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________________ समन्तभद्र-भारतीके कुछ नमूने युक्त्यनुशासन विशेष - सामान्य - विषक्त-भेद- महासमुद्रको तिरा जाता है-सर्वान्तवान है-सामान्यविधि-व्यवच्छेद-विधायि-वाक्यम् । विशेष, द्रव्य-पर्याय, विधि-निषेध, एक-अनेक, आदि अशेष धर्मोको लिये हुये है-और गौण तथा मुख्यकी अभेद-बुद्धरविशिष्टता स्याद् कल्पनाको साथमें लिये हुये है-एक धर्म मुख्य है तो व्यावृत्तिबुद्धश्च विशिष्टता ते ॥६॥ 1 दूसरा गौण है, इसीसे सुव्यवस्थित है, उसमें असंग'वाक्य (वस्तुतः) विशेष (विसदृश परिणाम) और तता अथवा विरोधके लिये कोई अवकाश नहीं है । सामान्य (सदृश परिणाम) को लिये हुये जो (द्रव्य जो शासन-वाक्य धर्मोमें पारस्परिक अपेक्षाका प्रतिपर्यायकी अथवा द्रव्य-गुण-कर्मकी व्यक्तिरूप) भेद . पादन नहीं करता-उन्हें सर्वथा निरपेक्ष बतलाता है हैं उनके विधि और प्रतिषेध दोनोंका विधायक होता वह सर्व धर्मोंसे शून्य है-उसमें किसी भी धर्मका है। जैसे घट लाओ' यह वाक्य जिस प्रकार घटके अस्तित्व नहीं बन सकता और न उसकेद्वारा पदाथलानेरूप विधिका विधायक ( प्रतिपादक) हैउसी व्यवस्था ही ठीक बैठ सकती है। अतः आपका ही प्रकार अघटके न लानेरूप प्रतिषेधका भी विधायक यह शासनतीर्थ सर्व दुःखोंका अन्त करनेवाला है, है, अन्यथा उसके विधानार्थ वाक्यान्तरके प्रयोग यही निरन्त है-किसी भी मिथ्यादर्शनके द्वारा का प्रसंग आता है और उस वाक्यान्तरके भी खंडनीय नहीं है और यही सब प्राणयोंके अभ्युदयतत्प्रतिषेधविधायी न होनेपर फिर दूसरे वाक्यके. का कारण तथा आत्माके पूर्ण अभ्युदय (विकास) प्रयोगकी जरूरत उपस्थित होती है और इस तरह का साधक है ऐसा सर्वोदयतीथ है। वाक्यान्तरके प्रयोगको कहीं भी समाप्ति बन न सकनेसे भावार्थः-आपका शासन अनेकान्तके प्रभावसे अनवस्था दोषका प्रसंग आता है, जिससे कभी भी घट सकल दुर्नयों (परस्परनिरपेक्ष नयों) अथवा मिथ्याके लानेरूप विधिकी प्रतिपत्ति नहीं बन सकती । ।। दर्शनोंका अन्त (निरसन) करनेवाला है और ये अतः जो वाक्य प्रधानभावसे विधिका प्रतिपादक दुर्नय अथवा सर्वथा एकान्तवादरूप मिथ्यादर्शन ही है वह गौणरूपसे प्रतिषेधका भी प्रतिपादक है और संसारमें अनेक शारीरिक तथा मानसिक दुःखरूप जो मुख्यरूपसे प्रतिषेधका प्रतिपादक है वह गौण आपदाओंके कारण होते हैं, इसलिये इन दुर्नयरूप रूपसे विधिका भी प्रतिपादक है, ऐसा प्रतिपादन सिध्यादर्शनोंका अन्त करनेवाला होनेसे आपका करना चाहिये । ___ शासन समस्त आपदाओंका अन्त करनेवाला है, (हे वीर जिन!) आपके यहाँ-आपके स्याद्वाद- अर्थात् जो लोग आपके शासनतीर्थका आश्रय लेते शासनमें-(जिस प्रकार) अभेदबुद्धिसे (द्रव्यत्वादि हैं उसे पूर्णतया अपनाते हैं-उनके मिध्यादर्शनादि व्यक्तिकी) अविशिष्टता (समानता) होती है ( उसी . दूर होकर समस्त दुःख मिट जाते हैं। और वे अपना प्रकार) व्यावृत्ति(भेद)बुद्धिसे विशिष्टताकी प्राप्ति होती है।' पूर्ण अभ्युदय-उत्कष एवं विकास-सिद्ध करनेमें सर्वान्तवत्तद्गुण-मुख्य-कल्पं समर्थ हो जाते हैं। सर्वान्तशून्यं च मिथोऽनपेक्षम् । कामं द्विषन्नप्युपपत्तिचक्षुः. सर्वाऽऽपदामन्तकरं निरन्तं समीक्ष्यतां ते समदृष्टिरिष्टम् । सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव ॥६१॥ (हे वीर भगवन् !) आपका तीर्थ-प्रवचनरूप त्वयि ध्रुवं खण्डित-मान-शृङ्गो शासन-अर्थात् परमागमवाक्य जिसके द्वारा संसार .. भवत्यभद्रोऽपि समन्तभद्रः ॥६२॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527260
Book TitleAnekant 1948 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages48
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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