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________________ अहारक्षेत्रके प्राचीन मूर्ति-लेख (संग्रहाक-पं० गोविन्ददास जैन, न्यायतीर्थ, शास्त्री) प्रास्ताविक वर्मका शासन (राज्य) था और अहारका उस समय 'मदनेशसागरपुर' नाम था। सुदूरकालमें बुन्देलखण्डकी भव्य वसुन्धरा बुन्देलों यहाँकी मतियों के शिलालेखोंसे पता चलता है कि की अमर गाथाओंसे तो गौरवान्वित होती रही, खण्डेलवाल, जैसवाल, मेडवाल, लमेचू, पौरपाट, साथमें जैन संस्कृति और उसके अमर साहित्यकी संरक्षणी भी रही । यह मानते हैं कि बुन्देलखण्ड गृहपति, गोलापूर्व, गोलाराड, अवधपुरिया, गर्गराट आदि अनेक जातियोंका अस्तित्व था । इन सभी एक समय जैनियोंका अच्छा और प्रधान केन्द्र रहा , जातियोंकी प्रतिष्ठित मूर्तियाँ यहाँ विद्यमान हैं। है, इसका प्रमाण अनेक उस प्राचीन जैनतीर्थ, विशाल जैनमन्दिर, जिनविम्बोंके शिलालेख और उन यहाँ वि० सं० ११२३से लेकर वि० सं० १८६६ शिलालेखोंमें उल्लिखित जैनोंकी विभिन्न अनेक उप- तककी प्राचीन मूर्तियाँ पाई जाती है। अतः ज्ञात जातियाँ आदि हैं। होता है कि बीचकी एक-दो सदियोंको छोड़कर बराबुन्देलखण्डमें खजुराहा. देवगढ़, सीरोंन, चन्देरी. बर १२वीं सदीसे लेकर १९वीं सदी तक विम्ब थूवौन; पवा, पपौरा, द्रोणगिरि. रेशिंदीगिरि, बाणपुर " प्रतिष्ठाएँ यहाँ होती रहीं । मूल नायक भगवान आदि अनेक प्राचीन पवित्र क्षेत्र हैं। इनमें कई क्षेत्र शान्तिनाथकी प्रतिविम्बसे जो विक्रमकी तेरहवीं सदीतो प्रकाशमें आचुके हैं और उनके शिलालेखादि भी में प्रतिष्ठित हुई है, १०० वर्ष पहलेकी यहाँ प्रतिमाएँ प्रकाशित होचुके हैं परन्तु कई क्षेत्र अभी पूर्ण प्रकाश- प " पाई जाती हैं। . में नहीं आये और न उनके शिलालेख वगैरह ही यहाँ भट्टारकोंकी शताब्दियों तक गहियाँ रही हैं प्रकाशमें आये हैं। अहारक्षेत्र भी ऐसे ही क्षेत्रोंमेंसे ऐसा शिलालेखोंसे मालूम होता है । यहाँ के तत्कालीन एक है । जिस प्रकार अनेक प्राचीन मूर्तियों तथा एक प्रभावपूर्ण अतिशयने तो अहारके नामको आज मन्दिरोंके भनावशेष देवगढ़ आदि स्थानोंमें पाये तक अमर रक्खा है। कहते हैं कि यहाँ एक धर्मात्मा जाते हैं-उसी तरह अहारमें भी वे यत्र तत्र पाये व्यापारी (सम्भवतः जैनष्ठी प्राणाशाह) का रांगा, जाते हैं । इनपर उत्कीर्ण शिलालेखोंसे प्रतीत होता है जो बहुत तादादमें था, चाँदी हो गया था। उसने कि श्रीअहारकी प्राचीन बस्तीका नाम 'मदनेशसागर- अपने उस तमाम द्रव्यको चैत्य-चैत्यालय तथा धर्मापुर' था। इसके तत्कालीन शासक श्रीमदनवर्मा थे- यतनोंके निर्माणमें ही लगा दिया। तभीसे यहाँ धार्मिक जो चन्देलोंमें प्रमुख और प्रभावशाली एवं यशस्वी मान्यताओंके साथ अनेक स्तूपोंके रूपमें और भी चन्देल नरेश थे। विक्रमकी ग्यारवीं-तेरहवीं सदीके अनेक मन्दिर निर्माण कराये गये जिनकी निश्चित शिलालेखोंमें जो अहारजीमें विद्यमान हैं मदनेश- संख्या बताना असंभव है। सागरपुरका नाम स्पष्टतया आता है । श्रीअहारके खुदाई करनेपर यहाँपर उत्तरोत्तर बहुत तादादमें पास जो विशाल सरोवर बना हुआ है वह आज भी खण्डित मूर्तियाँ भूगर्भसे प्राप्त हो रही हैं। जिनमें मदनसागर' के नामसे विश्रुत है। इससे यह जान अनेकोंकी आसने शिलालेखोंसे अङ्कित हैं। अनेकोंके पड़ता है कि ग्यारहवीं सदीमें यहाँ चन्देलनरेश मदन- आङ्गोपाङ्ग खण्डित हो चुके हैं। मूर्तियाँ अनेक वर्षों Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527260
Book TitleAnekant 1948 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages48
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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