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है । शृङ्गारके अनेक उपकरणोंसाथ जम्बू और नवपरिणीतावधुओं के संभोग शृङ्गारका वर्णन किया है । कविने इस सन्धिको अत्यन्त उपयुक्त 'विवाहोत्सव' नाम दिया है (संधि ८)
महिलाओंके मोहसे उत्पन्न प्रेमसे जम्बूके हृदयमें वैराग्य उत्पन्न होता है। महिलाओंकी वे निन्दा करते हैं. उनकी विरक्ति भावनाको दूर करने के लिए जम्बूकी प्रियतमाएँ कमलश्री. कनकश्री, विनयश्री, रूपश्री प्राचीन कथानक कहती हैं; जम्बू इसके विपरीत वैराग्यके महत्वको प्रतिपादित करनेवाली कहानियाँ कहते हैं । बात करते-करते इस प्रकार आधी रात बीत गई किन्तु कुमारका मन सांसारिक प्रेममें नहीं लगा. इसी समय विद्युचर चोरी करता हुआ नगर में
आया
अनेकान्त
वोल्लं हो तो वि कुमार ण भवे रमइ । तहें काले चोर विज्जुचरु चोरेवइ पुरे परिभमइ ॥ ११ ॥ नगरमें घूमता हुआ जम्बूके गृहमें विद्युच्चर पहुंचता है । जम्बूकी माता सोई नहीं थी, चोरका समाचार जाननेपर उसने कहा कि वह जो चाहे सो aa । विद्युच्चरको जब जम्बूकी माता शिवदेवी से जम्बू की वैराग्य-भावनाके विषयमें ज्ञात हुआ तो उसने प्रतिज्ञा की कि या तो वह जम्बूकुमारके हृदयमें विषयोंमें रति उत्पन्न कर देगा और नहीं तो स्वयं तपस्या व्रत ले लेगावहुवयण-कमल-रसलंपुड भमरु कुमारु ण जइ करमि । एणसमाणु विहाणए तो तव चरणु हउं विसरमि | १६ |
'वधु वदनकमल कुमारको रस- लम्पट भ्रमर यदि नहीं करूँ तो मैं भी इसीके समान प्रातःकाल तपश्चरण करूँगा ।'
जम्बूकी माता रात्रिको उसी समय उस चोरको अपना छोटा भाई कहकर जम्बूके समीप लेजाती है । जम्बू वेष बदले हुए विद्युच्चरको देखकर उससे कुशल प्रश्न करके पूछते हैं कि उसने किन-किन देशोंमें भ्रमण किया । व्यापार के भ्रमण किये देशोंके नामोंको सुनकर जम्बू उसे बड़ा वीर समझते हैं—
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[ वर्ष
विहुरावि सिरु विभियचित्त े बुच्चई मामु ण वणियवरु । पच्चक्खु दइउ इय सत्तिए अवस होसि तुहं वीरणरु |१|
विस्मितचित्त होकर शिर हिलाकर कहता हैमामा मात्र ही नहीं है, प्रत्यक्ष दैवसे प्राप्त शक्ति से युक्त श्रवश्य तुम वीर पुरुष हो । (सन्धि )
दसवीं सन्धिमें कई मनोहर श्राख्यान जम्बू और विद्युच्चरद्वारा कहे गये हैं। जम्बू वैराग्यमें उपसंहार होनेवाले आख्यान कहकर विषय-भोगोंकी निस्सारता दिखाते हैं और विद्युश्वर वैराग्यको निरर्थक बतानेवाले आख्यान कहता है । अन्तमें जम्बूकी दृढ़तासे वह प्रभावित होजाता है । जम्बू सुधर्मस्वामी से तपस्या की दीक्षा ले लेते हैं. सभी उनकी पत्नियाँ आर्यिका होजाती हैं, विद्युच्चर भी प्रव्रज्याका व्रत ले लेता है । सुधर्मस्वामी निर्वाण प्राप्त करते हैं। जम्बूस्वामी केवलज्ञान प्राप्त करते हैं और में संल्लेखना करते हुए निर्वाण प्राप्त करते हैं। विद्युश्वर भ्रमण करता हुआ ताम्रलिप्तपुरमें पहुंचता है जहाँ कात्यायनी भद्रमारीके प्राधान्य को नष्ट करता है ।
ग्यारहवीं सन्धिमें विद्युमर के दशविधधर्म पालनद्वारा और तपस्याद्वारा अन्त में समाधिमरण पूर्वक सर्वार्थसिद्धि प्राप्तिका वर्णन है ग्रन्थकी समाप्ति करते हुए कविने कहा है कि उसकी कृतिका पाठ करने से मङ्गलकी प्राप्ति होती है।
जम्बूस्वामिचरितकी ग्यारह सन्धियोंमेंसे प्रायः प्रत्येक में सद्- काव्यकी प्रशंसा की गई है । कवि १ सन्धि प्रथम में कई उल्लेखोंके साथ अन्तमें कहा है
'कव्वेयं पूर्वसिद्ध वा भूयोपक्रियते मया' । सन्धि ३के प्रारम्भ में निम्न प्राकृत पद्य है :वालक्कीलासुवि वीर वेयण पसरत कव्व-पीऊसं । कण्णपुडएहिं पिजइ जणेहिं रस मउलियछेहिं ॥ १ ॥ भर हालंकार लक्खणाइं लक्खे पयाइं विरयंती । वीरस्स वयणरगे सरस्सई जयउ गच्चंती ॥ २ ॥ सन्धि ५के प्रारम्भ में स्वयंभू पुष्पदन्त और देवदत्त कवियोंकी प्रशंसाके साथ वीरकी प्रशंसा की गई है :दिवसेहिं इह कवित्तं लिए लियम्मि दूरमाययणं ।
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