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किरण १० ]
अपभ्रंशका एक शृङ्गार-वीर काव्य
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'सुकवित्त्व' रचना करनेकी इच्छा प्रथम सन्धिमें प्रकट वह पीछे नहीं हठता । कविने भवदेवके भावद्वंद्वका की है और अपनेको उसके अयोग्य कहा है। इस प्रकार चित्रण किया है; जब उसका भाई मुनिसे
'सुकवित्त करण मण वावडेण' । १-३ . कहता कि भवदेव 'तप चरणु लहेसई' (तपश्चरण प्राप्त इस प्रकारके उल्लेखोंसे प्रस्तुत कृति केवल धार्मिक करेगा) वह सोचता हैकथा-कृति नहीं ज्ञात होती और कविने स्वयं भी उसे सुणंतु मणि डोल्लइ । निठुर केम दियंवरु वोल्लइ । महाकाव्य कहा है, जिसमें शृङ्गार और वीर रसोंकी तुरिउ तुरिउ घरि जामि पवित्तमि , प्रधानता है । कृतिकी ग्यारह सन्धियोंमें कथा-रसके सेसु विवाह कज्जु निव्वत्तमि । अनुकूल इस प्रकार है।
दुल्लहु सुख्यविलासु व मुजमि , प्रथम सन्धि भूमिकास्वरूप जिनकेवलीके सम- नववहुवाए समउ सुहु भुजमि ॥२-१२॥ वसरणका वर्णन हैं और श्रेणिकके उस धर्मसभामें
किन्तु भाईके वचनोंका उसे ध्यान आता हैजानेकी कथा है । इस सन्धिमें कथा कही गई है और
तो बरि न करमि एह अपमाणउ, देश, नगर आदिके सुन्दर वर्णन भी हैं। किसी विशेष
जेट्ट सहोयरु जणणु समाउ ॥२-१३॥ रस-परिपाकके लिये इस सन्धिमें स्थान नहीं मिल
'इसका अपमान कदापि नहीं करूँगा. ज्येष्ठ सका । श्रेणिकके भक्तिभावमें उत्साह है जिसे शान्त सहोदर पिताके समान है।' और दीक्षित होने के लिये रसका स्थायी कहा जा सकता है। प्रस्तुत सन्धिमें 5
स्वीकृति देता है । दीक्षाके समय वह मन्त्रोंका उच्चारण वीर और शृङ्गार रसका कोई स्थान नहीं हैं।
भी ठीक नहीं कर पारहा था; क्योंकि उसका मन नवदसरी सन्धिमें श्रेणिकके प्रश्नका उत्तर गणधर
यौवना पत्नीमें लगा था
.. पादंतहं. अक्खरु मउ आवइ । देते हैं। इसी समय बड़े लटकीय कौशलसे कविने
लडहंगउ कलत्तु परझायइ ॥२-१४॥ जम्बूके जन्मान्तरोंसे सम्बन्धित कथाका प्रारम्भ किया।
.. दीक्षित होकर बारह वर्षतक भ्रमण किया और है। अतः जम्बूचरितका प्रारम्भ इसी सन्धिसे होता है।
वह भ्रमण करता हुआ अपने ग्राम बधमानके पास हम देखनेका प्रयत्न करेंगे कि प्रमुख चरित्रमें कहाँतक ,
आया, ग्रामके सम्पर्कके स्मरणसे उसके हृदयमें शृङ्गार और वीर रसोंका चित्रण हुआ है और कविका
विषय-वासना जागृत होजाती है। कविने उसकी इन अपनी कृतिको शृङ्गार-वीर रससे युक्त रचना कहना उद्दाम भावनाओं को इस प्रकार चित्रित किया है:कहाँतक संगत है।
चिक्कसंतु चित्तु परिओसइ , - जम्बूके पूर्व जन्मोंकी कथा कहते हुए ऋषि बताते
एरिसु दिवसु न हुयउ न होसइ । हैं कि एक पूर्व जन्ममें ब्राह्मणपुत्र भवदेव थे। उनके
तो वरि घरहो जामिपिय पेक्खमि , बड़े भाई भवदत्त जैनधर्मकी दीक्षा ले चुके थे । भवदेव .
विसय सुक्ख मणवल्लह चक्खमि ॥२-१५॥ का जब विवाह होरहा था भवदत्त आता है, भवदेव ।
'चिकने (स्नेहाभिषिक्त) चित्तको वह परितोषित विवाह-कार्य अधूरा छोड़कर भाईकी आज्ञा मानता
करता है, इस प्रकारका दिन न हुआ है न होगा, तो हुआ दीक्षा लेकर चला जाता है। एक ओर उसे ।
अवश्य घर जाकर प्रियाका दर्शन करूँगा और मनकिंचित नवविवाहका भी ध्यान है किन्तु वैराग्यसे भी
वल्लभ विषय-सुखोंका श्रास्वादन करूँगा।' संपइ पुणो णियत्त जाए कइ वल्लहे वीरे ॥२॥ समयानुकूल भवदत्त आकर उसे संबोधित करता सन्धि में इस प्रकार एक पद्य है:- . है और वह कुपथसे बच जाता है। इसी प्रसङ्गमें देंत दरिद्द पर वसण दुम्मणं सरस-कव्व-सव्वस्सं । कविने जम्बूचरितके सबसे कोमल और रमणीय कह वीर सरिस-पुरिसं धरणि धरती कयथासि ॥१॥ स्थलका चित्रण किया है
* चत्यहम
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