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________________ ३९६ ] अनेकान्त [ वर्ष ६ आस्वादन करना चाहता था, किन्तु भवदत्तने फिर और सातवें दिन मनुष्यरूपमें अवतरित होगा । उसे रोक दिया । भवदेव अन्तमें संसारको त्यागकर श्रेणिकराजने वर्धमान जिनसे फिर, विद्युन्माली जिन अन्तिम दीक्षा ले लेता है। दोनों भाई तप करते हुए चार देवियोंके - साथ रमण करता था, उनके पूर्व अवसान-समयमें पंडितमरणसे मरते हैं, दोनों सनत्कु- भवान्तरोंके विषयमें पूछा। जिनवरने बताया कि चंपा मार स्वर्गमें जाते हैं और वहाँ सप्तसागर आयु तक नगरीमें सूरसेन नामक धन-सम्पन्न श्रेष्ठी था, उसकी वास करते हैं, देवयोनिमें रहकर वे विमानोंमें चढ़कर जयभद्रा, सुभद्रा, धारिणी, यशोमती नामक चार रमण करते हैं । (सन्धि २) स्त्रियाँ थीं। वह श्रेष्ठी पूर्वसंचित पापकर्मोके फलस्वरूप भवदत्तका जन्म स्वर्गसे च्युत होनेपर पुंडरीकिनी व्याधिग्रस्त होकर मर गया और उसकी चाराँ पत्नियाँ नगरीमें वदन्त राजाकी रानी यशोधनाके पत्रके रूप आजिकाएँ होगई। तपःसाधन करनेके पश्चात् मरकर में हुआ और भवदेव वीतशोका नगरीके राजा वे स्वर्गमें विद्युन्मालीकी पत्नियाँ हुईं। इसके पश्चात् महापद्मकी रानी वनमालाके पुत्र के रूपमें उत्पन्न हुआ। श्रेणिकराजने विद्युञ्चरके विषयमें पूछा कि इतना भवदत्तका नाम सागरचन्द रक्खा गया और भवदेव तेजवान् होनेपर भी वह चोरत्वको क्यों प्राप्त हुआ ? का शिवकुमार। शिवकुमारका एकसौपाँच (सयपंच) जिनवरने बताया कि मगधदेशमें हस्तिनापुर नगर था, राजकन्याओंसे परिणय होगया और कोड़ियों उनके वहाँ विसन्धर राजा था, उसकी प्रिया श्रीसेना थी, अङ्गरक्षक थे। उन्हें बाहर नहीं जाने दिया जाता था। उसका पुत्र विद्युच्चर हुआ। वह सकल विद्याओंमें उधर पुंडगीकिनी नगरीके समीप उपवनमें चारण पारङ्गत था । विद्याबलसे वह चोरी करता था। मुनियोंसे पूर्व जन्मका वृत्तान्त सुनकर सागरचन्दने औषधिसे खम्भ बनाकर रत्रिको अपने पिताके घरमें संन्यास (साधुदीक्षा) व्रत ले लिया था और द्वादश- पहुंचकर चोरी कर लेता था, जगते हुए राजाको सषप्त विधि तपश्चर्या में रत था। एक बार वह वीतशोका कर देता था और कटि-हार आदि आभूषण उतार नगरीमें पहुँचा । शिवकुमारने प्रासादोंके ऊपरसे लेता था, वह राज्य छोड़कर राजगृह नगरी चला गया मनियोंको देखा। उसे पूर्व जन्मोंका स्मरण हो आया और चोरी करने लगा। इसीसे उसका नाम विद्यच्चर और वैराग्य-भावोंका उसके मनमें उदय हुआ। यह हुआ (सान्ध ३)। देखकर राजप्रासादमें कोलाहल मच गया। राजाने चतुर्थ सन्धि वीरकविकी प्रशंसासे प्रारम्भ होती आकर कुमारको समझाया कि घरमें ही रहकर तप है। वर्धमान जिस समय कथा प्रारम्भ कर रहे थे कि और व्रतोंका पालन हो सकता है, संन्यास लेनेकी एक यक्ष उठकर नाचने लगा। पश्चिम केवली मगधमें आवश्यकता नहीं है। पिताके वचनोंको मानकर अरहदास वणिकके कुलमें जन्म होनेकी बात सुनकर कुमारने नवविध श्रेष्ठ ब्रह्मचर्यव्रत धारण किया, वह आनन्दित होकर नाच रहा था। विस्मित होकर तरुणीजनोंके पास रहते हुए भी उनसे वह विरक्त राजाने आनन्दसे नाचते हुए यक्षसे प्रश्न, किया। रहता था। उपवास करता था। दूसरे घरोसे भिक्षा जिनेन्द्रने इस प्रकार उत्तर दिया-सइत्तउ नगरी थी लेकर पारणा करता था। इस प्रकार तप करके अन्तमें वहाँ सन्तप्रिय (संताप्पिउ) वणिक रहता था। उसकी इस लोकको छोड़कर वह विद्युन्माली देव हुआ। गोत्रवती प्रिया थी । अरहदास उसका पुत्र था, दूसरा दससागर उसकी आयु हुई और चार देवियों के साथ पुत्र जिनदास था। जिनदास तरुण अवस्थामें दुर्व्यसुख भोग करता था। उधर सागरचन्द भी मरकर सनोंमें फंस गया। मदिरा पीता था, द्यूतक्रीड़ामें रत सुरलोकमें इन्द्र के समान देव हुआ। वर्धमान जिनने रहता था । किन्तु उसने अन्तमें श्रावक व्रत लेकर राजाको बताया कि यही विद्युन्माली वहाँ आया था पाप विसजित किए और वह मरकर यक्ष हुआ इसके Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527260
Book TitleAnekant 1948 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages48
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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