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________________ ३८० ] अनेकान्त [वर्ष ह जब अपनेमें स्थित चैतन्यका अनुभव किया होगा तभी जाता ? विरोधी और आरम्भ-सम्बन्धी हिंमा इसउसके मनमें दूसरे प्राणियोंके प्रति ममताका भाव लिये अनिवार्य है; क्योंकि गृहस्थको सांसारिक उत्तरजमा होगा ? किन्तु मानव जातिके इतिहासमें अनु- दायित्वके लिये वह आवश्यक है ? अहिंसाका यह भूति भी बुद्धिका विषय बनती रही है ? भगवान् संतुलितरूप ही एक ओर युद्ध में हत्याका विधान बुद्धके सामने जब दार्शनिक प्रश्न आए तो उन्होंने करता है और दूसरी ओर जलगालन का उपदेश मौन रहना ही श्रेष्ठ समझा । उन्होंने विश्वमैत्री, समता करता है । वैदीययुगमें जैन-गृहस्थके आचार-विचारमें और सदाचारका जो भी उपदेश किया वह अनुभूतिसे जो अहिंसक बारीकियाँ दीख पड़ती हैं, वे आज भी ही उद्भूत था, परन्तु आगे चलकर-उस अनुभूतिकी ज्योंकी त्यों हैं। उनके इस आचार-विचारको देखकर, जो छानबीन हुई-उसने उनके धर्मको दर्शनकी सहस्रों लोग जैन-धर्मकी अहिंसाको अव्यवहार्य अनेक धाराओं में बाँट दिया। 'अहिंसा' की भी यही समझने लगते हैं ? इसमें सन्देह नहीं कि शास्त्रोंके गत हुई । पं० आशाधर' (१३वीं सदी)के समय 'माँस रूढ़िवादी अध्ययनसे गृहस्थोंमें बहुत-सा मुनिधर्म भक्षण' करना चाहिए या नहीं, आदि तार्किक प्रश्न प्रवेश पा गया है ! व्यक्तिकी दृष्टिसे चाहे यह कितनी पूछे जाते थे । उन्होंने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ सागार ही उच्चकोटिकी साधना हो, परन्तु समाजकी दृष्टिसे धर्मामृतमें ऐसे ही प्रश्नोंका बहुत ही कटु उत्तर दिया वह किसी कामकी नहीं। इसमें व्यर्थ अहङ्कारकी पुष्टि है। किसीने तर्क उपस्थित किया कि प्राणीका अङ्ग होती, पर व्यक्तिकी आलोचना सिद्धान्तकी आलो होनेसे माँस भी भक्षणीय है; जैसे गेहूँ आदि ! इसपर चना नहीं है। •आशाधरजीने उत्तर दिया है-प्राणीका अङ्ग होनेसे सर्वभूत दयाका भाव सभी धर्मों में अच्छा कहा ही प्रत्येक चीज़ भक्षणीय नहीं होजाती ! क्योंकि स्त्रीत्व गया है । इसलिये वे हिंसा, झूठ, चोरी, दुःशील और रहनेपर भी पत्नी ही भोग्य है न कि माता ? तो फिर परिग्रहसे बचनेका उपदेश करते हैं, या इस उपदेशमें इसका निर्णय कैसे हो; साफ है कि विवेक-बुद्धि ? भी अहिंसाका भाव दिया हुआ है और इसकी सङ्गात हमेस्वयं साचनाहागा किव्यवहारम कसा आचरण- तभी ठीक बैठ सकती है जब अहिसाका सम्बन्ध अहिंसा हो सकता है ? सम्भवतः इसीके विवेचनके आत्मासे माना जाय । झूठ बोलना, चोरी करना और लिये और व्यवहारमें अहिंसाको खड़ा करनेके लिये परस्त्रीगमन करना क्यों बुरा है ? जबकि देखा गया है उसमें भेद कल्पित हुए ! आखिर खण्डरूपमें ही कोई कि उससे मनुष्यको एक प्रकारका सुख-सन्तोष सिद्धान्त जनताके जीवनतक पहुँच सकता है ? मिलता है । इस सुख-सन्तोषसे आत्माको वञ्चित ___ अहिंसाका सम्पूर्ण आचरण गृहस्थोंके लिये करना उसे दुख पहुँचाना है; और यह हिंसा ही है ?. असम्भव है, इसलिये उन्हें संकल्पी-हिंसासे बचनेका यदि हम आत्माको पकड़कर चलें तो सहजमें इस प्रश्न प्रयत्न करना चाहिए ! इसका आशय यह है कि वह का उत्तर मिल जायगा। हम स्वयं अनुभव करते हैं संकल्प करके दूसरोंको हानि पहुंचानेकी चेष्टा न कि झूठ, चोरीसे जो सुख मिलता है वह क्षणिक है। करेगा, परन्तु साथमें उसका जीवन इतना सरल और क्षणिक ही नहीं, दूसरे क्षणमें दुखदायी भी है। क्यों ? श्राडम्बर-शून्य होना चाहिए कि जिससे अप्रत्यक्षरूप वह आत्माके व्यक्तित्वका हनन करता है । वह सुख से भी वह, अपने लिये दूसरोंके हित न छीने ! यदि नहीं. सुखाभास है । आत्मा स्वयं अच्छे-बुरे कार्योंका वह अपने भोग-विलासका अधिक विस्तार करता है निर्णायक है, और यहीं वह आत्म-न्याय है जिससे तो निश्चित है कि उसके लिये अधिक विरोधी और पापी व्यक्ति, कानून और समाजसे बचकर भी आरम्भी-हिंसा करना पड़ेगी ? और ऐसे व्यक्तिके आत्मग्लानिमें गलता रहता है। जैन-वाङ्गमयमें पाँच लिये-संकल्पी अहिंसाका कोई मूल्य नहीं रह पापोंके मूल में हिंसा को ही बताया गया है, इसलिये Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527260
Book TitleAnekant 1948 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages48
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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