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________________ महावीरकी मूर्ति और लङ्गोटी (लेखक-श्री'लोकपाल') एक दिन मैं बाबू रघुवीरकिशोरजीके साथ वृन्दा- लक्षण है। देखें, भारत कबतक मानसिक पतनके वन गया । वहाँ उन्होंने रास्तेमें बिड़लामन्दिर खड्डेसे ऊपर उठता है। दिखलाया और मन्दिरमें चारों तरफ देखते भालते तथा जबतक एक पतली-सी भी लङ्गोटी किसीके लिए इधर उधर घूमते हुए एक जगह एक जैनमूर्ति श्रीवर्द्धमान रखनी आवश्यक रहेगी तबतक वह पूर्णरूपसे महावीर स्वामीकी बनी हुई दिखलायी। और मेस निर्विकार हो ही नहीं सकता। और अधिक कपड़ोंकी ध्यान विशेषतौरसे एक बातकी तरफ आकर्षित किया कौन कहे केवल-मात्र एक लङ्गोटीका भी रखना ही यह कि मूर्ति लङ्गोटी पहनी हुई बनाई गई है। मुझे दुःख साबित करता है कि लङ्गोटी पहननेवाला व्यक्ति हुआ।खेद है कि ये लोग दिगंबरत्वका महत्व नहीं समझ पूर्णरूपसे निर्विकार नहीं है। इसके अतिरिक्त भी सके और यह इन लोगोंकी मानसिक कमजोरी तथा लङ्गोटी जबतक मौजूद है वह निर्विकार या एकदम विकारका सूचक है जिसने उलटी बातें सुनते और परम निश्चिन्त हो ही कैसे सकता है ? लङ्गोटी गन्दी वर्तते रहनेके कारण जड़ पकड़ ली है। सच्ची बात होगी मैली होगो-बदबू करगो-उसे साफ करना जाननेकी कोशिश कौन कहे उसे सुनना भी गवारा या साफ रखना एक फिकर या चिन्ता तो यही हुई। करने या बरदाश्त करनेको तैयार नहीं। ऐसा वाता- फट जाय तो दूसरीका प्रबन्ध करना-इत्यादि । वरण आज भारतमें पैदा कर दिया गया है कि लोग यह तो हुई सांसारिक बात जो हर आदमी यदि वार सोचे-समझे-विचारे ही यों ही किसी बातपर समझना चाहे तो स्वयं समझ सकता है यदि ठीक निरे बेवकूफ और भौंदू-सा हँस देने में ही अपनी या मानसिक स्थितिमें हो तो। आगे तत्वतः देखा जाय अपने धर्मकी बहादुरी समझते हैं। इसे हम अज्ञान तो जिसने संसारका सब कुछ जान लिया उसके लिए न कहें तो और क्या कहें ? आज कॉलेजोंमें जाइए- क्या छिपा रह जाता है वह तो सब कुछ एकदम जैन लड़के अधिकतर जैनमन्दिरोंमें जानेमें शर्माते हैं खुला हुआ यों ही प्रत्यक्ष देखता या जानता है। जब और नहीं जाते हैं, केवल इस लिए कि दस आदमी किसीको समता प्राप्त हो जाय, सबमें वह एक ही शुद्ध किसी लड़केको यह कहकर लजवा देते हैं कि वह “नङ्गे" आत्माका दर्शन करने लगे या उसको देखने लगे जो स्वयं देवताओंकी पूजा करता है। दस आदमी मिलकर उसके शरीरके अन्दर है-या वह सभीको अपने किसी भी बड़ेसे बड़े विद्वान या व्यक्तिको हँसकर समान केवल आत्मारूप ही देखने लगे तो फिर वहाँ और ताली पीटकर बेवकूफ बना देते हैं या बना सकते पर्देकी क्या जरूरत रह जाती है ? परमवीतरागी, हैं। यही तरीका अबतक खासतौरसे जैन-धर्म या · सर्वज्ञ-सर्वदर्शी और पूर्णतः शक्ति-सम्पन्न महात्मा जैनधर्मावलम्बियोंके साथ वर्ता जाता रहा है । जब किसके लिये लङ्गोटी लगाए ? उसे न अपने लिये तर्क और बुद्धिसे कोई हार जाता है तब इन्हीं ओछे जरूरत रहती है और न दूसरोंकी खातिर । वास्तवमें तौर-तरीकोंको अपनाता है । खैर, ये सब तो पुरानी सविवेक दिगम्बरत्वका बड़ा महत्व है जो साधारणतः बातें हो गईं। अब तो मिलने-मिलानेका समय है सभीके दिमागमें घुसना सम्भव नहीं। जिस समय इस और सभी एक दूसरेसे मिलना या एक दूसरेकी विषयकी महत्ता लोगोंको ज्ञात होजाय उसी समय समबातोंको समझनेकी चेष्टा करने लगे हैं। यह अच्छा झना चाहिएकि अब देश या संसारके उत्थानमें देर नहीं। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527260
Book TitleAnekant 1948 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages48
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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