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अनेकान्त
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[ वर्ष ६
आधुनिक 'रथयात्रा' उसीका विकसित रूप है । मिलता है. यह ई० पू० का जैनग्रन्थ है । उसमें अशोककी अहिंसा नीतिका उद्देश्य अकारण हिंसा अहिंसाका यह लक्षण किया है। एवं भोंडी क्रूरताको रोकना था प्रायः वह सबके प्रति 'मरदु व जियदु व जीवो अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा । समचर्याका पक्षपाती था, उसके सारे कार्य और नीति पयदस्स पत्थि बंधो हिंसामित्तण समिदस्स ॥' इसी भावनासे अनुप्राणित थे. एक राजाके नाते वह जीव मरे या न मरे, किन्तु जो अयत्नपूर्वक प्रवृत्ति जिस प्रकारकी अहिंसा बिना किसी साम्प्रदायिक करता है वह हिंसक है पर जो प्रयत्नशील है हिंसों
आग्रहके प्रसारित कर सकता था उसमें अशोकने कोई हो जानेपर भी वह निर्दोष है।' कोर-कसर नहीं रखी, कुछ ऐतिहासिकोंने मौर्य आचार्योंने इसीलिये मूर्छा' और 'प्रमाद' को साम्राज्यके पतनमें उसकी 'धर्मविजय' की नीतिको हिंसा कहा है। इसी सिद्धान्नको तत्त्वार्थसूत्रमें इस दोषी ठहराया है, पर जिन्होंने इतिहासका बारीकीसे प्रकार प्रथित किया गया है-'प्रमत्तयोगा-प्राणव्यपरोमनन किया है. उनसे यह बात छिपी नहीं कि अशोक पणं हिंसा'-अर्थ है कि प्रमादके योगसे प्राणोंका की नीतिके कारण ही भारत महत्तर बना और वह वियोजन करना, ये प्राण परके भी हो सकते हैं और अपनी संस्कृति एशिया तथा अन्य राष्ट्रोंमें फैला सका अपने भी। जैन अहिंसाकी मौलिक और दार्शनिक यदि मौर्य साम्राज्यके पतनका कारण अशोककी नीति मीमांसा इससे बढ़ कर दूसरी नहीं हो सकती ? को माना जाय. तो शुङ्ग और गुप्त साम्राज्यके पतनका मनुष्य बुद्धि जो परे है और जबसे उसमें यह चेतना कारण क्या था ? अस्तु ! यहाँ इतिहासकी छानबीन जाग्रत हुई वह किसी भी तत्त्व' को बिना दर्शनके करना हमारा लक्ष्य नहीं है। अशोकके बाद जिन स्वीकार नहीं करता। वेदयुमका क्रियाकांड भले ही लोगोंने अहिंसा और शान्तिकी नीतिको आगे बढ़ाया जिज्ञासा और भयमूलक रहा हो. परन्तु आगे आर्य उनमें सम्प्रतिका नाम सर्वप्रथम लिया जायगा। विचारकोंने सृष्टि, ईश्वर, लोक, परलोक आदि पर सम्प्रतिने जैनधर्मके प्रसारके लिये अनेक जतन किये खूब चिन्तन किया बिना दार्शनिक समाधानके उन्होंने परन्तु यहाँ जैनधर्म या बौद्धधर्मका संकुचित अर्थ नहीं किसी बातको स्वीकार नहीं किया। लेना चाहिये।
मनुष्य 'अहिंसा' को क्यों अपनाए ? हिंसा क्या मौर्य साम्राज्यके पतनके बादसे ई० प्रथम सदी है ? इत्यादि प्रश्नोंका उत्तर खोजनेपर चेतन' 'तत्त्व' तक हम दो विचारोंका साथ-साथ विकास देखते हैं, की अनुभूति हुई; इस चेतन या जीव तत्त्वकी सत्ता पुष्यमित्र शुङ्गने न केवल शुगराज्य स्थापित किया अपितु प्रथक् है यह वह जड़से उत्पन्न है ? वह स्वतन्त्र एक 'अश्वमेध-पुनरुद्धार' और धार्मिक रूढ़ियोंको पुनः इकाई है, या परमार्थसत्ताका एक अंश है. इन प्रश्नोंस्थापित किया उसकी घोषणा थी-'यो मे श्रमणशिपे का बहुत समय विचार होता रहा और तरह तरहके दास्यति तस्याहं दीनारं-शतं दास्यामि"-पिछले युगों मत खड़े हुए ? उनमें जो लोग 'ईश्वर'को कर्तारूप में भारतीय संस्कृतिसे जो धार्मिक हिंसा उठती जारही मानते थे उनके विचारोंका अन्त वेदान्त' विचार थी, इस युगमें वह पुनः जीवित हो उठी ठीक धारामें हुआ. पर जो 'जीव'का स्वतन्त्र अस्तित्व इसी समय 'अहिंसाका वैज्ञानिक विवेचन लिखितरूप समझते थे, या जिन्होंने आत्मवाद'के गहरे मोहका में हमें देखनेको मिलता है। ऐसा जान पड़ता है कि निरसन करनेके लिए-अनात्मवाद और अनीश्वरशुङ्ग शासकोंकी प्रतिक्रिया अधिक नहीं टिक सकी। वादका समर्थन किया-उनकी विचाराधारा श्रमण आर्य विचारकोंके सामने प्रश्न आया कि अहिंसाका कहलाई : इस प्रकार-श्रात्मानुभूति द्वारा 'चेतन'की दार्शनिक आधार क्या हो ? इसका प्रथम विश्लेषण सत्ता हो जानेपर-भारतीय विचारकोंकी दृष्टि, बाह्य जहाँ तक इस लेखकका अनुमान है, 'ओघनियुक्ति' में से हटकर अन्तरकी ओर उन्मुख हुई ! उन्होंने हिंसा
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