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किरण १० ]
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भारतीय इतिहासमें अहिंसा
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मानते हुए भी अनीश्वरवादी था, भगवान बुद्ध संभ- अहिंसाका प्रश्न उठा था, परन्तु इसका श्राशय यह वतः इसी वर्गके थे उन्होंने देखा कि मनुष्य 'अज्ञात नहीं है कि उसका प्रभाव समाजके सामूहिक और ईश्वर' और आत्मतत्त्वके मोहमें पड़ कर विविध व्यक्तिगत जीवन पर नहीं पड़ा। . अन्धविश्वासों एवं संग्रहशील प्रवृत्तियोंमें उलझा है, दार्शनिक जागरणके साथ साथ हिंसा की परिफलतः ईश्वर और आत्माका निषेध करते हुए उन्होंने भाषामें भी बहुतसा हेरफेर हुआ एक समय नारा था वर्तमान और दृश्यमान दुख-समूहके विरोधका उपाय - वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति"-इसका सीधा बताया । भगवान बुद्ध पूर्वतः अहिंसावादी थे, अर्थ था कि अहिंसा अच्छी वस्तु है परन्तु वैदिकी महावीर और बुद्धमें तात्त्विक अन्तर यह था कि हिंसा भी हिंसा नहीं अपितु अहिंसा ही है । पर यह महावीर आत्माकी सत्ता स्वीकार करते हुए भी उसे तक अधिक दिन नहीं ठहरा। आर्य जीवनके धार्मिक ईश्वर होनेके योग्य समझते हैं, उपनिषद में एक ही क्षेत्रोंमें रक्तपात तो नहीं हआ किन्तु भोग विलास ब्रह्मको समूची चेतनाका प्रतिनिधि स्वीकार किया और सामाजिक उत्सवमें अभी भी क्रूर हिंसा होती थी। गया है। इस तरह ये तीनों विचार धाराएँ अपने ढङ्ग अशोककी धर्मनीति एवं सामाजिक सुधारोंसे इन बातों से भारतीय संस्कृतिमें अहिंसक भावना ढाल रही थीं पर अच्छा प्रभाव पड़ता है। मनुष्यमें अपने विश्वास अहिंसाकी दार्शनिक पृष्टभूमिमें आगे चलकर इन और विचारोंके प्रति बहुत ही कट्टर ममता होती है, विचारोंका बहुत गहरा असर दिखाई देगा। सबसे एक बार जो विचार उसके मनमें जम जाता है उसे बड़ी बात यह है कि दार्शनिक चिंतनमें भेद होते हुए शीघ्र हटाना बहुत कठिन है। पिछली धार्मिक क्रान्ति भी 'अहिंसा' की उपासनामें भारतीय विचारकोंकी में हिंसा अवश्य कम हुई थी परन्तु पुनः लोग उसकी समान-आस्था बढ़ी। महावीर और बुद्धकी धर्मदेशना और आकृष्ट होरहे थे। बुद्ध और महावीरके प्रयत्नों का तो ऐसा प्रभाव पड़ा कि यज्ञोंकी प्रथा भारतीय से धार्मिक अहिंसाका प्रसार तो हुआ परन्तु सामा-. सामाजिक जीवनसे एक दम उठ गई और उसके जिक जीवनमें वह अभी पूरे तौरपर प्रतिष्ठित नहीं स्थानपर सात्विक जीवन, मित आहार-विहार एवं हुई थी। इतने विशाल देशमें सहसा युगोंके संस्कारों
आत्म-चिन्तनकी प्रवृत्ति बड़ी यज्ञकी जगह भक्ति, को बदलना भी आसान बात नहीं थी। अशोक जब भारतीय लोक-जीवनमें स्फुरित हुई । वैदिकोंकी शासनारूड हुआ तो उसने भीरतीय इतिहासमें एक 'आश्रम-प्रणाली में अहिंसाका भाव ही सर्वोपरि सर्वथा नई और उदात्त नीतिका प्रवर्तन किया। यह दीख पड़ता है ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और नीति कलिङ्ग युद्धको लेकर शुरू हुई । या तुरन्त राज्य सन्यासी इन चारों आश्रमोंके क्रमिक अध्ययनसे यह स्थापनाका कार्य जारी करते हुए उसने कलिङ्ग भली भाँति स्पष्ट होजाता है कि वैदिक साधककी (उड़ीसा) पर हमला बोला । कहते हैं उसमें २॥ लाख जीवन-साधना किस प्रकार आगेके आश्रमोंमें अहिंसक कलिङ्ग वासियोंने अपनी स्वाधीनताके लिये प्राणाहुति एकान्त अकिंचन और आत्म-निर्भर होती चली गई दे दी । इस भयङ्कर रक्तपातने विजेता अशोकके है। उच्चकोटिके सन्यासीको परमहंस' की संज्ञा दी विचारोंपर गहरी छाप डाली। उसने तलवारकी . गई है. इसका अर्थ है 'आत्मा' । परम अर्थात् उत्कृष्ट अपेक्षा धर्मविजय द्वारा अपने राज्यका विस्तार किया आत्मविकासका यह उत्कृष्ट रूप बलिदान और बाह्य उस समय सामाजिक उत्सव तथा खानपानमें बहुत आडम्बरसे कथमपि प्राप्य नहीं, वह आत्मचिन्तन ही भोंडी हिंसा होती थी, अशोकने उसे 'विहिंसा' और साधना द्वारा ही सम्भव है। ऊपर इस बातका कहा है। 'समाज' और 'विहार-यात्रा' जिसमें कि संकेत होचुका है कि भारतीय संस्कृतिमें 'पशुबलि' अकारण पशुओंका वध होता था उसने बन्द करवा के औचित्य और अनौचित्यके सिलसिलेमें हिंसा और दी और उसके स्थानपर धर्मयात्राकी नींव डाली।
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