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________________ किरण १० ] अपभ्रंशका एक शृङ्गार-वीर काब्य [ ४०३ है, प्रणाम करता है और कुशल पूछता है:- विकरालताका स्पष्टस्वरूप सामने प्राजाता है:तं नियविकुमार समुट्ठियउ. , उद्दड - सुडकय - सलिलविद्धि , दरपणमिय सिरु समहिद्वियउ । पयभार कडकिय . कुम्मपिट्टि । अण्णोरणालिंगण रसभरिया , दुद्धर-रिउ वलहरु णं सव जल्लहरूविहि पीढहिं वेरणेवि वइसरिया । गरुय गजिर - ख - भरियदर । पुच्छिज्जइ कुसलु पंथ समिउ , जण-मारण-सीलउ वइवसलीलउन बहुदिवस माम कहि कहि भमिउ ॥६-१८|| '. सो संपत्तउ तेत्थु करि ॥४-२०॥ जम्बूका चरित्र सब प्रकारसे एक धर्ममें दृढ़ इसी प्रकार थोड़ेसे शब्दोंमें विद्युञ्चरका चित्रण । आदर्श योद्धा, उदात्तचरित्र व्यक्ति, विरक्त त्यागी किया है:महापुरुषका है। अन्य पात्रोंके चरित्रमें सम्यक विकास पयडिय किराउ मयवेसपडु, आजाणु लंब परिहाण पडु। नहीं मिलता और न वह आवश्यक ही था। विद्यञ्चरके वंकुडिय कच्छकयढिल्ल कडि, करणंत लुलाविय केसलडि । दर्शन एक सब प्रकारसे भले किन्तु चोरके रूपमें होते पुट्ठीनिहित्त कयबंद्ध भरु, उग्गंठिय. वि सरिस कुचधरु । हैं-अन्तमें वह भी तपस्वी हो जाता है। महिलाओं- आउत्तमंग पंगुरियतणु. सिढिलाह रोहदंतरु वयणु । के चरित्रोंमें जम्बूकी पत्नियों और उसकी माताके डोल्लंत बाहुलय ललिय-करु, वासहरि पयट्टउ विज्जुच्चरु । चित्र मिलते हैं। उनमें स्वाभाविक कोमलता और ॥९-१८॥ सरता है। वे सब अन्तमें आर्यिकाएँ होजाती हैं। अलङ्कारों के प्रयोग कविने दो प्रकारके किये हैं, प्रायः ऐसी धारणा है कि जैनसाहित्यमें स्त्रियोंकी एक चमत्कार प्रदर्शनके लिये और दूसरे स्वाभाविक निन्दा की गई है. वह ग़लत है। इन कृतियोंमें प्रयोग । प्रथम प्रकारके प्रयोगके उदाहरणरूपमें श्रादर्शके चित्र मिलते हैं। नारीके प्रति घृणाका भाव विध्याटवी वर्णनसे निम्न पंक्तियाँ उद्धृत की जासकती नहीं मिलता, मूल दुष्प्रवृत्तिका कहीं-कहीं उन्हें कारण हैं जिनमें कोई रस नहीं है:मानकर उनकी भर्त्सना अवश्य की गई है.यथा जब भारह - रण - भूमिव स-रहभीए , जम्बूकी पत्रियाँ हाव-भाव दिखाकर उसे आसक्त हरि अज्जुण राउल सिहंडि दीए । करना चाहती है तब वह कहता है: गुरु आसत्स्थाम कलिंगवार , हा हा महिला-मोह पिबद्ध , गयगज्जिर ससर महीस सार । . . मयण-काल-सप्पहिं जगु खद्धउ । .. • लंकाणयरी व स-रावणीय , वुच्चइ अहरु अमिय महु वासउ , चंदणहिं चार कलहावसीय । - अवरु जो गाउ ठविउ वयणासउ ॥६-१॥ सपलास सकंचण अक्खघट्ट , - वर्णनः-अन्य अपभ्रंश जैन काव्योंके समान । सविहीसण कइकुल फलरसट्ट ।।५-८॥ प्रस्तुत कृतिमें भी अनेक समृद्ध वर्णन मिलते हैं। उपर्युक्त पंक्तियोंमें श्लेषके प्रयोगसे दो अर्थ नगर, प्राम, अरण्य, ऋतु सूर्योदय, सूर्यास्त, नख- निकलते हैं, स-रह (रथ सहित और एक भयानक शिख, सेना · युद्ध आदिके सरल और कहीं-कहीं जन्तु, हरि-कृष्ण और सिंह, अर्जुन और वृक्ष, अलंकृत वर्णन कविने प्रस्तुत किये हैं। बड़े-बड़े नहुल और नकुल जीव; शिखडि और. मयूर आदि)। वर्णनोंके अतिरिक्त छोटे छोटे चित्र भी कविने सफलता इस कवि-चमत्कारके अतिरिक्त सरसता वर्द्धक । पूर्वक चित्रित किए हैं:-श्रोणिकराजके उन्मत्त हाथी प्रयोग भी कविने किये हैं। यद्यपि वे हैं इसी प्रकारके; के चित्रणसे कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार हैं; उसकी माला यमकका एक उदाहरण इस प्रकार है: Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527260
Book TitleAnekant 1948 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages48
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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