ समस्त सद्उपदेशोंके साथ दिखानेके लिये ऐसे वर्णन अच्छे प्रमाण हैं। कुछ व्यक्त किया है। शृङ्गारका अर्थ इस प्रसङ्गमें विषया- पंक्तियाँ इस प्रकार पढ़ी जासकती हैं:भिलाषा' करना उचित होगा। विषयाभिलाषाओंपर मंछ मंदार मयरंद णंदण वणं , वैराग्य भावनाकी विजय दिखाई गई है। इस सन्धिके कुद करवंद वयकुद चंदण घृणं । अनुसार कृतिका नाम 'शृङ्गार-वैराग्य' कृति कहना • तरल दल तरल चल चवलि कयलीसुहं, उचित होगा. 'शृङ्गारवीर' कृति नहीं। दक्ख पउमक्ख रुद्दक्ख खोणीरुहं । सन्धि चतुर्थसे जम्बूस्वामी कथा प्रारम्भ होती है। कुसुम रय पयर पिंजरिय धरणीयलं. जम्बूकुमार अत्यन्त रूपवान थे । उनको देखकर नगर तिक्ख नहु चंवु कणयल्ल खंडियफलं । की रमणियाँ. उनके रूपपर आसक्त होजाती थीं। रुक्ख रुक्खंमि कप्पयरु सियभासिरी, परकीया ऊढा नायिकाओंके विरहका कविने प्रसङ्गवश रइवराणत्त अवयएण माहवसिरी ॥४-१६॥ वर्णन किया है जिसमें ऊहात्मकता भी पर्याप्त मात्रामें उद्दीपन सामग्रीके रूपमें उद्यान और वसन्तका मिलती है । शृङ्गारवर्णनके इस प्रसङ्गकी कुछ पंक्तियाँ वर्णन कविने बड़ी सफलता पूर्वक किया है । उपवनमें इस प्रकार उद्धृत की जासकती हैं: क्रीड़ा करनेके पश्चात् सभी मिथुन सुरति खेदका काहिवि विरहाणल संपलित्त । अनुभव करते हैं और उसे दूर करनेके लिये जलक्रीड़ा अंसुजलोह कवोलरिणत्तु ।। के लिये सब सरोवरमें जाते हैं। जलक्रीड़ाके पश्चात् पल्लट्टइ हत्थु करंतु सुण्णु । सब निकलकर वस्त्रादि धारण करते हैं और निवासोंकी दंतिमु चूडुल्लउ चुराण चुराणु । ओर जाते हैं। शृंगारके समस्त उपकरणोंसे पूर्ण इस काहिनि हरियंदण रसु रमेइ । चित्रके साथ जम्बूका शौर्य कविने संग्रामशूर नामक लग्गंत अंगि छमछम छमेइ ॥४-११॥ श्रेणिक राजाके भयङ्कर पट्टहस्तीको उनके द्वारा इस कलात्मक परम्पराका निर्वाह करके कविने पराजित चित्रित करके दिखाया है। इस स समुद्रदत्त नामक उसी नगरमें रहने वाले श्रेष्ठिकी श्रृंगारका सुन्दर और बहुत कुछ पूर्ण चित्र कविने पद्मश्री, कनकश्री, विनयश्री और रूपश्री नामक चार प्रस्तुत किया है। कन्याओंका शिखनख वर्णन प्रस्तुत किया है। वर्णनके पाँचवीं सन्धिसे शृंगारमूलक वीररसका प्रारम्भ अन्तमें कवि कहता है कि किसी अन्य प्रजापतिने इन होता है। केरल राजाकी पुत्री विलासवतीको रत्रशेखर कुमारियोंका निर्माण किया है: विद्याधरसे बचानेके लिये जम्बू अकेले ही उससे युद्ध जाणमि एक्कु जे विहि घडइ सयलु विजगु सामण्णु । करने जाते हैं। उनमें वीरके स्थायीभाव 'उत्साहका जि पुणु आयउ णिम्मविउ कोवि पयावइ अण्णु ॥४-१४ अच्छा उद्रेक चित्रित किया है, पीछे श्रेणिकराजकी ___ जम्बू जैसे अतीव रूपवान् वरके अनुरूप इन सेना भी बड़े उत्साह से सजधजके साथ चलती है। अनुपम रूपवती कुमारियोंका जम्बूसे विवाह होजाता असाधारण धैर्य के साथ जम्बू रत्नंशेखरके साथ युद्ध है। बड़े कौशलसे कविने नायक-नायिकओंको समान करनेको प्रस्तुत होते हैं । युद्ध करते समय सैनिकोंके रूपसे युक्त चित्रित किया है। जीवनके ऐसे चित्रमय हृदयमें स्वामिभक्तिकी द्योतत वीरोक्तियाँ कहते हैं और 'सुन्दर अवसरक अनुकूल कविने कामल पदावलीका अनेक उदात्त भावनाओंका उदय होता है। सैनिकोंकी प्रयोग करते हुए वसन्तका वर्णन किया है। अपभ्रंशमें रमणियाँ भी सैनिकोंको युद्ध में जानेकी प्रेरणा देती हुई For Personal & Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२] अनेकान्त [वर्ष ६ दिखती हैं। भयङ्कर युद्ध होता है और परिणामस्वरूप यद्यपि सब लोग उन्हें ऐसा न करनेको समझाते हैं। वीभत्स चित्रणकी भी ओर संक्षेपमें कविने ध्यान विवाहके प्रसङ्गमें कविने वैराग्यकी स्थितिको छोड़कर दिया है। विद्याधर विद्या-बलसे माया-युद्ध करता है। सुन्दर विवाहका वर्णन प्रस्तुत किया है, विवाहके कभी झंझावात चलने लगती है, कभी प्रलयजल 'दाइजे', तथा भोजनके सरल वर्णन किए हैं, जम्बू बरसने लगता है। अद्भुत रस यहाँ वीरको सहायता नववधुओंके साथ वासगृहमें जाते हैं। इस प्रसङ्गमें करता दिखता है। विद्याधरने राजा मृगाङ्कको बाँध कविने महिलाओंके हाव-भावों (चेष्टाओं)का अच्छा लिया, जम्बूने युद्ध करते हुए राजाको छुड़ा लिया और चित्रण किया है। जम्बूका मन इन सब व्यापारोंमें पराजित करके उसे भगा दिया । जम्बूकी विजयपर में नहीं रमता, उसकी पत्नियाँ अनेक कथाएँ कहती हैं नारद आनन्दसे नाचने लगते हैं, सर्वत्र आनन्द होने किन्तु वह दृढ़ रहता है। विद्युञ्चर भी जम्बूके हृदयमें लगता है। विद्याधर गगनगति प्रकट होकर मृगाङ्क. संसारके प्रति आसक्ति उत्पन्न कराने में असफल राजसे जम्बूकुमारका परिचय देता है । वीररसके इस होता है। कथाकी समाप्ति वैराग्यमें होती है । संसारके विस्तृत प्रसंगके पश्चात् ही कवि शृङ्गारकी भूमिका मायामोहसे विरक्त होकर जम्बू. उनकी पत्नियाँ, प्रारम्भ कर देता है। - विद्युञ्चर सभी तपस्या करते हैं और सद्गति प्राप्त ___ मृगाङ्क राजा जम्बूको केरल नगरी दिखाते हैं। करते हैं। कृतिमें कविने वीररस. शृङ्गार और शान्ति नगरकी रमणियाँ जम्बूको देखकर कहने लगती हैं रसके सफल चित्र प्रस्तुत किए हैं। कि विलासवती धन्य है जिसके हाथमें श्रेणिकराजका चरित्र चित्रणमें भी कवि पूर्ण सफल हुआ है। समस्त राज-वैभव रहेगा। जम्बू और बिलासवतीका पूर्वजन्मोंसे ही जम्बूकी प्रवृत्ति कर्त्तव्यमें दृढ़ और परिणय होता है । जम्बू मगध पहुँचते हैं और यहींसे धार्मिक है, जम्बू अत्यन्त साहसी. वीर हैं, उनकी शृङ्गार और वैराग्य (संसारमें अनुरक्ति-प्रवृत्ति तथा चारित्रिक दृढ़ताको बड़े ही सफल ढङ्गसे कविने निवृत्ति) का प्रसङ्ग प्रारम्भ होता है। आठवीं सन्धिसे व्यक्त किया है-तरुणियोंके पास रहते हुए भी वह यह प्रसङ्ग प्रारम्भ होता है । मुनिसे अपने पूर्व भवोंकी उनमें विरक्तिभाव रखता हैकथा सुनकर जम्बूके हृदयमें वैराग्य-भावनाका उदय पासडिओवि तरुणी गियरु , होता है। दीक्षा देनेके पूर्व गणधर जम्यूसे माता-पिता मएणइ इवहि पुजिउव्व कयरु ॥३-६॥ की आज्ञा लेनेको कहते हैं: अनेक प्रकारकी उक्तियोंका उसपर कोई प्रभाव इय सोऊण मलहरो वोलइ वयणं गणहरो। नहीं पड़तातावञ्चसु सुहणिहेलणं, पुच्छसु पिय माया जणं ॥८-१॥ गउ अद्धरत्त वोलतहो तो, वि कुमारुण भवे रमइ ॥६-११ जम्बूकी माता पुत्रकी वैराग्य-भावनाको देखकर साहसकी परीक्षाके दो प्रसङ्ग मिलते हैं-उन्मक्त मूर्छित होजाती है। कुमारकी वैराग्य-भावनासे सभी हाथीको वह परास्त कर देता है (संधि ४) और अकेला . कुटुम्बी दुखी दिखते हैं किन्तु जम्बूका मन दृढ़ था:- ही विद्याधर रत्नशेखर और उसकी सेनापर विजय पिउ मायरिबंधवजेणहिं दुक्खिय , कर लेता है। उसका व्यक्तित्व प्रभावशाली है इसी मणहिं बुज्झाविउ कहव न बुज्झइ । लिए विद्युच्चर भी उसका अनुसरण करता है। इन सञ्चउ अज्जु जे तव चरणु वइ- सब गुणोंके साथ समें महज्जनोचित शिष्टाचाराके रायमणु लिंटउ कुमारु किमरुज्झइ ॥-८॥ भी दर्शन होते हैं । माताकी आज्ञाका वह पालन जम्बूकी निवरपूर्ण मनस्थितिको देखकर भी करता है। विद्यञ्चरका परिचय उसकी माता अपने पद्मश्री आदि चार कन्यायें उनसे परिणय करती हैं। भाईके रूपमें कराती है-वह देखते ही खड़ा होजाता For Personal & Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १० ] अपभ्रंशका एक शृङ्गार-वीर काब्य [ ४०३ है, प्रणाम करता है और कुशल पूछता है:- विकरालताका स्पष्टस्वरूप सामने प्राजाता है:तं नियविकुमार समुट्ठियउ. , उद्दड - सुडकय - सलिलविद्धि , दरपणमिय सिरु समहिद्वियउ । पयभार कडकिय . कुम्मपिट्टि । अण्णोरणालिंगण रसभरिया , दुद्धर-रिउ वलहरु णं सव जल्लहरूविहि पीढहिं वेरणेवि वइसरिया । गरुय गजिर - ख - भरियदर । पुच्छिज्जइ कुसलु पंथ समिउ , जण-मारण-सीलउ वइवसलीलउन बहुदिवस माम कहि कहि भमिउ ॥६-१८|| '. सो संपत्तउ तेत्थु करि ॥४-२०॥ जम्बूका चरित्र सब प्रकारसे एक धर्ममें दृढ़ इसी प्रकार थोड़ेसे शब्दोंमें विद्युञ्चरका चित्रण । आदर्श योद्धा, उदात्तचरित्र व्यक्ति, विरक्त त्यागी किया है:महापुरुषका है। अन्य पात्रोंके चरित्रमें सम्यक विकास पयडिय किराउ मयवेसपडु, आजाणु लंब परिहाण पडु। नहीं मिलता और न वह आवश्यक ही था। विद्यञ्चरके वंकुडिय कच्छकयढिल्ल कडि, करणंत लुलाविय केसलडि । दर्शन एक सब प्रकारसे भले किन्तु चोरके रूपमें होते पुट्ठीनिहित्त कयबंद्ध भरु, उग्गंठिय. वि सरिस कुचधरु । हैं-अन्तमें वह भी तपस्वी हो जाता है। महिलाओं- आउत्तमंग पंगुरियतणु. सिढिलाह रोहदंतरु वयणु । के चरित्रोंमें जम्बूकी पत्नियों और उसकी माताके डोल्लंत बाहुलय ललिय-करु, वासहरि पयट्टउ विज्जुच्चरु । चित्र मिलते हैं। उनमें स्वाभाविक कोमलता और ॥९-१८॥ सरता है। वे सब अन्तमें आर्यिकाएँ होजाती हैं। अलङ्कारों के प्रयोग कविने दो प्रकारके किये हैं, प्रायः ऐसी धारणा है कि जैनसाहित्यमें स्त्रियोंकी एक चमत्कार प्रदर्शनके लिये और दूसरे स्वाभाविक निन्दा की गई है. वह ग़लत है। इन कृतियोंमें प्रयोग । प्रथम प्रकारके प्रयोगके उदाहरणरूपमें श्रादर्शके चित्र मिलते हैं। नारीके प्रति घृणाका भाव विध्याटवी वर्णनसे निम्न पंक्तियाँ उद्धृत की जासकती नहीं मिलता, मूल दुष्प्रवृत्तिका कहीं-कहीं उन्हें कारण हैं जिनमें कोई रस नहीं है:मानकर उनकी भर्त्सना अवश्य की गई है.यथा जब भारह - रण - भूमिव स-रहभीए , जम्बूकी पत्रियाँ हाव-भाव दिखाकर उसे आसक्त हरि अज्जुण राउल सिहंडि दीए । करना चाहती है तब वह कहता है: गुरु आसत्स्थाम कलिंगवार , हा हा महिला-मोह पिबद्ध , गयगज्जिर ससर महीस सार । . . मयण-काल-सप्पहिं जगु खद्धउ । .. • लंकाणयरी व स-रावणीय , वुच्चइ अहरु अमिय महु वासउ , चंदणहिं चार कलहावसीय । - अवरु जो गाउ ठविउ वयणासउ ॥६-१॥ सपलास सकंचण अक्खघट्ट , - वर्णनः-अन्य अपभ्रंश जैन काव्योंके समान । सविहीसण कइकुल फलरसट्ट ।।५-८॥ प्रस्तुत कृतिमें भी अनेक समृद्ध वर्णन मिलते हैं। उपर्युक्त पंक्तियोंमें श्लेषके प्रयोगसे दो अर्थ नगर, प्राम, अरण्य, ऋतु सूर्योदय, सूर्यास्त, नख- निकलते हैं, स-रह (रथ सहित और एक भयानक शिख, सेना · युद्ध आदिके सरल और कहीं-कहीं जन्तु, हरि-कृष्ण और सिंह, अर्जुन और वृक्ष, अलंकृत वर्णन कविने प्रस्तुत किये हैं। बड़े-बड़े नहुल और नकुल जीव; शिखडि और. मयूर आदि)। वर्णनोंके अतिरिक्त छोटे छोटे चित्र भी कविने सफलता इस कवि-चमत्कारके अतिरिक्त सरसता वर्द्धक । पूर्वक चित्रित किए हैं:-श्रोणिकराजके उन्मत्त हाथी प्रयोग भी कविने किये हैं। यद्यपि वे हैं इसी प्रकारके; के चित्रणसे कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार हैं; उसकी माला यमकका एक उदाहरण इस प्रकार है: For Personal & Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ ] तउय संजायं महादंड जुज्यं, जुज्यंतपत्ति कौतग्गखग्गिं । वावल्ल भल्ल सवल्ल, मुसु' ढिग णीहम्ममाण अणोरणं । अणोरणदंसणारुणिट्ठवियमिट्ठ - तमत्तमायंगं । निलं मायंगदंत संघट्ट णिहसतहुय बहुफुलिंग पिंगलिय सुरवइविमागं ॥ सुरवहूविमाण संछण्णगयरण ।। ७-६ ।। acer विभावना और यमकके एक साथ प्रयोग निम्न पंक्तियोंमें पढ़ सकते हैं : : अनेकान्त ,, 9 " दिशि-दिणि रयणिमाणु जहं खिज्जइ, दूरपियाण णिद्दतिह खिज्जइ । दिवि - दिवि दिवस पहरु जिह वट्टइ कामुयाण तिह रह-रसु वट्टइ । दिवि - दिवि जिह चूयउ मउरिज्जइ माणिणीमाणहो तिहमउरि (व )ज्जइ । सलिलु शिवाराहिं जिह परि हिज्जइ सिंह भूमि हिं परि हिज्जइ । मालइ कुसमु भमरु जिह वज्जइ, घरे घरे गहेरु तूरु तहिं बजइ ||३-१२|| सादृश्य-मूलक अलङ्कारोंके प्रयोग कविने बड़े स्वाभाविक ढङ्गसे किये हैं । इस प्रकार के प्रसङ्गोंमें कविने बड़ी सरल कल्पनाके कहीं-कहीं प्रयोग किये हैं —एक-दो उदाहरण इस प्रकार हैं । सूर्यास्त के समय सूर्यका वर्णन कविने निम्न पंक्तियोंमें किया है: परिपक्कउ णहरुमवहो विडिउ । फga दिवायर मंडलु विहडिउ ॥ 1 रत'वर जुबलउ सेविणु । कुंकुम पंके पियले करेविणु ॥ खंशु अच्छेवि दुक्ख संभल्लिउ । श्रप्पउ घोरसमुद्द वल्लिउ ॥ ॥ ८-१३ ॥ और भी इसी प्रसङ्गमें कुछ पंक्तियाँ हैं; चन्द्रोदय का वर्णन है : - भमिए तमंघयार वर यच्छिए। दिएउ दीवउ णं गहलच्छिए जोण्हारसेण भुऋणु किउ सुद्धउ | खीर महराणवम्मि णं बुद्धउ किं गयाउ मियलव विहडहिं । किं कप्पूर पूर करण विहिं ॥८- १४ || भ्रान्ति दो-एक उदाहरण इस प्रकार हैं : : [ वर्ष जालगवक्खय पसरिय लालउ । गोरस मंतिए लिए विडालउ ॥८- १४ || 'गवाक्षजालमेंसे प्रकाश आरहा था, उसे गोरसभ्रान्तिसे विडाल चाट रहा था।' गेरहइ समरिपडिउ वेरीहलु | मण्णेविणु करि सिर मुताह ॥८- १४ || 'शबरी पड़े हुए बेर फलको शिरका मुक्ताफल समझकर ग्रहण करती है ।' इस प्रकार अनेक अलङ्कारोंके सुन्दर प्रयोग कृति में हुए हैं, जिनसे सौन्दर्य वृद्धि हुई है। सुभाषित और लोकोक्तियाँ भी व्यवहृत हुई हैं। इसके अतिरिक्त कृतिमें आदिसे अन्त तक जम्बूकी वैराग्य-भावनासे पर्ण धार्मिक वातावरण कापालिक, जोगी, सिद्धों आदि कई स्थलोंपर उल्लेख मिलते हैं जो तत्कालीन धार्मिक, सामाजिक परिस्थितिपर प्रकाश डाल सकते हैं । कृतिमें अपभ्रंशके प्रिय और प्रचलित छन्दोंके प्रयोग हुए हैं- जैसे घत्ता, प्रज्झटिका प्रमुख हैं किन्तु उनके अतिरिक्त स्रग्विणी, भुजङ्गप्रयात, द्विपदी, दंडक, दोहाके प्रयोग किए हैं अन्त्यनुप्रास (यम) का सर्व छन्दोंमें प्रयोग किया है और कहीं-कहीं अन्तर्यमा भी प्रयोग मिलता है । प्रतियोंका ठीक अध्ययन करने पर छन्दोंका सम्यक् अध्ययन किया जा सकता है। लय, सङ्गीत प्रसङ्गके अनुकूल बदलनेकी अपूर्व क्षमता वीरकी इस कृति में मिलती है। 1 कृतिक भाषा अन्य जैन अपभ्रंश चरित काव्योंके समान ही सौरसेनी अपभ्रंश है । स्वयम्भू और पुष्पदन्तको वर्णनशैलीका अनेक स्थलोंपर प्रभाव लक्षित होता है। कुछ गाथा प्राकृतमें भी मिलते हैं । प्रस्तुत कृति परम्परागत प्राप्त वैराग्यपूर्ण जम्बूके चरित्रको काव्यात्मक ढङ्गसे प्रस्तुत करनेका एक अभिनव प्रयास है । कवि बहुत दूर तक उसे महाकाव्यका रूप देने में सफल हुआ है। रस, अलङ्कार वर्णन वीरोदात्त नायक आदि अनेक महाकाव्य की विशेषताएँ कृतिमें मिलती है । क्या ही अच्छा हो यदि यह कृति शीघ्र प्रकाशमें आ सके । For Personal & Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री १०५ क्षुल्लक गणेशप्रसादजी वर्णी JEE Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाज-सेवकों के पत्र - जैनधर्म भूषण व्र० शीतलप्रसादजीके पत्र [ गतासे आगे ] (२२) लखनऊ २३-१-२७ डा० हर्मन जैकवीको महापुराण प्राकृत पुष्पदन्त कृत चाहिये सो यह लिखित देहली व जैपुरके भण्डारों . में है । आप एक प्रति स्वाध्यायके लिये तुर्त भिजवा देवें जो शुद्ध होवे, अपभ्रंश भाषाके अभ्यासी हैं । भूलें नहीं। उनसे पहले पत्र व्यवहार करें। (२३) वर्धा १६-१ पत्र पाया देहली में प्रो० ग्लैसीनैपका व्याख्यानं व स्वागत कैसा हुआ। भाई चम्पतरायजीके साथ वे कुछ दिन घूमें तो ठीक हो। आपकी जयन्तीमें हमारा आना शायद ठीक न होगा। लोग घृणा करेंगे, वस fear भले प्रकार विचार किये मुझे न बुलाना । परिषदका जलसा कहीं करावें । (२४) लखनऊ २६-११ पत्र ता० २३-११ पाया । १ - पुस्तक कामताप्रसादको भेजी है २- जीवकांड छप चुका, कर्मकांड चालू है। ३ - अभी १ मास से अधिक ठहरना होगा ४ - अजितप्रसादजीको आप स्वयं लिखें, मेरे कहने से आएँगे ५- आप पुस्तकका प्रचार कर रहे हैं धन्यवाद है खूब जैनोंको बाँटनेका उद्यम करें। ६- तत्वार्थसूत्रका अनुवाद जुगमन्दरदास कृत आपने देखा होगा उसीको चम्पतरायजी करवाया ७- यहाँ से मेरे पास Leensus of India 1921 नहीं है आप नकल भिजवा दें तो हम मित्रमें छाप दें । मदरास स्मारक तैयार है ५००) लगेंगे कोई दानी हो तो लिखें। सबसे धर्मस्नेह कहें पं० फतहचन्द, महबूबसिंह, उमरावसिंह श्रादिसे (२५) ४-१-२७ १ - ट्रैकोंकी प्राप्ति छपने भेज दी है। २- लेख मैं जनवरीके अन्त तक भेजनेकी चेष्टा करूँगा ३- केवल चम्पतरायजीको कोई अच्छा पद देना चाहिये यह नाम पसन्द नहीं है ४ - आपने अंग्रेजी पत्र बहुत अच्छा छपवाया है। ५- आप हिन्दी साहित्यज्ञाताके नाम महेन्द्रकुमार सम्पादक 'वीर सन्देश' मोती कंदरा आगरा जैन मन्दिरसे जाने ६ - पंडित गिरिधर शर्मा झालरापाटन हिन्दीके अच्छे विद्वान हैं। डा० गङ्गानाथका अलाहा बादको भी सन्देशके लिए लिखें। जो नाम आपने दिये हैं उनको बुला सकते हैं । जुगमन्दरलाल वारिस्टरका पग अब अच्छा है उनको बुलाया सभापति बनाने की चेष्टा करें | आप उत्साहसे काम करते रहें। सच्चे भावसे करें, नाम न चाहें, प्रचार चाहें, यश स्वयं होगा । लखनऊ परिषद् में आप मित्र मण्डली सहित जरूर पधारें व उत्साह बढ़ावें, बाबू उमरावसिंह, जौहरीमल आदिको लावें । मेरा धर्मस्नेह सबसे कहें । (२६) लखनऊ १६-१-२७ १- आप सत्यभावसे उद्योग करें सफलता होगी । पद चम्पतरायजीको 'जैन सिद्धान्तरत्न' देना ठीक होगा । अपनी कमेटी में पास करा लेवें ड्राफ्ट फिर भेज देंगे । २- सभापति मोतीसागरको १ दिन करें व १ दिन For Personal & Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १० ] समाज-सेवकों के पत्र [ ४०७ जाकर ४ बजे फरीदकोट पहुँचूँ। वहाँ भाषण देकर ता० १४की रातको चलकर १५को सबेरे देहली आजाऊँ । वहाँसे १५की रातको अवश्य बनारस जाना होगा । ता० १७को वार्षिकोत्सव है । वहाँ जाना बहुत के लिये आप प्रकाशक जरूरी है उससे धर्मकी जागृति होगी। पं० दरबारीलालके लिए सेठ ताराचन्दको बराबर लिखते रहें । काशी ४-७-२७ लखनऊ में हमको एक जैनधर्मके ज्ञाता अजैन विद्वान्से भेंट हुई इनका पता यह है । आगामी जयन्तीपर इनसे भी लेख मँगाइये । पुस्तकों व ट्रैकों का प्रचार करनेको पत्रोंमें नोटिस आदि निकालने चाहिये । भाई चम्पतरायजीसे कोई धार्मिक सेवा लेनी योग्य है । to प्राणनाथ डी. एस. सी. ( लन्दन) पी. एच. डी. ( वायना) विद्यालङ्कार, एम. आर. ए. एस. C/o इलाहाबाद बैङ्क, बनारस वर्धा १६-३-२८ १- लेख भेज चुका हूँ पहुँच दें व सदुपयोग करें सूरत में ही छपन्नावें । (३०) २- काङ्गड़ीमें सार्वधर्म सम्मेलनमें मैं भाषण दे सकता हूँ। एक तो विषय मालूम हो व समय नियत होजावे । आप मण्डल की ओर से भिजवादें व उनका स्वीकारता पत्र मुझे भेज दें तो मैं तैयारी करूँ। वहाँ ठहरने आदिका प्रबन्ध योग्य होना उचित होगा । प्रोफेसर हीरालालको करें, वे छपा हुआ व्याख्यान ऐतिहासिक अच्छा देंगे या जे. एल. है। मोटो आप तज करें। राय लेव । जैनमित्रके खास कापडियाजीसे पत्र व्यवहार करें । जिनेन्द्रमतदर्पण २ प्रति व हिन्दीके दो ट्रैक और (२६) जिनसे जैनधर्मका ज्ञान हो वी० पी० से . सिंघई कमलापत भगवानदास जैन वारासिवनी, जि० बालाघाट सी. पी., शीघ्र भेज दें। (२७) . लखनऊ २६-१-२७ 1 आपकी इच्छानुसार सनातनजैनमत पुस्तक लिखकर बड़े परिश्रमसे आज रजिस्ट्रोसे भेजी है। यह बड़ी उपयोगी पुस्तक है। जल्से में जितने पढ़े-लिखे जैन, अजैन वें सबको बाँटने लायक है सो आप २००० छपवालें, मूल्य भी रखें। अपनी कमेटी के मेम्बरोंको जमाकर सुना दें कोई बात बदलनेकी कहें तो मुझे पत्र द्वारा लिखें, कापीमें न बदलें जैसी मैंने लिखी है वैसी ही छापें, सूरतवाले जल्दी छाप सकेंगे वे मेरे अक्षर पहचानते हैं वहीं अच्छे कागज, टाईपमें छपवावें । मैंने सूरतको लिख दिया है । नत्थनलालजी व शम्भूदयालजीको जरूर बिठा लेना । पुस्तकं सुना कर राय मेरेको लिखना, जिनेन्द्रमतदर्पण ५ प्रति अन्य कुछ हिन्दी-उर्दू के ट्रैक परिषद् में बाँटने को भेज देवे । आप भी मित्रों सहित पधारें अवश्य, यहाँ प्रचार भी कुछ होगा फिर वहाँ से गयाजी चले जावें । - मेरा लेख सनातन जैनमतपर १ || घण्टा होगा | यह प्रोग्राम में रखना, समय रातका रखना, पहले या मध्य में रखना मैं यथाशक्ति की कोशिश करूँगा । आप उत्साहसे काम करें। सर्व भाइयोंसे धर्मस्नेह कहें। (२८) १६-३-२७ आपका जलसा ता० १३. १४, १५को है ठीक लिखें। फरीदकोट वाले जोर दे रहें हैं। मैं ऐसा चाहता हूँ कि ता १३ की रातको देहलीसे जाऊँ या अगर || रातकी गाड़ी में न जा सकूँ तो सबेरे ५ बजे ३ - दक्षिण में पूनाके एक मराठी विद्वानने जैनधर्म धारण किया है वह भाषण भी दे सकता है उसका नाम जैन मित्र इस वर्ष में है. उसका एक लेख छपा है मैं जैनी क्यों हुआ। आप फाइल में देख लेवे वह सकता है उसके लिए आप प्रोफेसर ए. वी लट्टे दीवान कोल्हापुरको व संपादक प्रगति आणिजिन विजय साङ्गलीकेटको लिखें । जीवदया सभा आगरा में दयाके संपादक ब्राह्मण थे विद्वान हैं जैनधर्म धारण किया है वह भी कुछ कह सकेंगे । (क्रमशः) For Personal & Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरसेवामन्दिर सरसावाके प्रकाशन १ अनित्य - भावना - ० पद्मनन्दिकृत भावपूर्ण और हृदय - ग्राही महत्वकी कृति, साहित्य - तपस्वी पंडित जुगल किशोरजी मुख्तारके हिन्दी -पद्यानुवाद और भावार्थ सहित | मूल्य ।) २ आचार्य प्रभाचन्द्रका तत्त्वार्थसूत्र सरल - संक्षिप्त नया सूत्र- ग्रन्थ, पं० जुगलकिशोरजी मुख्तारकी सुबोध हिन्दी- व्याख्या - सहित । मूल्य ।) ३ न्याय-दीपिका ( महत्वका नया संस्करण ) - अभिनव धर्मभूषण - यति रचित न्याय - विषयकी सुबोध प्राथमिक रचना | न्यायाचार्य पं० दरबारीलाल कोठिया द्वारा सम्पादित, हिन्दी अनुवाद, विस्तृत (२०१ पृष्ठकी ) प्रस्तावना, प्राक्कथन, परिशिष्टादिसे विशिष्ट ४०० पृष्ठ प्रमाण, लागत मूल्य ५) । इसकी थोड़ी ही प्रतियाँ शेष रही हैं। विद्वानों और छात्रोंने इस संस्करणको खूब पसन्द किया है । शीघ्रता करें। फिर न मिलने पर पछताना पड़ेगा । ४ सत्साधु - स्मरणमङ्गलपाठ अभूतपूर्व सुन्दर और विशिष्ट सङ्कलन, सङ्कलयिता पंडित जुगल किशोरजी मुख्तार । भगवान महावीर से लेकर जिनसेनाचार्य पर्यन्त के २१ महान् जैनाचार्योंके प्रभावक गुणस्मरणों युक्त । मूल्य ॥) ५ अध्यात्म-कमल-मार्त्तण्ड पञ्चाध्यायी तथा लाटीसंहिता आदि ग्रन्थों के रचयिता पंडित राजमल्ल - विरचित अपूर्व आध्यात्मिक कृति, न्यायाचार्य पं० दरबारीलाल कोठिया और पं० परमानन्दजी शास्त्रीके सरल हिन्दी अनुवादादि सहित तथा मुख्तार पण्डित जुगल किशोरजी द्वारा लिखित विस्तृत प्रस्तावना से विशिष्ट । मूल्य १ | | ) ६ उमास्वामिश्रावकाचार-परीक्षा — मुख्तार श्रीजुगल किशोरजी - द्वारा लिखित ग्रन्थ- परीक्षाओं का इतिहास - सहित प्रथम अंश । मूल्य चार आने । ७ विवाह - समुद्देश्य - प० जुगलकिशोरजी मुख्तार - द्वारा रचित विवाह के रहस्यको बतलानेवाली और विवाहों के अवसरपर वितरण करने योग्य सुन्दर कृति | | ) वीर सेवामन्दिर में सभी साहित्य प्रचारकी दृष्टिसे तैयार किया जाता है, व्यवसायके लिये नहीं । इसीलिये काग़ज़ छपाई आदिके दाम बढ़ जानेपर भी पुस्तकोंका मूल्य वही पुराना (सन् १६४३ का ) रखा है। इतनेपर भी १०) से अधिककी पुस्तकोंपर उचित कमीशन दिया जाता है। प्रकाशन विभाग – वीरसेवामन्दिर, सरसावा (सहारनपुर ) For Personal & Private Use Only D Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय ज्ञानपीठ काशीके प्रकाशन ७. मुक्ति- दूत -अञ्जना - पवनञ्जय महाबंध - (महधवल सिद्धान्तशास्त्र) प्रथम भाग | हिन्दी टोका सहित मूल्य १२) । २. करलक्खण — (सामुद्रिक शास्त्र) हिन्दी अनुवाद सहित | हस्तरेखा विज्ञानका नवीन ग्रन्थ | सम्पादक-- प्रो० प्रफुल्लचन्द्र मोदी एम० ए०, अमरावती । मूल्य १) । का पुण्यचरित्र (पौराणिक रोमाँस) मू० ४ || ८. दो हजार वर्षकी पुरानी कहानियां- —– (६४ जैन कहानियाँ) व्याख्यान तथा प्रवचनोंमें उदाहरण देने योग्य । मूल्य ३) । ९. पथ चिह्न – ( हिन्दी-साहित्यकी अनुपम पुस्तक) स्मृति रेखाएँ और निबन्ध | मूल्य २) । ३. मदनपराजय — कवि नागदेव विरचित (मूल संस्कृत) भाषानुवाद तथा विस्तृत प्रस्तावना सहित । जिनदेवके कामके पराजयका सरस रूपक | सम्पादक और अनुवादक - पं० राजकुमारजी सा० । मू०८) १०. पाश्चात्यतर्क शास्त्र – (पहला भाग ) एक० ए० के लॉजिकके पाठ्यक्रमकी पुस्तक | लेखक - भिक्षु जगदीशजी काश्यप, एफ० ए०, पालि अध्यापक, हिन्दू विश्वविद्यालय, काशी । पृष्ठ ३८४ । मूल्य ४|| | ४. जैनशासन - जैनधर्मका परि तथा विवेचन करने वाली सुन्दर रचना | हिन्दू विश्वविद्यालयके जैन रिलीजन के एफ० ११. कुन्दकुन्दाचार्य के तीन रत्नमूल्य २) । ए० पाठ्यक्रम में निर्धारित । मुखपृष्ठपर महावीर स्वामीका तिरङ्गा चित्र | मूल्य ४ | - J ५. हिंदी जैन - साहित्यका संक्षिप्त इतिहास - हिन्दी जैन - साहित्यका इतिहास तथा परिचय | मूल्य २||| | १२. कन्नडप्रान्तीय ताडपत्र ग्रन्थसूची - (हिन्दी) मूडबिद्रीके जैनमठ, जैनभवन, सिद्धान्तवसदि तथा अन्य ग्रन्थभण्डार कारकल और अलिपूरके अलभ्य ताडपत्रीय ग्रन्थोंके सविवरण परिचय | प्रत्येक मन्दिर में तथा शास्त्र भण्डार में विराजमान करने योग्य । मूल्य १३) । ६. आधुनिक जैन- कवि - वर्तमान कवियोंका कलात्मक परिचय और सुन्दर रचनाएँ | मूल्य ३||| | वीरसेवामन्दिरके सब प्रकाशन भी यहाँपर मिलते हैं प्रचारार्थ पुस्तक मँगाने वालोंको विशेष सुविधाएँ भारतीय ज्ञानपीठ काशी, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस । For Personal & Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Regd. No..A-731 Paானாருகாவன. शेर-ओ-शायरी NareneueSurer See யோடு இய [उर्दू के सर्वोत्तम 1500 शेर और 160 नज़्म] प्राचीन और वर्तमान कवियोंमें सर्वप्रधान लोक-प्रिय 31 कलाकारोंके मर्मस्पर्शी पद्योंका सङ्कलन और उर्दू-कविताकी गति-विधिका आलोचनात्मक परिचय प्रस्तावना-लेखक हिन्दी-साहित्य-सम्मेलनके सभापति महापंडित राहुल सांकृत्यायन लिखते हैं 'शेरोशायरी"के छ सौ पृष्ठोंमें गोयलीयजीने उर्दू - कविताके विकास और उसके चोटीके कवियोंका काव्य-परिचय दिया / यह एक कवि-हृदय, साहित्य-पारखीके आधे जीवनके परिश्रम और साधनाका फल है। हिन्दीको ऐसे ग्रन्थोंकी कितनी आवश्यकता है, इसे कहनेकी आवश्यकता नहीं / उर्दू-कवितासे प्रथम परिचय प्राप्त करनेवालोंके लिये इन बातोंका जानना अत्यावश्यक है। गोयलीयजी जैसे उर्दू-कविताके मर्मज्ञका ही यह काम था, जो कि इतने संक्षेपमें उन्होंने उर्दू 'छन्द और कविता"का चतुर्मुखीन परिचय कराया / गोयलीयजीके संग्रहकी पंक्ति-पंक्तिसे उनकी अन्तर्दृष्टि और गम्भीर अध्ययनका परिचय मिलता है / मैं तो समझता हूँ इस विषयपर ऐसा ग्रन्थ वही लिख सकते थे।" कर्मयोगीके सम्पादक श्रीसहगल लिखते हैं __वर्षोंकी छानबीनके बाद जो दुर्लभ सामग्री श्रीगोयलीयजी भेंट कर रहे हैं इसका जवाब हिन्दी-संसारमें चिराग़ लेकर ढूँढनेसे भी न मिलेगा, यह हमारा दावा है।" सुरुचिपूर्ण मुद्रण, मनमोहक कपड़ेकी जिल्द पृष्ठ संख्या ६४०-मूल्य केवल आठ रुपए @ BIGISSASRRESS r@ASHer@SAAS DreAR भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड, बनारस BaruaaTeeGo प्रकाशक-५० परमानन्द जैन शास्त्री भारतीय खानपीठ काशीके लिये आशाराम खत्री द्वारा रॉयल प्रेस सहारनपुरमें मुद्रित Eucation intamaneral For Pets Payme Only www.jainelibrary.od