SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 17
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ किरण १० ] भारतीय इतिहासमें अहिंसा . [३७९ या बलिद्वारा नहीं. अपित ध्यान. धारणा एवं समाधि- ही वैष्णव भी करते हैं। इसके पीछे. उनकी दार्शनिक को अपनी साधनामें जगह दी ! शङ्करके वेदान्तमें विचारधारा अवश्य कुछ भिन्न है ? 'ईश्वर'का चाहे जो रूप हो. परन्तु यह स्पष्ट है कि . अहिंसाके विषयमें जैनधर्मका दृष्टिकोण वस्तुतः उसमें हिंसाको लेशमात्र भी स्थान नहीं है ? इसी मौलिक है, यह मौलिकता इसमें है कि जैनविचारकोंने प्रकार वानप्रस्थ और सन्यास आश्रममें भी साधकोंकी अहिंसाकी व्याख्याका विचारविन्दु आत्माको माना जो चर्या बतलाई गई है उसमें अपरिग्रह और अहिंसा- है। इसे दूसरे शब्दोंमें आध्यात्मिक भी कहा जा का सूक्ष्म विचार है ? 'अधिनियुक्ति'कारके अहिंसाका सकता है; 'अहिंसा' या हिंसा-पहले 'स्व' में होती लक्षण, और भारतीय साधनामें अहिंसाका प्रवेश, है। बाहर तो उसकी प्रतिक्रिया ही देखने में आती है। एकाएक नहीं हो गया. वह सदियोंकी चिन्तना और अहिंसाका विचार करते हुए न्होंने चार बातोंका साधनाका परिणाम है । विभिन्न धर्मोके शास्त्रोंका विचार किया है । हिंस्य, हिंसक, हिंसा और हिंसाका अध्ययन करनेसे यह स्पष्ट आभास हो जायगा कि फल । सूक्ष्मदृष्टिसे विचारनेपर यह स्वतः अनुभवमें किस प्रकार भारतीय विचारक एक दूसरेसे प्रभावित आता है कि व्यक्ति कषाय करके पहले स्वयं अपने होते रहे ? साम्प्रदायिकता भारतमें ७वीं ८वीं सदीके भावोंका हनन करता है. इस लिए वह स्वयं हिंस्र बाद आई ! इसके पहले खुलकर विचारोंका आदान- और हिंसक है। यह बहुत ही सूक्ष्म विवेचन है ? प्रदान होता था। वास्तवमें देखा जाय तो आत्मा न तो हिंस्य है और न वेदान्त' की पृष्ठभूमि भागवतधर्म और बौद्ध- हिंसक । गीताकारने कहा है:दर्शनके कुछ विचार हैं ? शुङ्गकालमें भागवत-धर्मको ‘य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम् । जन्म, उस विचारधाराने दिया था जो वेदयुगसे ही उभौ तौ न विजानीतौ नाऽयं हन्ति न हन्यते ॥' हिंसाके विरोधमें उठी थी। चिरकालके संघर्षके बाद ऐसी स्थितिमें हिंसा और अहिंसाका प्रश्न ही उस समय इस विचारधाराकी इतनी प्रबलता थी-- नहीं उठता ? यह विवेचन वस्तु-स्वभावको देखनेकी कि हिंसा पूजा विधानके प्रति जनता घृणा करने लगी दिखानेकी दृष्टिसे है । यदि व्यवहार-जगतमें उसे थी। इसलिये भागवतधर्म और उसके उत्तरकालीनरूप लगाया जाय तो हमारी सारी व्यवस्था छिन्न-भिन्न वैष्णवधर्ममें 'अहिंसा' को प्रधान स्थान दिया गया ? हो जाय ? इसलिए 'अहिंसा'का व्यवहारिक पक्ष गुप्तकालमें पुनः हिन्दूधर्मका उद्धार हुआ, परन्तु भी है। प्रकृत विश्वमें 'सुखदुख' भय और आशङ्का इतिहासकी धारा सदैव आगे बढ़ती है. उसे पीछे नहीं का अनुभव सभीको होता है। प्रत्येक प्राणीमें जीनेका ढकेला जा सकता ? यह कहा जा चुका है कि आर्योंने मोह है. चाहे वह कैसी परिस्थितिमें क्यों न हो; अतः धार्मिक उपासना प्रकृतिसे ग्रहण की थी। उन्होंने प्रकृति यथाशक्ति उनमें प्राणोंकी विराधनासे बचना ही में दो तत्त्व देखे, भद्र और भयङ्कर । इन्हींके आधार- व्यवहारिक अहिंसा है, जो साधक आलस्य रहित पर शिव और रुद्रं इन दो शक्तियोंकी कल्पना की गई; होकर, अपने लौकिक जीवनका निर्वाह करता है और उसीके अनुरूप उसकी उपासना प्रचलित हुई। वह अहिंसक है ? पर और अध्यात्मिक साधनामें भागवद्धर्ममें उसे ब्रह्म' कहा गया और उसके विष्णु लगा हुआ प्रमादी मनुष्य हिंसक है ? इस तरह आदि अवतार स्वीकार किए गए—पर इन अवतारों- अहिंसाका सारा तत्त्वज्ञान आत्माकी जागरुकतापर की उपासनापद्धति पूर्ण अहिंसक रही ? आचार्य ही निर्भर रहता है ? ... शङ्करने संगुणकी जगह ब्रह्मको निर्गुण माना । परन्तु 'अहिंसा' अनुभूतिगम्य है ? वह तर्क सिद्ध नहीं। अहिंसा वहाँ भी आवश्यक मानी गई। अहिंसाका है ? इसलिये अहिंसाका जितना भी तत्त्वज्ञान है, व्यवहारमें जितना सूक्ष्मपालन जैन करते हैं-उतना वह 'आत्मानुभूति' पर अवलम्बित है ? मनुष्यने Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527260
Book TitleAnekant 1948 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages48
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy