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________________ किरण १० ] गाँधीजीकी जैन धर्मको देन [३७३ ही नहीं बल्कि समाज और राष्ट्रघातक सिद्ध हो रहे विजय कैसे पाया जा सकता है ? अनेकान्तवादके थे। गाँधीजीके जीवनमें निवृत्ति और प्रवृत्तिका ऐसा हिमायती क्या गृहस्थ क्या त्यागी सभी फिरकेबन्दी सुमेल जैनसमाजने देखा जैसा गुलाबके फूल और और गच्छ-गणके ऐकान्तिक कदाग्रह और झगड़ेमें सुवासमें। फिर तो मात्र गृहस्थोंकी ही नहीं, बल्कि 'फंसे थे। उन्हें यह पता ही न था कि अनेकान्तका त्यागी अनगारों तककी आँखें खुल गई। उन्हें अब यथार्थ प्रयोग समाज और राष्ट की सब प्रवृत्तियोंमें जैन शास्त्रोंका असली मर्म दिखाई दिया या वे शास्त्रों- कैसे सफलतापूर्वक किया जा सकता है ? गाँधीजी को नये अर्थमें नये सिरेसे देखने लगे। कई त्यागी तख्तेपर आये और कुटुम्ब, समाज, राष्ट्रकी सब अपना भिक्षुवेष रखकर भी या छोड़कर भी निवृत्ति- प्रवृत्तियोंमें अनेकान्तदृष्टिका ऐसा सजीव और प्रवृत्तिके गङ्गा-यमुना संगममें स्नान करने आये और सफल प्रयोग करने लगे कि जिससे आकृष्ट होकर वे अब भिन्न-भिन्न सेवाक्षेत्रामे पड़कर अपना अन- समझदार जैनवर्ग यह अन्तःकरणसे महसस करने गारपना सच्चे अर्थमें साबित कर रहे हैं । जैन गृहस्थ- लगा कि भङ्गजाल और वादविजयमें तो अनेकान्तका की मनोदशामें भी निष्क्रिय निवृत्तिका जो घुन लगा कलेवर ही है। उसकी जान नहीं । जान तो व्यवहारके था वह हटा और अनेक बूढ़े जवान निवृत्ति प्रिय जैन सब क्षेत्रोंमें अनेकान्तदृष्टिका प्रयोग करके विरोधी स्त्री-पुरुष निष्काम प्रवृत्तिका क्षेत्र पसन्द कर अपनी दिखाई देने वाले बलोंका संघर्ष मिटानेमें ही है। निवृत्ति-प्रियताको सफल कर रहे हैं। पहले भिक्षुभिक्षुणियोंके लिये एक ही रास्ता था कि या तो वे वेष म जन परम्पराम विजय सेठ और विजया सेठानी जैन परम्परामें विजय सेठ और विजया सेठानी धारण करनेके बाद निष्क्रिय बनकर दूसरोकी सेवा इस दम्पती युगलके ब्रह्मचर्यकी बात है । जिसमें दोनों लेते रहे, या दूसरोंकी सेवा करना चाहें तो वे वेष का साहचर्य और सहजीवन होते हुए भी शुद्ध ब्रह्मचर्य छोडकर अप्रष्ठित बनकर समाजबाह्य हो जायें। पालनका भाव है । इसी तरह स्थूलिभद्र मुनिके ब्रह्मगाँधीजीके नये जीवनके नये अर्थने निष्प्राणसे त्यागी चर्य की भी कहानी है जिसमें एक मुनिने अपनी पूर्व वर्गमें भी धर्मचेतनाका प्राण स्पन्दन किया। अब उसे परिचित वेश्याके सहवासमें रह कर भी विशुद्ध ब्रह्मन तो जरूरत ही रही भिक्षुवेष फेंक देनेकी और न डर चर्य पालन किया है। अभी तक ऐसी कहानियाँ रहा अप्रतिष्ठितरूपसे समांजबाह्य होनेका । अब लोकोत्तर समझी जाती रहीं। सामान्य जनता यही निष्काम सेवाप्रिय जैन भिक्षुगणके लिए गाँधीजीके समझती रही कि कोई दम्पती या स्त्री-पुरुष साथ रह जीवनने ऐसा विशाल कार्य-प्रदेश चुन दिया है, कर विशुद्ध ब्रह्मचर्य पालन करे तो वह दैवी चमत्कार जिसमें कोई भी त्यागी निर्दम्भ भावसे त्यागका जैसा है। पर गाँधीजीके ब्रह्मचर्यवासने इस अति आस्वाद लेता हुआ समाज और राष्ट्रके लिए आदर्श कठिन और लोकोत्तर समझी जाने वाली बातको बन सकता है। प्रयत्न साध्य पर इतनी लोकगम्य साबित कर दिया __जैनपरम्पराको अपने तत्वज्ञानके अनेकान्त कि आज अनेक दम्पती और स्त्री-पुरुष साथ रह कर सिद्धान्तका बहुत बड़ा गर्व था । वह समझती थी कि विशुद्ध ब्रह्मचर्य पालन करनेका निर्दम्भ प्रयत्न करते ऐसा सिद्धान्त अन्य 'किसी धर्म परम्पराको नसीब हैं। जैन समाजमें भी ऐसे अनेक युगल मौजूद हैं। नहीं है; पर खुद जैन परम्परा उस सिद्धान्तका सर्व अब उन्हें कोई स्थूलिभद्र की कोटिमें नहीं गिनता । लोक हितकारक रूपसे प्रयोग करना तो दूर रहा, हालाँकि उनका ब्रह्मचर्य-पुरुषार्थ वैसा ही है। रात्रिपर अपने हितमें भी उसका प्रयोग करना जानती न भोजनत्याग और उपभोग-परिभोग परिमाण तथा थी। वह जानती थी इतना ही कि उस वादके नाम उपवास, आयंबिल जैसे व्रत-नियम नये युगमें केवल पर भङ्गजाल कैसे किया जा सकता है और विवादमें उपहासकी दृष्टि से देखे जाने लगे थे और श्रद्धालु लोग Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527260
Book TitleAnekant 1948 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages48
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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