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नमो नमो निम्मलदंसणस्स बाल ब्रह्मचारी श्री नेमिनाथाय नमः पूज्य आनन्द-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर-गुरूभ्यो नम:
आगम-३४
निशीथ आगमसूत्र हिन्दी अनुवाद
अनुवादक एवं सम्पादक
आगम दीवाकर मुनि दीपरत्नसागरजी
[ M.Com. M.Ed. Ph.D. श्रुत महर्षि ]
आगम हिन्दी-अनुवाद-श्रेणी पुष्प-३४
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उद्देशक/सूत्र
आगम सूत्र ३४, छेदसूत्र-१, निशीथ'
आगमसूत्र-३४- "निशीथ' छेदसूत्र-१- हिन्दी अनुवाद
३०
क्रम
विषय ०१ | गुरुमासिक प्रायश्चित्त योग्य दोष ०२ | लघुमासिक प्रायश्चित्त योग्य दोष ०३ लघुमासिक प्रायश्चित्त योग्य दोष | ०४ लघुमासिक प्रायश्चित्त योग्य दोष ०५ लघुमासिक प्रायश्चित्त योग्य दोष ०६ । गुरुचौमासी प्रायश्चित्त योग्य दोष | ०७ गरुचौमासी प्रायश्चित्त योग्य दोष ०८ | गुरुचौमासी प्रायश्चित्त योग्य दोष ०९ | गुरुचौमासी प्रायश्चित्त योग्य दोष १० गुरुचौमासी प्रायश्चित्त योग्य दोष
कहां क्या देखे? | पृष्ठ क्रम
विषय
पृष्ठ | ०५ | ११ | गुरुचौमासी प्रायश्चित्त योग्य दोष
१२ | लघुचौमासी प्रायश्चित्त योग्य दोष । ३२ | १३ | १३ लघुचौमासी प्रायश्चित्त योग्य दोष ३४ १६ | १४ | लघुचौमासी प्रायश्चित्त योग्य दोष । ३६
लघुचौमासी प्रायश्चित्त योग्य दोष २१ १६ । लघुचौमासी प्रायश्चित्त योग्य दोष | ४०
२२ | १७ लघचौमासी प्रायश्चित्त योग्य दोष । ४२ | २४ | १८ लघुचौमासी प्रायश्चित्त योग्य दोष ४४ | २६ | १९ लघुचौमासी प्रायश्चित्त योग्य दोष - २८ | २० | | प्रायश्चित्त देने व वहन करने की विधि | ४८
३८
४६
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(निशीथ)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद”
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आगम सूत्र ३४, छेदसूत्र-१, निशीथ'
उद्देशक/सूत्र
४५ आगम वर्गीकरण सूत्र
क्रम
आगम का नाम
क्रम
आगम का नाम
सूत्र
अंगसूत्र-१
पयन्नासूत्र-२
०१ आचार ०२ सूत्रकृत्
अंगसूत्र-२
२६
०३
स्थान
अंगसूत्र-३
| २५ आतुरप्रत्याख्यान
| महाप्रत्याख्यान
भक्तपरिज्ञा २८ | तंदुलवैचारिक
संस्तारक
२७
पयन्नासूत्र-३ पयन्नासूत्र-४ पयन्नासूत्र-५
०४
समवाय
अंगसूत्र-४
०५
अंगसूत्र-५
२९
पयन्नासूत्र-६
भगवती ज्ञाताधर्मकथा
०६ ।
अंगसूत्र-६
पयन्नासूत्र-७
उपासकदशा
अंगसूत्र-७
पयन्नासूत्र-७
अंतकृत् दशा ०९ अनुत्तरोपपातिकदशा
अंगसूत्र-८ अंगसूत्र-९
३०.१ | गच्छाचार ३०.२ चन्द्रवेध्यक ३१ | गणिविद्या
देवेन्द्रस्तव
वीरस्तव ३४ | निशीथ
पयन्नासूत्र-८ पयन्नासूत्र-९
३२ ।
१० प्रश्नव्याकरणदशा
अंगसूत्र-१०
३३
अंगसूत्र-११
११ विपाकश्रुत १२ औपपातिक
पयन्नासूत्र-१० छेदसूत्र-१ छेदसूत्र-२
उपांगसूत्र-१
बृहत्कल्प व्यवहार
राजप्रश्चिय
उपांगसूत्र-२
छेदसूत्र-३
१४ जीवाजीवाभिगम
उपागसूत्र-३
३७
उपांगसूत्र-४ उपांगसूत्र-५ उपांगसूत्र-६
छेदसूत्र-४ छेदसूत्र-५ छेदसूत्र-६
४०
उपांगसूत्र-७
दशाश्रुतस्कन्ध ३८ जीतकल्प ३९ महानिशीथ
आवश्यक ४१.१ ओघनियुक्ति ४१.२ | पिंडनियुक्ति ४२ | दशवैकालिक ४३ उत्तराध्ययन ४४
नन्दी अनुयोगद्वार
मूलसूत्र-१ मूलसूत्र-२ मूलसूत्र-२
१५ प्रज्ञापना १६ सूर्यप्रज्ञप्ति १७ चन्द्रप्रज्ञप्ति
| जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति १९ निरयावलिका
कल्पवतंसिका २१ | पुष्पिका
| पुष्पचूलिका २३ वृष्णिदशा २४ चतु:शरण
उपागसूत्र-८
उपांगसूत्र-९ उपांगसूत्र-१० उपांगसूत्र-११ उपांगसूत्र-१२ पयन्नासूत्र-१
मूलसूत्र-३ मूलसूत्र-४ चूलिकासूत्र-१ चूलिकासूत्र-२
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(निशीथ)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद"
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आगम सूत्र ३४, छेदसूत्र-१, 'निशीथ'
उद्देशक/सूत्र मुनि दीपरत्नसागरजी प्रकाशित साहित्य आगम साहित्य
आगम साहित्य साहित्य नाम बुक्स क्रम साहित्य नाम
बुक्स मूल आगम साहित्य:1476 आगम अन्य साहित्य:
10 -1- आगमसुत्ताणि-मूलं print [49] | -1-माराम थानुयोग
06 1-2- आगमसुत्ताणि-मूलं Net [45] -2- आगम संबंधी साहित्य
02 | -3- आगममञ्जूषा (मूल प्रत) [53] |-3-ऋषिभाषित सूत्राणि
01 2 | आगम अनुवाद साहित्य:
165 -4- आगमिय सूक्तावली -1- सागमसूत्र गुराती अनुवाद [47] आगम साहित्य- कुल पुस्तक
516 -2- आगमसूत्र हिन्दी अनुवाद Net
[47] -3- Aagamsootra English Trans. | [11] -4- सामसूत्र सटी १४सती अनुवाद [48]| -5- आगमसूत्र हिन्दी अनुवाद print
| [12]
अन्य साहित्य:आगम विवेचन साहित्य:
171 તત્ત્વાભ્યાસ સાહિત્ય
13 -1-आगमसूत्र सटीक
[46]| 2 સૂત્રાભ્યાસ સાહિત્ય
06 1-2- आगमसूत्राणि सटीकं प्रताकार-1 [51]| 3 व्या२। साहित्य-
al
05 1-3- आगमसत्राणि सटीकं प्रताकार-2 [09] | 4 व्याख्यान साहित्य
04 1-4- आगम चूर्णि साहित्य [09] 5 हलत साहित्य
09 -5- सवृत्तिक आगमसूत्राणि-1 | [40] 6 व साहित्य|-6- सवृत्तिक आगमसूत्राणि-2 [08] 7 आराधना साहित्य -7- सचूर्णिक आगमसुत्ताणि [08]| परियय साहित्यआगम कोष साहित्य:
9 | પૂજન સાહિત્ય1-1- आगम सद्दकोसो
[04] 10 तार्थ६२ संक्षिप्त र्शन |-2- आगम कहाकोसो [01] | 11ही साहित्य
05 -3-आगम-सागर-कोष:
[05] 12 | દીપરત્નસાગરના લઘુશોધનિબંધ
05 -4- आगम-शब्दादि-संग्रह (प्रा-सं-गु)
આગમ સિવાયનું સાહિત્ય કૂલ પુસ્તક आगम अनुक्रम साहित्य:-1- सागम विषयानुभ- (भूत)
02 | 1-आगम साहित्य (कुल पुस्तक) 516 -2- आगम विषयानुक्रम (सटीक)
| 2-आगमेतर साहित्य (कुल 085 -3-आगम सूत्र-गाथा अनुक्रम
दीपरत्नसागरजी के कुल प्रकाशन | 601 જ મુનિ દીપરત્નસાગરનું સાહિત્ય // 1 भुनिटीपरत्नसागरनुं मागम साहित्य [इस पुस्तs 516] तेनास पाना [98,300] 2 भुनिटीपरत्नसागरनुं मन्य साहित्य [हुत पुस्त: 85] तना हुआ पाना [09,270] 3भुनिटीपरत्नसागर संलित 'तत्वार्थसूत्र'नी विशिष्ट DVD तनाहुल पाना [27,930]
सभाप्राशनोट 5०१ + विशिष्ट DVD इस पाना 1,35,500
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उद्देशक/सूत्र
आगम सूत्र ३४, छेदसूत्र-१, निशीथ'
[३४] निशीथ छेदसूत्र-१-हिन्दी अनुवाद
उद्देशक-१ 'निसीह' सूत्र के प्रथम उद्देशा में १ से ५८ सूत्र हैं । यह प्रत्येक सूत्र के अनुसार दोष या गलती करनेवाले को 'अनुग्घातियं' नाम का प्रायश्चित्त आता है ऐसा सूत्र के अन्त में बताया है।
दूसरे उद्देशक के आरम्भ में निसीह-भास' की दी गई गाथा के अनुसार पहले उद्देश के दोष के लिए 'गुरुमासं' - गुरुमासिक नाम का प्रायश्चित्त बताया है। मतलब कि पहले उद्देशो में बताई हुई गलती करनेवाले को गुरमासिक प्रायश्चित्त आता है। सूत्र-१
जो साधु या साध्वी खुद हस्तकर्म करे, दूसरों के पास करवाए या अन्य करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । उपस्थ विषय में जननांग सम्बन्ध से हाथ द्वारा जो अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार का आचरण करना । यहाँ हस्त विषयक मैथुन क्रिया सहित हाथ द्वारा होनेवाली सभी वैषयिक क्रियाएं समझ लेना। सूत्र-२
जो साधु-साध्वी अंगादान, जनन अंग का लकड़ी के टुकड़े, वांस की सलाखा, ऊंगली या लोहा आदि की सलाखा से संचालन करे अर्थात् उत्तेजित करने के लिए हिलाए, दूसरों के पास संचालन करवाए या संचालन करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त ।
जैसे सोए हए शेर को लकड़ी आदि से तंग करे तो वो संचालक को मार डालता है ऐसे जननांग का संचालन करनेवाले का चरित्र नष्ट होता है। सूत्र-३
जो साधु-साध्वी जननांग का मामूली मर्दन या विशेष मर्दन खुद करे, दूसरों के पास करवाए या वैसा करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त - जैसे सर्प उस मर्दन का विनाश करते हैं। ऐसे जननांग का मर्दन करनेवाले के चारित्र का ध्वंस होता है। सूत्र-४
जो साधु-साध्वी जननांग को तेल, घी, स्निग्ध पदार्थ या मक्खन से सामान्य या विशेष अभ्यंगन मर्दन करे, करवाए या करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । जैसे प्रज्वलित अग्नि में घी डालने से सब सुलगता है ऐसे जननांग का मर्दन चारित्र का विनाश करता है। सूत्र-५
जो साधु-साध्वी जननांग को चन्दन आदि मिश्रित गन्धदार द्रव्य, लोघ्र नाम के सुगंधित द्रव्य या कमलपुष्प के चूर्ण आदि उद्वर्तन द्रव्य से सामान्य या विशेष तरह से स्नान करे, पीष्टी या विशेष तरह के चूर्ण द्वारा सामान्य या विशेष मर्दन करे, करवाए या मर्दन करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । जिस तरह धारवाले शस्त्र के पुरुषन से हाथ का छेद हो ऐसे गुप्त इन्द्रिय के मर्दन से संयम का छेद हो । सूत्र-६
जो साधु-साध्वी जननांग को ठंडे या गर्म किए पानी से सामान्य या विशेष से प्रक्षालन करे यानि खुद धोए, दूसरों के पास धुलवाए या धोनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । जैसे नेत्र दर्द होता हो और कोई भी दवाई मिश्रित पानी से बार-बार धोने से दर्द दुःसा बने ऐसे गुप्तांग का बार-बार प्रक्षालन मोह का उदय पैदा करता है। मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(निशीथ)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद”
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आगम सूत्र ३४, छेदसूत्र-१, निशीथ'
उद्देशक/सूत्र सूत्र -७
जो साधु पुरुषचिह्न की चमड़ी का अपवर्तन करे, करवाए, करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त, जैसे सुख से सोनेवाले साँप का मुँह कोई खोले तो उसे साँप नीगल जाए ऐसे ऐसे मुनि का चारित्र नीगल जाता है - नष्ट हो जाता है। सूत्र-८
जो साधु-साध्वी जननांग को नाक से सूंघे या हाथ से मर्दन करके सूंघ ले या दूसरे के पास करवाए या दूसरे ऐसे दोष का सेवन करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । जैसे कोई झहरीली चीज सँघ ले तो मर जाए ऐसे अतिक्रम आदि दोष से ऐसा करनेवाला मुनि अपनी आत्मा को संयम से भ्रष्ट करता है। सूत्र -९
जो साधु जननेन्द्रिय को अन्य किसी योग्य स्रोत यानि वलय आदि छिद्र में प्रवेश करवाके शुक्र पुद्गल बाहर नीकाले, साध्वी अपने गुप्तांग में कदली फल आदि चीजे प्रवेश करवाके रज-पुद्गल बाहर नीकाले उस तरह से निर्घातन करे - करवाए या करनेवाले की अनमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र-१०
जो साधु-साध्वी सचित्त प्रतिष्ठित यानि सचित्त पानी आदि के साथ स्थापित ऐसी चीज को सूंघे, सूंघाये या सूंघानेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र-११
जो साधु-साध्वी अन्यतीर्थिक या गृहस्थ के पास चलने का मार्ग, पानी, कीचड़ आदि को पार करने का पुल या ऊपर चड़ने की सीड़ी आदि अवलम्बन खुद करे या करवाए या करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त सूत्र - १२-१८
जो साधु-साध्वी अन्य तीर्थिक या गृहस्थ के पास पानी के निकाल का नाला, भिक्षा आदि स्थापन करने का सिक्का और उसका ढक्कन, आहार या शयन के लिए सूत की या डोर की चिलिमिलि यानि परदा, सूई, कातर, नाखून छेदनी, कान-खुतरणी आदि साधन का समारकाम करवाए, धार नीकलवाए । इसमें से कोई भी काम खुद करे, दूसरों के पास करवाए या वो दोष करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र-१९-२२
जो साधु-साध्वी प्रयोजन के सिवा (गृहस्थ के पास) सूई, कातर, कान खुतरणी, नाखून छेदिका की खुद याचना करे, दूसरे के पास करवाए या याचक की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - २३-२६
___ जो साधु-साध्वी अविधि से सूई-कातर, नाखून छेदिका, कान खुतरणी की याचना स्वयं करे, अन्य से करवाए या करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - २७-३०
जो साधु-साध्वी अपने किसी कार्य के लिए सूई, कातर, नाखून छेदिका, कान खुतरणी की याचना करे, फिर दूसरे साधु-साध्वी, गृहस्थ को दे, दिलाए या देनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र-३१
जो साधु-साध्वी 'मुझे वस्त्र सीने के लिए सूई का खप-जरुरत है, काम पूरा होने पर वापस कर देंगे' ऐसा कहकर सूई की याचना करे । लाने के बाद उससे पात्र या अन्य चीज सीए यानि सीए-सीलाए या सीनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त ।
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आगम सूत्र ३४, छेदसूत्र-१, निशीथ'
उद्देशक/सूत्र सूत्र- ३२-३४
जो साधु-साध्वी वापस करूँगा ऐसे कहकर-वस्त्र फाड़ डालने के लिए कातर माँगकर पात्र या अन्य चीज काट डाले, नाखून काटने के लिए नाखून छेदिका माँगकर वो नाखून छेदिका से काँटा नीकाले, कान का मैल नीकालने के लिए कान खुतरणी माँगकर दाँत या नाखून का मैल नीकाले । यह काम खुद करे, अन्य से करवाए या करनेवाले की अनुमोदना करे (तो वहाँ भाषा समिति की स्खलना होती है, इसीलिए) प्रायश्चित्त । सूत्र-३५-३८
जो साधु-साध्वी सूई, कातर, नाखून छेदिका, कानखुतरणी अविधि से परत करे, करवाए या करनेवाले की अनुमोदना करे (जैसे दूर से फेंके आदि प्रकार से देनेवाले वायुकाय विराधना, धर्म लघुता दोष होता है) तो प्रायश्चित्त सूत्र- ३९
जो साधु-साध्वी तुंबड़ा के बरतन, लकड़ी में से बने बरतन या मिट्टी के बरतन यानि किसी भी तरह के पात्रा को अन्यतीर्थिक या गृहस्थ के पास निर्माण, संस्थापन, पात्र के मुख आदि ठीक करवाए, पात्र के किसी भी हिस्से का समारकाम करवाए, खुद करने के शक्तिमान न हो, खुद थोड़ा-सा भी करने के लिए समर्थ नहीं है ऐसे खुद की ताकत को जानते हो तो सोचकर दूसरों को दे दे और खुद वापस न ले। यह कार्य खुद करे, दूसरों के पास करवाए या ऐसा करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त ।।
सामान्य अर्थ में कहा जाए तो अपने पात्र के लिए किसी भी तरह का परिकर्म समारकाम करने की क्रिया गृहस्थ के पास करवाए या दूसरों को रखने के लिए दे दे तो उसमें छ जीव निकाय की विराधना का संभव होने से साधु-साध्वी को निषेध किया है। सूत्र -४०
जो साधु-साध्वी दंड़, लकड़ी, वर्षा आदि की कारण से पाँव में लगी कीचड़ साफ करने की शूली, वांस की शली. यह सब चीजों को अन्य तीर्थिक या गहस्थ के पास तैयार करवाए, समारकाम करवाए या किसी को दे दे। यह सब खुद करे - करवाए या अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - ४१-४२
जो साधु-साध्वी पात्र को अकारण या शोभा के लिए थिग्गल लगाता है और जो कारणविशेष से वह तूटा हो तो तीन से ज्यादा थीग्गल लगावे या साँधे - यह कार्य खुद करे - करवाए या अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र-४३-४६
जो साधु-साध्वी पात्रा को विना कारण अविधि से बन्धन से बांधे, बिना कारण एक बंधन बांधे यानि एक ही जगह बंधन लगाए, कारण हो तो भी तीन से ज्यादा अधिक बंधन बांधे, कारण वश होकर तीन से ज्यादा बंधन बांधे, बन्धे हुए पात्र देढ़ मास से ज्यादा वक्त तक रख दे । यह सब खुद करे, दूसरों के पास करवाए या करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र -४७-४८
जो साधु-साध्वी वस्त्र को बिना कारण थीगड़ा लगाए, तीन से ज्यादा जगह पर थीगड़े लगाए, दूसरों के पास लगवाए, थीगड़े लगानेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - ४९
जो साधु-साध्वी अविधि से वस्त्र सीए, सीलाए या सीनेवाले की अनुमोदना करे । (वैसा करने से प्रतिलेखना बराबर नहीं होती इसीलिए प्रायश्चित्त ।
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आगम सूत्र ३४, छेदसूत्र-१, निशीथ'
उद्देशक/सूत्र सूत्र - ५०-५५
जो साधु-साध्वी (फटे हुए वस्त्र को सीए जाए तो भी) बिना कारण एक गाँठ लगाए, फटे वस्त्र होने से या कारण वश होकर गाँठ लगानी पड़े तो भी तीन से ज्यादा गाँठ लगाए, फटे हुए दो कपड़ों को एक साथ जुड़े, फटे कपड़ों की कारण से परस्पर तीन से ज्यादा जगह पर साँधे लगाए, अविधि से कपड़ों के टुकड़े को जोड़ दे, अलगअलग तरह के कपड़ों को जोड़ दे । यह सब खुद करे, अन्य के पास करवाए या करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र-५६
जो साधु-साध्वी ज्यादा वस्त्र ग्रहण करे और वो ग्रहण किए वस्त्र को देढ़ मास से ज्यादा वक्त रखे, रखवाए या जो रखे उसकी अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - ५७
जो साधु-साध्वी जिस घर में रहे हो वहाँ अन्य तीर्थिक या गृहस्थ के पास धुंआ करवाए, करे या करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - ५८
____ जो साधु-साध्वी (आधाकर्म आदि मिश्रित ऐसा) पूतिकर्म युक्त आहार (वस्त्र, पात्र, शय्या आदि) खुद उपभोग करे, अन्य के पास करवाए या करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त ।
हस्तकर्म दोष से लेकर इस पूतिकर्म तक के जो दोष बताए उसमें से किसी भी दोष का सेवन करे, करवाए या अनुमोदना करे तो वो साधु या साध्वी को मासिक परिहार स्थान अनुद्घातिक नाम का प्रायश्चित्त आए जिसके लिए दूसरे उद्देशा के आरम्भ में कहे गए भाष्य में गुरुमासिक प्रायश्चित्त शब्द का प्रयोग किया है।
उद्देशक-१-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
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आगम सूत्र ३४, छेदसूत्र-१, निशीथ'
उद्देशक/सूत्र उद्देशक-२ निसीह'' सूत्र के इस दूसरे उद्देशक में ५९ से ११७ उस तरह से कुल ५९ सूत्र हैं । इस प्रत्येक सूत्र में बताए दोष का त्रिविध से सेवन करनेवाले 'उग्घातियम्' नाम का प्रायश्चित्त आता है ऐसा उद्देशक के अन्त में बताया है। दूसरे उद्देशक की शुरूआत में दे गइ भाष्य गाथा अनुसार उसे 'लहुमासं' प्रायश्चित्त से पहचाना जाता है। सूत्र-५९
जो साधु-साध्वी लकड़ी के दंड़वाला पादप्रौछनक करे । अर्थात् निषद्यादि दो वस्त्र रहित ऐसे केवल लकड़े की दांडीवाला रजोहरण करे । वो खुद न करे, न करवाए, करनेवाले की अनुमोदना न करे । सूत्र-६०-६६
जो साधु-साध्वी इस तरह निषद्यादि दो वस्त्र रहित का केवल लकड़ी की दंडीवाला पादप्रोछनक अर्थात् रजोहरण ग्रहण करे, धारण करे अर्थात् रखे, वितरण करे यानि कि दूसरों को दे दे, परिभोग करे यानि कि उससे प्रमार्जन आदि कार्य करे, किसी विशेष कारण या हालात की कारण से ऐसा रजोहरण रखना पड़े तो भी देढ़ मास से ज्यादा वक्त रखे, ताप देने के लिए खोलकर अलग रखे । इन सर्व दोष का खुद सेवन करे, अन्य से सेवन करवाए या सेवन करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र-६७
जो साधु-साध्वी अचित्त वस्तु साथ में या पास रखी चीज खुद सूंघे, दूसरों को सूंघाए या सूंघनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र-६८
जो साधु-साध्वी पगवटी यानि कि गमनागमन का मार्ग-कीचड़ आदि पार करने के लिए लकड़ी आदि से संक्रम, खाई आदि पार करने के लिए रस्सी का या अन्य वैसा आलम्बन करे, करवाए, करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - ६९-७१
जो साधु-साध्वी पानी नीकालने की नीक या गटर, आहार, पात्रादि की स्थापना के लिए सीक्का और उसका ढक्कन, सूत का या डोर का पर्दा खुद करे, दूसरों के पास करवाए या करनेवाले को अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र-७२-७५
जो साधु-साध्वी सूई, कातर, नाखून छेदिका, कान खुतरणी, आदि की सुधारणा, धार नीकालना आदि खुद करे, दूसरों से करवाए या अनुमोदना करे । सूत्र - ७६-७७
जो साधु-साध्वी थोड़ा लेकिन कठोर या असत्य वचन बोले, बुलवाए या बोलनेवाले की अनुमोदना करे (भाषा समिति का भंग होने से) तो प्रायश्चित्त । सूत्र - ७८
जो साधु-साध्वी थोड़ा लेकिन अदत्त अर्थात् किसी चीज के स्वामी से नहीं दिया हआ ग्रहण करे, करवाए या उसे लेनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र-७९
जो साधु-साध्वी थोड़ा-अल्प बूंद जिनता अचित्त ऐसा ठंडा या गर्म पानी लेकर हाथ-पाँव-कान-आँख-दाँतनाखून या मुँह एक बार या बार-बार धोए, धुलाए या धोनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त ।
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आगम सूत्र ३४, छेदसूत्र-१, निशीथ'
उद्देशक/सूत्र सूत्र-८०
जो साधु-साध्वी अखंड़ ऐसे चमड़े को धारण करे अर्थात् पास रखे या उपभोग करे (चमड़े के बने उपानह, उपकरण आदि रखने की कल्पना न करे), करवाए या करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र-८१-८२
जो साधु-साध्वी, प्रमाण से ज्यादा और अखंड वस्त्र धारण करे - उपभोग करे, उपभोग करवाए या उसकी अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । (ज्यादा वस्त्र हो या पूरा कपड़ा या अखंड लम्बा वस्त्र रखने से पडिलेहण आदि न हो सके । जीव विराधना मुमकीन बने, इसलिए शास्त्रीय नाप अनुसार वस्त्र रखे । लेकिन अखंड़ वस्त्र न रखे ।) सूत्र- ८३
जो साधु-साध्वी तुंबड़ा का, लकड़े का या मिट्टी का पात्र बनाए, उसका किसी हिस्सा या मुख बनाए, उसके विषम हिस्से को सीधा करे, विशेष में उसके किसी हिस्से का समारकाम करे अर्थात् इसमें से किसी परिकर्म खुद करे, दूसरों से करवाए या वैसा करनेवाले साधु-साध्वी की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । (पहले तैयार हुए और कल्पे ऐसे पात्र निर्दोष भिक्षा मिले तो ही लेने । इस तरह के समारकाम से छकाय विराधना आदि दोष मुमकीन है। सूत्र-८४ ___ जो साधु-साध्वी दंड, दांडी, पाँव में लगे कीचड़ को ऊखेड़ने की शूली, वांस की शूली, खुद बनाए, उसके किसी विशेष आकार की रचना करे, आड़े-टेढ़े को सीधा करे । या सामान्य या विशेष से उसका किसी समारकाम करे - करवाए या करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र-८५-८९
जो साधु-साध्वी भाई-बहन आदि स्वजन से, स्वजन के सिवा पराये, परजन से, वसति, श्रावकसंघ आदि की मुखिया व्यक्ति से, शरीर आदि से बलवान से, वाचाल, दान का फल आदि दिखाकर कुछ पा सके वैसी व्यक्ति से गवेषित मतलब प्राप्त किया पात्र ग्रहण करे, रखे, धारण करे, अन्य से करवाए या करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । (स्वयं गवेषणा करके निर्दोष और कल्पे ऐसे पात्र धारण करना ।) सूत्र- ९०-९४
जो साधु-साध्वी हमेशा अग्रपिंड़ मतलब भोजन से पहले अलग किया गया या विशेष ऐसा, एक ही घर से पूर्ण मतलब सबकुछ, बरतन, थाली आदि में से आधा या तीसरे-चौथे हिस्से का, दान के लिए नीकाले गए हिस्से का, छठे हिस्से का पिंड़ मतलब आहार या भोजन ले यानि कि उपभोग करे, करवाए या करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त। (ऐसा करने में निमंत्रणा, दूसरों को आहार में अंतराय, राग, आज्ञाभंग आदि दोष की संभावना है सूत्र-९५
जो साधु-साध्वी (बिना कारण मासकल्प आदि शास्त्रीय मर्यादा भंग करके) एक जगह हमेशा निवास करे, करवाए या करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - ९६
जो साधु-साध्वी (वस्त्र-पात्र-आहार आदि) दान ग्रहण करने से पहले और ग्रहण करने के बाद (वस्तु या दाता की) प्रशंसा करे, परिचय करे, करवाए या अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र- ९७
जो साधु-साध्वी फिर वो 'समाण' – गृद्धि रहित और मर्यादा से स्थिर निवास रहा हो, 'वसमाण' नवकल्प विहार के पालन करने में रहे हो, वो एक गाँव से दसरे गाँव विहार करनेवाले बचपन से पूर्व पहचानवाले ऐसे या जवानी के परिचित बने ऐसे रागवाले कुल-घर में भिक्षा, चर्या से पहले जाकर अपने आगमन का निवेदन करके,
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आगम सूत्र ३४, छेदसूत्र-१, निशीथ'
उद्देशक/सूत्र फिर उन घरों में भिक्षा के लिए जाए । दूसरों को भेजे या भेजनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र- ९८
जो साधु-साध्वी अन्य तीर्थिक, गृहस्थ, 'परिहारिक' अर्थात् मूल-उत्तरगुणवाले तपस्वी या 'अपारिहारिक' अर्थात् मूल-उत्तरगुण में दोषवाले पासत्था के साथ गृहस्थ के कुल में भिक्षा लेने की बूद्धि से, भिक्षा लेने के लिए या भिक्षा लेकर प्रवेश करे या बाहर नीकले, दूसरों को वैसी प्रेरणा दे या वैसा करनेवाले के अनुमोदे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - ९९-१००
जो साधु-साध्वी अन्यतीर्थिक, गृहस्थ, पारिहारिक या अपारिहारिक के साथ (अपने उपाश्रय-वसति की हद) बाहर विचारभूमि' मल, मूत्र आदि के लिए जाने कि जगह या विहारभूमि' स्वाध्याय के लिए की जगह में प्रवेश करे या वहाँ से बाहर नीकले, उक्त अन्य तीर्थिक आदि चार के साथ एक गाँव से दूसरे गाँव विचरण करे । यह काम दूसरों से करवाए, करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र-१०१-१०२
जो साधु-साध्वी अनेक प्रकार का आहार अलग-अलग तरह के पानी पड़िगाहे यानि ग्रहण करे फिर मनोज्ञ, वर्ण, गंध, रस आदि युक्त आहार पानी खाए, पीए और अमनोज्ञ-वर्ग आदि आहार-पानी परठवे । सूत्र- १०३
जो साधु-साध्वी मनोज्ञ-शुभ वर्ण, गंध आदि युक्त उत्तम तरह के अनेकविध आहार आदि लाकर इस्तमाल करे, (खाए-पीए) फिर बचा हुआ आहार पास ही में रहे जिनके साथ मांडलि व्यवहार हो ऐसे, निरतिचार चारित्र वाले समनोज्ञ साधर्मिक (साधु-साध्वी) को बिना पूछे, न्यौता दिए बिना परठवे, परठवावे या परठवनावाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - १०४-१०५
जो साधु-साध्वी सागारिक मतलब सज्जात्तर यानि कि वसति का अधिपति या स्थान दाता गृहस्थ, उसका लाया हुआ आहार आदि ग्रहण करे और इस्तमाल करे यह काम खुद करे, करवाए या अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त। सूत्र-१०६
जो साधु-साध्वी सागारिक यानि कि सज्जात्तर के कुल घर आदि की जानकारी के सिवा, पहले देखे हुए घर हो तो पूछकर तय करने के सिवा और न देखे हुए घर हो तब उस घर की गवेषणा - ढूँढ़े बिना इस तरह से जानने, पूछने या गवेषणा करने के बिना ही आहार ग्रहण करने के लिए वो कुल-घर में प्रवेश करे-करवाए या अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र-१०७
जो साधु-साध्वी श्रावक के परिचय रूप निश्रा का सहारा लेकर असन, पान, खादिम समान चार तरह के आहार में से किसी तरह का आहार, विशिष्ट वचन बोलकर याचना करे, करवाए या अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त ।
यहाँ निश्रा यानि परिचय अर्थ किया । जिसमें पूर्व का या किसी रिश्ते का इस्तमाल करके स्वजन की पहचान करवाके उसके द्वारा कुछ भी याचना करना । सूत्र- १०८
जो साधु-साध्वी ऋतुबद्धकाल सम्बन्धी शय्या, संथारा (आदि) का पर्युषण के बाद यानि कि चातुर्मास के बाद शर्दी-गर्मी आदि शेषकाल में उल्लंघन करे अर्थात शेषकाल के लिए याचना की गई शय्या. संथारा. आदि उसकी समय मर्यादा परी होने के बाद भी इस्तमाल करे, करवाए या उसकी अनमोदना करे तो प्रायश्चि
यहाँ संवत्सरी से लेकर ७० दिन के कल्प को लेकर बताया है । यानि संवत्सरी पूर्व विहार चालू हो लेकिन मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(निशीथ)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद”
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आगम सूत्र ३४, छेदसूत्र-१, 'निशीथ'
उद्देशक/सूत्र पर्युषण से ७० दिन की स्थिरता करनी होने से उससे पहले ग्रहण की शय्या संथारा परत करना ऐसा मतलब हो । लेकिन वर्तमानकाल की प्रणालि अनुसार ऐसा अर्थ हो सके कि शेषकाल मतलब शर्दी-गर्मी में ग्रहण की शय्या आदि वर्षाऋतु से पहले उसके दाता को परत करना या पुनः इस्तमाल के लिए परवानगी माँगना। सूत्र - १०९
जो साधु-साध्वी वर्षाऋतु में उपभोग करने के लिए लाया गया शय्या, संथारा, वर्षाऋतु बीतने के बाद दश रात्रि तक उपभोग कर सके, लेकिन उस समय मर्यादा का उल्लंघन करे, करवाए या अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - ११०
जो साधु-साध्वी वर्षाकाल या शेषकाल के लिए याचना करके लाई हुई शय्या संथारा वर्षा से भीगा हुआ देखने-जानने के बाद उसे न खोले, प्रसारकर सूख जाए उस तरह से न रखे, न रखवाए या उस तरह से शय्यादि खुले न करनेवाले की अनुमोदना करे । सूत्र - १११-११३
जो साधु-साध्वी प्रातिहारिक यानि कि श्रावक से वापस देने का कहकर लाया गया, सागारिक यानि कि शय्यातर आदि गृहस्थ के पास से लाया हुआ शय्या-संथारा या दोनों तरह से शय्यादि दूसरी बार परवानगी लिए बिना, दूसरी जगह, उस वसति के बाहर खुद ले जाए, दूसरों को ले जाने के लिए प्रेरित करे या ले जानेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - ११४-११६
जो साधु-साध्वी प्रातिहारिक यानि वापस देने लायक या शय्यातर आदि गृहस्थ से लाकर या दोनों तरह के शय्या-संथारा (आदि) जिस तरह से लाया हो उसी तरह से वापस न दे, ठीक किए बिना, वापस करे बिना विहार करे, खो जाए या ढूँढे नहीं तो प्रायश्चित्त । सूत्र-११७
___ जो साधु-साध्वी अल्प या कम मात्रा में भी उपधिवस्त्र का पडिलेहण न करे, न करवाए या न करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त ।
यहाँ दूसरे में जो दोष बताए उसमें से किसी भी दोष खुद सेवन करे, करवाए या अनुमोदना करे तो उसे 'मासियं परिहारठाणं उग्घातियं प्रायश्चित्त आए जिसके लिए लघुमासिक प्रायश्चित्त शब्द भी योजित हुआ है।
उद्देशक-२-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
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आगम सूत्र ३४, छेदसूत्र-१, निशीथ'
उद्देशक/सूत्र उद्देशक-३ "निसीह सूत्र के इस तीसरे उद्देशक में ११८ से १९६ इस प्रकार कुल ७९ सूत्र हैं । जिसमें बताए हुए दोष में किसी भी दोष का त्रिविधे सेवन करनेवाले को 'उग्घातियं नाम का प्रायश्चित्त आता है जिसे लघुमासिक प्रायश्चित्त रूप से पहचाना जाता है। सूत्र-११८-१२९
जो साधु-साध्वी धर्मशाला, उपवन, गाथापति का कुल या तापस के निवास स्थान में रहे अन्यतीर्थिक या गृहस्थ ऐसे किसी एक पुरुष, कईं पुरुष या एक स्त्री, कईं स्त्रियों के पास १. दीनता पूर्वक (ओ भाई ! ओ बहन मुझे कोई दे उस तरह से) २. कुतूहल से, ३. एक बार सामने से लाकर दे तब पहले 'ना' कहे, फिर उसके पीछेपीछे जाकर या आगे-पीछे उसके पास खडा रहकर या बक-बक करके (जैसे कि ठीक है अब तम ले आए हो तो, रख ले ऐसा बोलना) इन तीनों में से किसी भी तरह से अशन-पान-खादिम-स्वादिम इन चार तरह के आहार में से कुछ भी याचना करे या माँगे, याचना करवाए या उस तरह से याचना करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - १३०
जो साधु-साध्वी गृहस्थ कुल में अशन-पान आदि आहार ग्रहण करने की ईच्छा से प्रवेश करे मतलब भिक्षा के लिए जाए तब गृहस्वामी निषेध करे तो भी दूसरी बार उसके कुल-घर में आज्ञा लिए बिना प्रवेश करे-करवाए या करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र-१३१
जो साधु-साध्वी संखड़ी अर्थात् जहाँ कईं लोग भोजन के लिए ईकटे हुए हो यानि कि भोजन समारम्भ हो (छ काय जीव विराधना की विशेष संभावना होने से) उस जगह अशन, पान, खादिम, स्वादिम को लेने के लिए जाए, दूसरों को भेजे या जानेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - १३२
जो साधु-साध्वी गृहस्थकुल-घर में भिक्षा के लिए जाए तब तीन घर (कमरे) से ज्यादा दूर से लाए गए शन, पान, खादिम, स्वादिम दे (वहोरावे) तब जो कोई वो अशन आदि ग्रहण करे, करवाए या अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त। सूत्र-१३३-१३८
जो साधु-साध्वी अपने पाँव के (मैल निवारण या शोभा बढ़ाने के लिए) एक या बारबार प्रमार्जन करे, साफ करे, पाँव की मालिश करे, तेल, घी, मक्खन या चरबी से मर्दन करे, लोघ्र (नामका एक द्रव्य), कल्क (कईं द्रव्य मिश्रित द्रव्य), चूर्ण (गन्धदार द्रव्य), वर्ण (अबील आदि द्रव्य) । कमल चूर्ण, उसके द्वारा मर्दन करे, अचित्त किए गए ठंड़े या गर्म पानी से प्रक्षालन करे उससे पहले किसी द्रव्य से लींपकर सूखाने के लिए फूंक मारे या रंग दे यह सब करे, करवाए या अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - १३९-१४४
जो साधु-साध्वी अपनी काया-यानि की शरीर को एक या ज्यादा बार प्रमार्जन करे, मालीश करे, मर्दन करे, प्रक्षालन करे, रंग दे (यह सब सूत्र १३३ से १३८ की तरह समझ लेना) तो प्रायश्चित्त । सूत्र-१४५-१५०
जो साधु-साध्वी अपने व्रण जैसे कि कोढ़, दाद, खुजली, गंडमाल, लगने से या गिरने से होनेवाले झखम आदि का (सूत्र १३३ से १३८ में बताने के अनुसार) प्रमार्जन, मर्दन, प्रक्षालन, रंगना, मालीश आदि करे, करवाए या अनुमोदना करे।
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आगम सूत्र ३४, छेदसूत्र-१, निशीथ'
उद्देशक/सूत्र सूत्र - १५१-१५६
जो साधु-साध्वी अपने शरीर में रहे गुमड़, फोल्ले, मसा, भगंदर आदि व्रण किसी तीक्ष्ण शस्त्र द्वारा एक या कईं बार छेदन करे, छेदन करके खून नीकाले या विशुद्धि-सफाई करे, लहू या पानी नीकलने बाद अचित्त ऐसे शीत या उष्ण जल से एक या कईं बार प्रक्षालन करे, प्रक्षालन करने के बाद या कई बार उस पर लेप या मल्हम लगाए, उसके बाद तेल, घी, मक्खन या चरबी से एक या कईं बार मर्दन करे, उसके बाद किसी भी तरह के धूप से वहाँ धूप करे या सुगंधी करे । इसमें से किसी भी दोष का सेवन करे, करवाए या करनेवाले के अनुमोदे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - १५७
जो साधु-साध्वी अपनी गुदा में या नाभि में रहे क्षुद्र या छोटे जीव कृमि आदि को ऊंगली डालकर बाहर नीकाले, नीकलवाए या नीकालनेवाले की अनुमोदना करे । सूत्र-१५८
जो साधु-साध्वी अपने बढ़े हुए नाखून के आगे के हिस्से को काटे, शोभा बढ़ाने के लिए संस्कार करे, करवाए या अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - १५९-१६३
जो साधु-साध्वी अपने बढ़े हुए जाँघ के, गुह्य हिस्से के, रोमराजि के, बगल के, दाढ़ी-मूंछ आदि के बाल काटे, कटवाए, काटनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - १६४-१६६
जो साधु-साध्वी अपने दाँत एक या अनेकबार (नमक-क्षार आदि से) घिसे, धुए, मुँह के वायु से फूंक मारकर या रंगने के द्रव्य से रंग दे यह काम खुद करे, करवाए या अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - १६७-१७२
जो साधु-साध्वी अपने होठ एक बार या बार-बार प्रमार्जन करे, धोए, परिमर्दन करे, तेल, घी, चरबी या मक्खन से मर्दन-मालीश करे, लोघ्र (नामक द्रव्य), कल्क (कईं द्रव्यमिश्रित द्रव्य विशेष), चूर्ण (गन्धदार द्रव्य), वर्ण (अबील आदि द्रव्य) या पद्म चूर्ण से मर्दन करे, अचित्त ऐसे ठंड़े या गर्म पानी से धोए, रंग दे, यह कार्य करे, करवाए या अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - १७३-१७४
जो साधु-साध्वी अपने लम्बे बढ़े हुए श्मश्रू-मूंछ के बाल, आँख की भँवर के बाल काटे, शोभा बढ़ाने के लिए ठीक करे, दूसरों के पास ऐसा करवाए या ऐसा करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - १७५-१८०
जो साधु-साध्वी अपनी आँख को एकबार या कईं बार (सूत्र १६७ से १७२ में होठ के बारे में बताया उस तरह) धुए, परिमर्दन करे, मालीश करे, मर्दन करे, प्रक्षालन करे, रंग दे, यह काम खुद करे, करवाए या अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - १८१-१८२
जो साधु-साध्वी अपने लम्बे बढ़े भ्रमर के बाल, बगल के बाल कटवाए या शोभा बढ़ाने के लिए ठीक करे, दूसरों के पास वैसा करवाए या अनुमोदना करे । सूत्र - १८३
जो साधु-साध्वी अपने आँख, कान, दाँत, नाखून का मैल नीकाले, नीकलवाए या वैसा करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त ।
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आगम सूत्र ३४, छेदसूत्र-१, निशीथ'
उद्देशक/सूत्र सूत्र - १८४
जो साधु-साध्वी अपने शरीर का पसीना, मैल, पसीना और धूल से ढ़ग बने कचरे का थर, या लहू के भींगड़े आदि समान किसी भी कचरे को नीकाले या विशुद्ध करे, करवाए या अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - १८५
जो साधु-साध्वी एक गाँव से दूसरे गाँव विहार करते हुए अपने सिर को ढंके, आवरण से आच्छादित करे, करवाए या अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - १८६
जो साधु-साध्वी शण, ऊनी, सूत या वैसी चीज में से वशीकरण का धागा बनाए, बनवाए या बनानेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - १८७-१९५
जो साधु-साध्वी घर के आँगन के पास, दरवाजे पर, अंतर द्वार पर, अग्र हिस्से में, आँगन में या मूत्र-विष्टा निवारण स्थान में, मृतकगृह में, मुर्दा जलाने के बाद ईकट्ठी हुई भस्म की जगह, स्मशान के पास मृतक को थोड़ी देर रखी जाए उसी जगह, मुर्दा जलाने की जगह पर की गई डेरी की जगह, मृतक दहन स्थान पर या मृतक की हड्डियाँ जहाँ डाली जाती हो वहाँ, अंगार, क्षार, गात्र (रोगाक्रान्त पशु के - वो अवयव) तुस (नीभाडो) या भूसु सुलगाने की जगह पर, कीचड़ या नील-फूल हो उस जगह, नवनिर्मित ऐसा तबेला, मिट्टी की खाण, या हल चलाई हुई भूमि में, उदुम्बर, न्यग्रोध या पीपल के पेड़ के फल को गिरने की जगह पर, ईख, कसूम्बा या कपास के जंगल में, डाग (वनस्पति का नाम है), मूली, धनिया, जीरा, दमनक (वनस्पति) या मरुक (वनस्पति) रखने की जगह, अशोक, सप्तवर्ण, चंपक या आम के वन में, यह या ऐसे किसी भी तरह के पानवाले, पुष्प-फल-छाँववाले पेड़ के समूह हो उस जगह में (उक्त सभी जगह में से किसी भी जगह) मल, मूत्र परठवे, परठवाए या परठवनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - १९६
जो साधु-साध्वी दिन में, रात में या विकाल-संध्या के वक्त मल-मूत्र स्थापन करके सूर्योदय से पहले परठवे, परठवाए या परठवनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त ।
इस उद्देशक में कहे अनुसार के किसी भी दोष त्रिविधे सेवन करे तो उसे मासिक परिहारस्थान उद्घातिक प्रायश्चित्त आए जिसे लघुमासिक प्रायश्चित्त भी कहते हैं।
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आगम सूत्र ३४, छेदसूत्र-१, निशीथ'
उद्देशक/सूत्र उद्देशक-४ 'निसीह'' सूत्र के इस चौथे उद्देशक में १९७ से ३१३ उस तरह से कुल मिलाके ११७ सूत्र हैं । जिसमें बताए अनुसार किसी भी दोष का त्रिविधे सेवन करनेवाले को मासियं परिहारठाणं उग्घातियं' नाम का प्रायश्चित्त आता है । जिसे लघुमासिक प्रायश्चित्त भी कहते हैं। सूत्र- १९७-१९९
जो साधु-साध्वी राजा को वश करे, प्रशंसा करे, आकर्षित करे-करवाए या करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - २००-२१४
जो साधु-साध्वी राजा के रक्षक को, नगर रक्षक को, निगम यानि कि व्यापार के स्थान के रक्षक को, देश रक्षक को, सर्व रक्षक को (इस पाँच में से किसी को भी) वश करे, प्रशंसा करे, आकर्षित करे, वैसा करवाए या वैसा करनेवाले की अनुमोदना करे । सूत्र-२१५
जो साधु-साध्वी अखंडित या सचित्त औषधि (अर्थात् सचित्त धान्य या सचित्त बीज) खुद खाए, दूसरों को खीलाए या खानेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - २१६
जो साधु-साध्वी आचार्य-उपाध्याय (किसी भी रत्नाधिक) को मालूम किए बिना (आज्ञा लिए सिवा) दहीं, दूध आदि विगइ खुद खाए, खिलाए या खानेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - २१७
जो साधु-साध्वी स्थापना कुल को (जहाँ साधु निमित्त से अन्न-पान आदि की स्थापना की जाती है उस कुल को) जाने-पूछे-पूर्वे गवेषणा किए बिना आहार ग्रहण करने की इच्छा से उस कुल में प्रवेश करे या करवाए या अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र-२१८
जो साधु-साध्वी के उपाश्रय में अविधि से प्रवेश करे, करवाए या करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - २१९
जो साधु-साध्वी के आने के मार्ग में दंड़ी, लकड़ी, रजोहरण, मुहपत्ति या अन्य किसी भी उपकरण को रखे, रखवाए या रखनेवाले की अनुमोदना करे । सूत्र - २२०-२२१
जो साधु-साध्वी नए या अविद्यमान क्लेश पैदा करे, खमाए हुए या उपशान्त हुए पुराने क्लेश को पुनः उद्दीकरण करे, करवाए या अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - २२२
जो साधु-साध्वी मुँह फाड़कर यानि की खुशखुशहाल हँसे, हँसाए या हँसनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - २२३-२३२
जो साधु (या साध्वी) पासत्था (ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तप की समीप रहे फिर भी उसकी आराधना न करे वो), ओसन्ना (अवसन्न या शिथिल), कुशील, नीत्यक (नीच या अधम), संसक्त (संबद्ध) इन पाँच में से किसी को
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आगम सूत्र ३४, छेदसूत्र-१, 'निशीथ'
उद्देशक/सूत्र भी अपने संघाड़ा के साधु (या साध्वी) देवें, दिलाए या देनेवाले की अनुमोदना करे, उसके संघाड़ा के साधु (या साध्वी) का स्वीकार करे, करवाए या अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - २३३
जो साधु-साध्वी सचित्त पानी से भीगे हुए हाथ, मिट्टी का पात्र, कड़छी या किसी भी धातु का पात्र (मतलब सचित्त, पानी-अपकाय के संसर्गवाले) अशन-पान, खादिम, स्वादिम उन चार में से किसी भी तरह का आहार ग्रहण करे, करवाए या अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र- २३४
उपरोक्त सूत्र २३३ में बताने के अनुसार उस तरह कुल २१ भेद जानने चाहिए, वो इस प्रकार - स्निग्ध यानि कि कम मात्रा में भी सचित्त पानी का गीलापन हो. सचित्त ऐसी - रज, मिटी, तषार, नमक शिल, पिली मिट्टी, गैरिक धातु, सफेद मिट्टी, हिंगलोक, अंजन, लोघ्रद्रव्य कुक्कुसद्रव्य, गोधूम आदि चूर्ण, कंद, मूल, शृंगबेर (अदरख), पुष्प, कोष्ठपुर (गन्धदार द्रव्य) संक्षेप में कहा जाए तो सचित्त अप्काय (पृथ्वीकाय या वनस्पति काय से संश्लिष्ट ऐसे हाथ या पात्र या कडछी हो और उसके द्वारा किसी अशन आदि चार में से किसी तरह का आहार दे तब ग्रहण करे, करवाए या अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - २३५-२४९
जो साधु-साध्वी ग्रामारक्षक को, देशारक्षक को, सीमारक्षक को, अरण्यारक्षक को, सर्वरक्षक को (इन पाँच या उसमें से किसी को) वश करे, खुश करे, आकर्षित करे, करवाए या वैसा करनेवाले को अनुमोदे तो प्रायश्चित्त । सूत्र-२५०-३०२
जो किसी साधु-साध्वी आपस में यानि की साधु-साधु के और साध्वी-साध्वी के बताए अनुसार कार्य करे, करवाए या करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त ।
(यह सर्व कार्य का विवरण उद्देशक-३ के सूत्र-१३३ से १८५ में आता है, उसी ५३ दोष की बात यहाँ समझना) जैसे कि जो कोई साधु-साधु या साध्वी-साध्वी आपस में एक दूसरे के पाँव को एक बार या बार-बार प्रमार्जन करे, साफ करे, (वहाँ से आरम्भ करके) जो कोई साधु-साधु या साध्वी-साध्वी एक गाँव से दूसरे गाँव विचरते हुए एक दूसरे के सिर को आवरण करे-ढंके (तब तक के ५३ सूत्र तीसरे उद्देशक में कहे अनुसार जानना ।) सूत्र-३०३-३०४
जो साधु-साध्वी मल, मूत्र त्याग करने की भूमि का - अन्तिम पोरिसी से (संध्या समय पहले) पडिलेहण न करे, तीन भूमि यानि तीन मंडल तक या गिनती में तीन अलग-अलग भूमि का पडिलेहण न करे, न करवाए या न करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - ३०५-३०६
जो साधु-साध्वी एक हाथ से कम मात्रावाली लम्बी, चौड़ी अचित्त भूमि में (और शायद) अविधि से (प्रमार्जन या प्रतिलेखन किए बिना, जीवाकुल भुमि में) मल-मूत्र का त्याग करे, करवाए या करनेवाले की अनुमोदना करे। सूत्र-३०७-३०८
जो साधु-साध्वी मल-मूत्र त्याग करने के बाद मलद्वार को साफ न करे, बांस या वैसी लकड़े की चीर, ऊंगली या धातु की शलाखा से मलद्वार साफ करे, करवाए या करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - ३०९-३१२
जो साधु-साध्वी मल-मूत्र का त्याग करने के बाद मलद्वार की शुचि न करे, केवल मलद्वार की ही शुद्धि करे, (हाथ या अन्य जगह पर लगे मत्र की शद्धि न करे) काफी दर जाकर शद्धि करे, नाँव के अ
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आगम सूत्र ३४, छेदसूत्र-१, निशीथ'
उद्देशक/सूत्र पसली जिसे दो हाथ ईकट्ठे करके, ऐसी तीन पसली से ज्यादा पानी से शुद्धि करे यह दोष खुद करे, करवाए या करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र-३१३
जो साधु-साध्वी अपरिहारिक हो यानि कि जिसे परिहार नाम का प्रायश्चित्त नहीं आया ऐसे शुद्ध आचार वाले हो ऐसे साधु-साध्वी, परिहार नाम का प्रायश्चित्त कर रहे साधु-साध्वी को कहे कि हे आर्य ! (हे आर्या !) चलो हम दोनो साथ अशन-पान-खादिम-स्वादिम ग्रहण करने के लिए जाए । ग्रहण करके अपनी-अपनी जगह आहार पान करेंगे, यदि वो ऐसा बोले, बुलवाए या बुलानेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त ।।
इस प्रकार उद्देशक ३-४ में बताए अनुसार किसी भी एक या ज्यादा दोष खुद सेवन करे, दूसरों के पास सेवन करवाए या उन दोष का सेवन करनेवाले की अनुमोदना करे तो उसे मासिक परिहार स्थान उद्घातिक नाम का प्रायश्चित्त आता है जिसे 'लघुमासिक' प्रायश्चित्त कहते हैं।
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आगम सूत्र ३४, छेदसूत्र-१, निशीथ'
उद्देशक/सूत्र उद्देशक-५ 'निसीह'' सूत्र के इस उद्देशक में ३१४ से ३९२ इस तरह से कुल ७९ सूत्र हैं । जिसमें से किसी भी दोष का त्रिविध से सेवन करनेवाले को 'मासियं परिहाठाणं-उग्घातियं' नामका प्रायश्चित्त आता है। जिसे 'लघुमासिक प्रायश्चित्त' कहते हैं। सूत्र-३१४-३२४
जो साधु-साध्वी पेड़ की जड़-स्कंध के आसपास की सचित्त भूमि पर खड़े रहकर, एकबार या बार बार आसपास देखे, अवलोकन करे, खड़े रहे, शरीर प्रमाण शय्या करे, बैठे, पासा बदले, असन, पान, खादिम, स्वादिम रूप आहार करे, मल-मूत्र का त्याग करे, स्वाध्याय करे, सूत्र अर्थ तदुभय रूप सज्झाय का उद्देशके करे, बारबार सज्झाय पठन या समुद्देश करे, सज्झाय के लिए अनुज्ञा प्रदान करे, सूत्रार्थरूप स्वाध्याय वाचना दे, आचार्य आदि से दी गई स्वाध्याय, वाचना ग्रहण करे, स्वाध्याय की परावर्तना करे, इसमें से कोई भी कार्य खुद करे, करवाए या अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र- ३२५-३२६
जो साधु-साध्वी अपनी संघाटिका यानि की ओढ़ने का वस्त्र, जिसे कपड़ा कहते हैं वो - परतीर्थिक, गृहस्थ या श्रावक के पास सीलाई करवाए, उस कपड़े को दीर्घसूत्री करे, मतलब शोभा आदि के लिए लम्बा धागा डलवाए, दूसरों को वैसा करने के लिए प्रेरित करे या वैसा करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र- ३२७
जो साधु-साध्वी नीम के, परवर के या बिली के पान को अचित्त किए हए ठंडे या गर्म पानी में धोकर पीसकर खाए, खिलाए या खानेवाले की अनुमोदना करे । सूत्र- ३२८-३३५
जो साधु-साध्वी प्रातिहारिक का (शय्यातर आदि के पास से वापस देने का कहकर लाया गया प्रातिहारिक), सागरिक (अन्य किसी गृहस्थ) का पाद प्रोंछनक अर्थात् रजोहरण, दंड, लकड़ी, पाँव में लगा कीचड़ ऊखेड़ने की शलाखा विशेष या वाँस की शलाखा, उसी रात को या अगली सुबह को वापस कर दूँगा ऐसा कहकर लाने के बाद निर्दिष्ट वक्त पर वापस न करे यानि कि शाम के बजाय सुबह दे या सुबह के बजाय शाम को दे, दिलाए या देनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र-३३६-३३८
जो साधु-साध्वी प्रातिहारिक (शय्यातर), सागरिक (अन्य किसी गृहस्थ, या दोनों की शय्या, संथारा वापस देने के बाद वो शय्या, संथारा दूसरी बार आज्ञा लिए बिना (याचना किए सिवा) इस्तमाल करे यानि खुद उपभोग करे, करवाए या अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र-३३९
जो साधु-साध्वी शण-ऊनी, पोंड़ या अमिल के धागे बनाए । (किसी वस्त्र आदि के अन्तिम हिस्से में रहे धागे को लम्बा करे, शोभा बढ़ाने के लिए बुने, दूसरे के पास वैसा करवाए या करनेवाले की अनुमोदना करे ।) सूत्र- ३४०-३४८
जो साधु-साध्वी सचित्त, रंगीन, कईं रंग से आकर्षक, ऐसे सीसम की लकड़ी का, वांसा का या नेतर का बनाए, धारण करे, उपभोग करे, यह कार्य करे, करवाए या अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - ३४९-३५०
जो साधु-साध्वी नए बसे हुए गाँव, नगर, खेड़, कब्बड़, मंडल, द्रोणमुख, पट्टण, आश्रम, घर, निगम, शहर,
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आगम सूत्र ३४, छेदसूत्र-१, 'निशीथ'
उद्देशक/सूत्र राजधानी या संनिवेश में, लोहा, ताम्र, जसत, सीसुं, चाँदी, सोना, रत्न की खान में, प्रवेश करके अशन-पानखादिम-स्वादिम ग्रहण करे-करवाए या अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त ।
नए गाँव में साधु-साध्वी प्रवेश करे तब लोग मंगलभूत माने, भाव उल्लास बढ़े तो निमित्त आदि दोषयुक्त आहार तैयार करे, अमंगल माने वहाँ निवास करे तो अंतराय हो । और फिर नई बस्ती में सचित्त पृथ्वी, अपकाय, वनस्पतिकाय आदि विराधना की संभावना रहे, खान आदि सचित्त हो इसलिए संयम की और गिरने से आत्मविराधना मुमकीन हो। सूत्र-३५१-३७४
जो साधु-साध्वी मुख, दाँत, होठ, नाक, बगल, हाथ, नाखून, पान, पुष्प, फल, बीज, हरीत वनस्पति से वीणा बनाए यानि कि वैसा करे, मुख आदि से वीणा जैसे शब्द करे, करवाए या करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र-३७५-३७७
जो साधु-साध्वी औदेशिक (साधु के निमित्त से बनी) सप्राभृतीक (साधु के लिए समय अनुसार परिवर्तन करके बनाई हुई), सपरिकर्म (लिंपण, गुंपण, रंगन आदि परिकर्म करके बनाई हुई) शय्या अर्थात् वसति या स्थानक में प्रवेश करे, करवाए या करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - ३७८
___जो साधु-साध्वी ‘संभोग प्रत्ययिक क्रिया नहीं है। यानि एक मांडली में साथ बैठकर आहार आदि क्रिया साथ में होती हो वो सांभोगिक क्रिया कहलाती है, "जो सांभोगिक हो उसके साथ मांडली आदि व्यवहार न करना और असांभोगिक के साथ व्यवहार करना उसमें कोई दोष नहीं' ऐसा बोले, बुलवाए या बोलनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - ३७९-३८१
जो साधु-साध्वी अखंड-दृढ़, लम्बे अरसे तक चले ऐसे टिकाऊ और इस्तमाल में आ सके ऐसे तुंबड़े, लकड़े के या मिट्टी के पात्रा को तोड़कर या टुकड़े कर दे, परठवे, वस्त्र, कंबल या पाद प्रोंछनक (रजोहरण) के टुकड़े करके परठवे, दांडा, दांडी, वांस की शलाखा आदि तोड़कर टुकड़े करके परठवे, परठवाए या उसकी अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - ३८२-३९२
जो साधु-साध्वी रजोहरण ३२ अंगुल मात्रा से ज्यादा धारण करे, उसकी दशी छोटी बनाए, बल्ले की तरह गोल बाँधे, अविधि से बाँधे, ओधारिया, निशेथीया रूप दो वस्त्र को एक ही डोर से बाँधे, तीन से ज्यादा बंध को बाँधे, अनिसृष्ट अर्थात् अनेक मालिक का रजोहरण होने के बाद भी उसमें से किसी एक मालिक देवें तो भी उसे धारण करे, अपने से (साढ़े तीन हाथ से भी) दूर रखे, रजोहरण पर बैठे, उस पर सिर रखके सोए, उस पे सो कर बगल बदले । इसमें से कोई भी दोष करे, करवाए या करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त ।
इस प्रकार इस उद्देशक-५ में बताए हुए दोष में से किसी दोष का खुद सेवन करे, दूसरों के पास करवाए या करनेवाले की अनुमोदना करे तो उसे - मासिक परिहार स्थान उद्घातिक नामका प्रायश्चित्त आता है जिसे 'लघुमासिक प्रायश्चित्त' भी कहते हैं ।
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आगम सूत्र ३४, छेदसूत्र-१, निशीथ'
उद्देशक/सूत्र उद्देशक-६ निसीह'' सूत्र के इस उद्देशक में ३९३ से ४६९ यानि की कुल ७७ सूत्र हैं । जिसमें से किसी भी दोष का त्रिविधे सेवन करनेवाले को 'चाऊम्मासियं परिहारठाणं अनुग्घातियं' नाम का प्रायश्चित्त आता है । जिसे 'गुरु चौमासी' प्रायश्चित्त कहते हैं। सूत्र-३९३-४०२
जो साधु मैथुन सेवन की ईच्छा से स्त्री को (साध्वी हो तो पुरुष को) विनती करे, हस्त कर्म करे मतलब हाथ से होनेवाली क्रियाए करे, जननेन्द्रिय का संचालन करे यावत् शुक्र (साध्वी हो तो रज) बाहर नीकाले । (उद्देशक-१ में सूत्र २ से १० तक वर्णन की हुई सभी क्रियाए यहाँ समझ लेना ।) यह काम खुद करे, दूसरों से करवाए या करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र-४०३-४०५
जो साधु मैथुन सेवन की ईच्छा से स्त्री को (साध्वी-पुरुष को) वस्त्र रहित करे, वस्त्र रहित होने के लिए कहे-स्त्री (पुरुष) के साथ क्लेश झगड़े करे, क्रोधावेश से बोले, लेख यानि खत लिखे । यह काम करे, करवाए या अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - ४०६-४१०
जो साधु मैथुन सेवन की ईच्छा से स्त्री को (साध्वी-पुरुष को) जननेन्द्रिय, गुह्य हिस्सा या छिद्र को औषधि विशेष से लेप करे, अचित्त ऐसे ठंड़े या गर्म पानी से एक बार या बार-बार प्रक्षालन करे, प्रक्षालन बाद एक या कईं बार किसी आलेपन विशेष से विलेपन करे, विलेपन के बाद तेल, घी, चरबी या मक्खन से अभ्यंगन या म्रक्षण करे, उसके बाद किसी गन्धकार द्रव्य से उसको धूप करे मतलब गन्धदार बनाए यह काम खुद करे, करवाए या करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र- ४११-४१५
जो साधु-साध्वी मैथुन की ईच्छा से अखंड वस्त्र धारण करे यानि अपने पास रखे, अक्षत् (जो फटे हुए नहीं हैं), धोए हुए (उज्ज्वल) या मलिन, रंगीन, रंगबेरंगी सुन्दर वस्त्र धारण करे, करवाए या अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त सूत्र - ४१६-४६८
जो साधु-साध्वी मैथुन सेवन की ईच्छा से एक बार या कईं बार अपने पाँव प्रमार्जन करे, करवाए या अनुमोदना करे (यह कार्य आरम्भ करके) एक गाँव से दूसरे गाँव जाते हुए अपने मस्तक को आच्छादन करे, करवाए या अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । ।
(यहाँ ४१६ से ४६८ में कुल ५३ सूत्र हैं । उसका विवरण उद्देशक-३ के सूत्र १३३ से १८५ अनुसार जान लेना । विशेष से केवल इतना की पाँव प्रमार्जन से मस्तक आच्छादन' तक की सर्व क्रिया मैथुन सेवन की ईच्छा से की गई हो तब 'गुरु चौमासी' प्रायश्चित्त आता है ऐसा जानना ।) सूत्र-४६९
जो साधु-साध्वी मैथुन सेवन की ईच्छा से दूध, दही, मक्खन, घी, गुड़, मोरस, शक्कर या मिश्री या ऐसा अन्य किसी पौष्टिक आहार करे, करवाए या अनुमोदना करे ।
इस प्रकार उद्देशक-६ में बताए अनुसार किसी भी एक या ज्यादा दोष का सेवन करे, करवाए या अनुमोदना करे तो वो साधु, साध्वी को चातुर्मासिक परिहारस्थान अनुद्घातिक प्रायश्चित्त आता है, जिसे 'गुरु चौमासी' प्रायश्चित्त नाम से भी पहचाना जाता है।
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आगम सूत्र ३४, छेदसूत्र-१, निशीथ'
उद्देशक/सूत्र उद्देशक-७ 'निसीह'' सूत्र के इस उद्देशक में ४७० से ५६० इस तरह कुल ९१ सूत्र हैं । जिसमें से किसी भी दोष का त्रिविधे सेवन करनेवाले को चाउम्मासियं परिहारठ्ठाणं अनुग्घातियं' नाम का प्रायश्चित्त आता है । इस प्रायश्चित्त का अपर नाम 'गुरु चौमासी' प्रायश्चित्त है। सूत्र - ४७०-४८१
जो साधु (स्त्री के साथ) साध्वी (पुरुष के साथ) मैथुन सेवन की ईच्छा से तृण, मुन (एक तरह का तृण), बेल, मदनपुष्प, मयुर आदि के पींच्छ, हाथी आदि के दाँत, शींग, शंख, हड्डियाँ, लकड़े, पान, फूल, फल, बीज, हरित वनस्पति की माला करे, लोहा, ताम्र, जसत्, सीसुं, रजत, सुवर्ण के किसी आकार विशेष, हार, अर्द्धहार, एकसरो हार, सोने के हाथी दाँत के रत्न का-कर्केतन के कड़ले, हाथ का आभरण, बाजुबँध, कुंडल, पट्टे, मुकुट, झूमखे, सोने का सूत्र, मृगचर्म, ऊन का कंबल, कोयर देश का किसी वस्त्र विशेष या इस तीन में से किसी का आच्छादन, श्वेत, कृष्ण, नील, श्याम, महाश्याम उन चार में से किसी मृग के चमड़े का वस्त्र, ऊंट के चमड़े का वस्त्र या प्रावरण, शेर-चित्ता, बंदर के चमड़े का वस्त्र, श्लक्ष्ण या स्निग्ध कोमल वस्त्र, कपास वस्त्र पटल, चीनी वस्त्र, रेशमी वस्त्र, सोनेरी सोना जड़ित या सोने से चीतरामण किया हुआ वस्त्र, अलंकारयुक्त-अलंकार चित्रित या विविध अलंकार से भरा वस्त्र, संक्षेप में कहा जाए तो किसी भी तरह के हार, कड़े, आभूषण या वस्त्र बनाए, रखे, पहने या उपभोग करे, दूसरों के पास यह सब कराए या ऐसा करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र-४८२
जो साधु मैथुन की ईच्छा से स्त्री की किसी इन्द्रिय, हृदयप्रदेश, उदर (नाभि युक्त) प्रदेश, स्तन का संचालन करे, करवाए या अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र-४८३-५३५
जो साधु-साध्वी मैथुन की ईच्छा से आपस के पाँव को एक बार या बार-बार प्रमार्जन करे-(इस सूत्र से आरम्भ करके) जो साधु-साध्वी एक गाँव से दूसरे गाँव जाते हुए मैथुन की ईच्छा से एक दूजे के मस्तक को आवरण-आच्छादन करे ।
(यहाँ ४८३ से ५३५ यह ५३ सूत्र तीसरे उद्देशक में दिए सूत्र १३३ से १५४ के अनुसार हैं । इसलिए इस ५३ सूत्र का विवरण उद्देशक-३ अनुसार समझ लेना । विशेष केवल इतना की मैथुन की ईच्छा से यह सर्व क्रिया "आपस में की गई। समझना ।) सूत्र-५३६-५४७
___ जो साधु मैथुन सेवन की ईच्छा से किसी स्त्री को (साध्वी हो तो पुरुष को) सचित्त भूमि पर, जिसमें धुण नामके लकड़े को खानेवाले जीव विशेष का निवास हो, जीवाकुल पीठफलक-पट्टी हो, चींटी आदि जीवयुक्त स्थान, सचित्त बीजवाला स्थान, हरितकाययुक्त स्थान, सूक्ष्म हिमकणवाला स्थान, गर्दभ आकार कीटक का निवास हो, अनन्तकाय ऐसी फूग हो, गीली मिट्टी हो या जाली बनानेवाला खटमल, मकड़ा हो यानि कि धुण आदि रहते हो ऐसे स्थान में, धर्मशाला, बगीचा, गृहस्थ के घर या तापस-आश्रम में, अपनी गोदी में या बिस्तर में (संक्षेप में कहा जाए तो पृथ्वी-अप्-वनस्पति और त्रस काय की विराधना जहाँ मुमकीन है ऐसे ऊपर अनुसार स्थान में) बिठाए या सुलाकर बगल बदले, अशन, पान, खादिम, स्वादिम रूप आहार करे, करवाए या यह क्रिया खुद करे, करवाए या अनुमोदना करे । सूत्र-५४८-५५०
जो साधु मैथुन की ईच्छा से स्त्री की (साध्वी पुरुष की) किसी तरह की चिकित्सा करे, अमनोज्ञ ऐसे पुद्गल (अशुचिपुद्गल) शरीर में से बाहर नीकाले मतलब शरीर शुद्धि करे, मनोज्ञ पुद्गल शरीर पर फेंके यानि
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आगम सूत्र ३४, छेदसूत्र-१, निशीथ'
उद्देशक/सूत्र शरीर गन्धदार करे या शोभा बढ़ाए ऐसा वो खुद करे, करवाए या अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - ५५१-५५३
जो साधु (साध्वी) मैथुन सेवन की ईच्छा से किसी पशु या पंछी के पाँव, पंख, पूँछ या सिर पकड़कर उसे हिलाए, संचालन करे, गुप्तांग में लकड़ा, वांस की शलाखा, ऊंगली या धातु की शलाका का प्रवेश करवाके, हिलाए, संचालन करे, पशु-पंछी में स्त्री (या पुरुष) की कल्पना करके उसे आलिंगन करे, दढ़ता से आलिंगन करे, सर्वत्र चुंबन करे, करवाए, करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - ५५४-५५९
___ जो साधु स्त्री के साथ (साध्वी-पुरुष के साथ) मैथुन सेवन की ईच्छा से अशन, पान, खादिम, स्वादिम रूप चतुर्विध आहार, वस्त्र, पात्र, कंबल, रजोहरण, सूत्रार्थ, (इन तीनों में से कोई भी) दे या ग्रहण करे, (खुद करे, अन्य से करवाए या करनेवाले की अनुमोदना करे) तो प्रायश्चित्त सूत्र- ५६०
जो साधु स्त्री के साथ (साध्वी पुरुष के साथ) मैथुन की ईच्छा से किसी भी इन्द्रिय का आकार बनाए, तसवीर बनाए या हाथ आदि से ऐसे काम की चेष्टा करे, करवाए या अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त ।
इस प्रकार उद्देशक-७ में कहे अनुसार किसी भी एक या ज्यादा दोष का सेवन करे, करवाए या अनुमोदना करे तो वो साधु-साध्वी का ''चातुर्मासिक परिहार स्थान अनुद्घातिक'' नाम का प्रायश्चित्त आता है जो 'गुरु चौमासी'' प्रायश्चित्त नाम से जाना जाता है।
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आगम सूत्र ३४, छेदसूत्र-१, निशीथ'
उद्देशक/सूत्र उद्देशक-८ "निसीह'' सूत्र के इस उद्देशक में ५६१ से ५७९ इस प्रकार से कुल १९ सूत्र हैं। जिसमें से किसी भी दोष का त्रिविधे सेवन करनेवाले को ''चाउमासियं परिहारठ्ठाणं अनुग्घातियं'' नाम का प्रायश्चित्त आता है । जो 'गुरु चौमासी'' प्रायश्चित्त भी कहा जाता है। सूत्र- ५६१-५६९
धर्मशाला, बगीचा, गृहस्थ के घर या तापस आश्रम में, उद्यान में, उद्यानगृह में, राजा के निर्गमन मार्ग में, निर्गमन मार्ग में रहे घर में, गाँव या शहर के किसी एक हिस्से में जिसे " अट्टालिका'' कहते हैं वहाँ, "अट्टालिका'' के किसी घर में, 'चरिका'' यानि कि किसी मार्ग विशेष, नगर द्वार में, नगर द्वार के अग्र हिस्से में, पानी में, पानी बहने के मार्ग में, पानी लाने के रास्ते में, पानी बहने के निकट प्रदेश के तट पर, जलाशय में, शून्य गृह, भग्नगृह, भग्नशाला या कोष्ठागार में, तृणशाला, तृणगृह, तुषाशाल, तृषगृह, भूसा-शाला या भूसागृह में, वाहनशाला, वाहन गृह, अश्वशाला या अश्वगृह में, हाटशाला-वखार, हाटगृह-दुकान परियाग शाला, परियागगृह, लोहादिशाला, लोहादि घर, गोशाला, गमाण, महाशाला या महागृह (इसमें से किसी भी स्थान में) किसी अकेले साधु अकेली स्त्री के साथ (अकेले साध्वी अकेले पुरुष के साथ) विचरे, स्वाध्याय करे, अशन आदि आहार करे, मल-मूत्र परठवे यानि स्थंडिल भूमि जाए, निंदित-निष्ठुर-श्रमण को आचरने के योग्य नहीं ऐसा विकार-उत्पादक वार्तालाप करे, करवाए या करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र-५७०
जो साधु रात को या विकाल-संध्या के अवसर पर स्त्री समुदाय में या स्त्रीओं का संघट्ट हो रहा हो वहाँ या चारों दिशा में स्त्री हो तब अपरिमित (पाँच से ज्यादा सवाल के उत्तर दे या ज्यादा देर तक धर्मकथा करे) वक्त के लिए कथन (धर्मकथा आदि) करे, करवाए, करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र-५७१
जो साधु स्वगच्छ या परगच्छ सम्बन्धी साध्वी के साथ (साध्वी हो तो साधु के साथ) एक गाँव से दूसरे गाँव विचरते हुए, आगे जाने के बाद, पीछे चलते हुए जब उसका वियोग हो, तब उद्भ्रान्त मनवाले हो, फिक्र या शोक
र में डूब जाए, ललाट पर हाथ रखकर बैठे, आर्तध्यान वाले हो और उस तरह से विहार करे या विहार में साथ चलते हुए स्वाध्याय करे, आहार करे, स्थंडिलभूमि जाए, निंदित-निष्ठुर श्रमण को न करने लायक योग्य ऐसी विकारोत्पादक कथा करे, करवाए या अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - ५७२-५७४
जो साधु स्व परिचित या अपरिचित श्रावक या अन्य मतावलम्बी के साथ वसति में (उपाश्रय में) आधी या पूरी रात संवास करे यानि रहे, यह यहाँ है ऐसा मानकर बाहर जाए या बाहर से आए, या उसे रहने की मना न करे (तब वो गृहस्थ रात्रि भोजन, सचित्त संघट्टन, आरम्भ-समारम्भ करे वैसी संभावना होने से) प्रायश्चित्त । (उसी तरह से साध्वीजी श्राविका या अन्य गृहस्थ स्त्री के साथ निवास करे, करवाए, अनुमोदना करे, उसे आश्रित करके बाहर आए-जाए, उस स्त्री को वहाँ रहने की मना न करे, न करवाए या अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र-५७५-५७९
जो साधु-साध्वी राजा, क्षत्रिय (ग्रामपति) या शुद्ध वंशवालों के राज्य आदि अभिषेक, गोष्ठी, पिंडदान, इन्द्र, स्कन्द, रूद्र, मुकुन्द, भूत, जक्ष, नाग, स्तूप, चैत्य, रूक्ष, गिरि, दरी, अगड (हवाड़ा) तालाब, द्रह, नदी, सरोवर, सागर, खाण (आदि) महोत्सव या ऐसे अन्य तरह के अलग-अलग महामहोत्सव (संक्षेप में कहा जाए तो राजा आदि के कई तरह के महोत्सव) में जाकर अशन आदि चार प्रकार के आहार में से कुछ भी ग्रहण करे, करवाए, अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त, उसी तरह राजा आदि की भ्रमणशाला या भ्रमणगृह में घूमने जाए, अश्व,
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आगम सूत्र ३४, छेदसूत्र-१, निशीथ'
उद्देशक/सूत्र हस्ति, मंत्रणा, गुप्तकार्य, राझ या मैथुन की शाला में जाए और अशन आदि आहार ग्रहण करे, राजा आदि के यहाँ रखे गए दूध, दही, मक्खन, घी, तेल, गुड़, मोरस, शक्कर, मिश्री या ऐसे दूसरे किसी भी भोजन को ग्रहण करे, कौए आदि को फेंकने के खाने के बाद दूसरों को देने के - अनाथ को देने के - याचक को देने के - गरीबों को देने को भोजन को ग्रहण करे, करवाए, अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त ।
इस तरह उद्देशक-८ में कहे हुए किसी भी दोष का खुद सेवन करे, अन्य से सेवन करवाए - वे दोष सेवन करनेवाले की अनुमोदना करे तो चातुर्मासिक परिहारस्थान अनुद्घातिक प्रायश्चित्त आता है - जिसे 'गुरु चौमासी'' प्रायश्चित्त भी कहते हैं।
उद्देशक-८-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
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आगम सूत्र ३४, छेदसूत्र-१, निशीथ'
उद्देशक/सूत्र उद्देशक-९ "निसीह'' सूत्र के इस उद्देशक में ५८० से ६०७ यानि कि २८ सूत्र हैं । उसमें से किसी भी दोष का त्रिविधे सेवन करनेवाले को चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अनुग्घातियं कि जो 'गुरु चौमासी' के नाम से भी पहचाना जाता है वो प्रायश्चित्त आता है। सूत्र - ५८०-५८४
जो साधु-साध्वी राजपिंड़ (राजा के वहाँ से अशन आदि) ग्रहण करे, राजा के अंतःपुर में जाए, अंतःपुर रक्षिका को ऐसा कहे कि हे आयुष्मति ! राजा अंतःपुर रक्षिका !' हमें राजा के अंतःपुर में गमन-आगमन करना कल्पता नहीं । तू यह पात्र लेकर राजा के अंतःपुर में से अशन-पान-खादिम-स्वादिम नीकालकर ला और मुझे दे (ऐसे अंतःपुर से आहार मंगवाए), कोई साधु-साध्वी शायद ऐसा न कहे, लेकिन अन्तःपुर रक्षिका ऐसे बोले कि, "हे आयुष्मान् श्रमण ! तुम्हें राजा के अंत:पुर में आवागमन कल्पता नहीं, तो तुम्हारा आहार ग्रहण करने का यह पात्र मुझे दो, मैं अंतःपुरमें अशन-आदि आहार पास लाकर तुम्हें दूँ ।' यदि वो साधु-साध्वी उसका यह वचन स्वीकार करे, ऐसे कथन अनुसार किसी दोष का सेवन करे, करवाए या सेवन करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - ५८५
जो साधु-साध्वी, राजा, क्षत्रिय, शुद्धवंशीय क्रम से राज्य अभिषेक पानेवाला राजा आदि के द्वारपाल, पशु, नौकर, बली, क्रितक, अश्व, हाथी, मुसाफरी, दुर्भिक्ष, अकाल, भिक्षु, ग्लान, अतिवृष्टि पीड़ित, महमान इन सबके लिए तैयार किए गए या रखे गए भोजन को ग्रहण करे, करवाए या करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र-५८६
जो साधु-साध्वी राजा, क्षत्रिय, शुद्रवंशीय यह छह दोषों को जाने बिना, पूछे बिना, चार या पाँच रात्रि गृहपति कुल में भिक्षार्थ हेतु प्रवेश या निष्क्रमण करे, वे स्थान हैं-कोष्ठागार, भाण्डागार, पाकशाला, खीरशाला, गंजशाला और रसोई गृह । तो प्रायश्चित्त । सूत्र - ५८७-५८८
जो साधु-साध्वी राजा आदि के नगर प्रवेश या क्रीड़ा आदि महोत्सव के निर्गमन अवसर पर सर्वालंकारविभूषित रानी आदि को देखने की ईच्छा से एक कदम भी चलने के लिए केवल सोचे, सोच करवाए, करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र-५८९
जो साधु-साध्वी राजा आदि के मृगया (शिकार), मछलियाँ पकड़ना, शरीर (दूसरा मतलब मुंग आदि की फली) खाने के लिए, जिस क्षेत्र में जाते हो तब रास्ते में खाने के लिए लिया गया आहार ग्रहण करे, करवाए या अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - ५९०
जो साधु-साध्वी राजा आदि के अन्य अशन आदि आहार में से किसी भी एक शरीर पुष्टिकारक, मनचाही चीज देखकर उसकी जो पर्षदा खड़ी न हुई हो (यानि कि पूरी न हुई हो), एक भी आदमी वहाँ से न गुज़रा हो, सभी वहाँ से चले गए न हो उसके अशन आदि आहार ग्रहण करे, करवाए, अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त, दूसरी बात ये भी जानना कि राजा आदि कहाँ निवास करते हैं । उस संबंध से जो साधु-साध्वी (जहाँ राजा का निवास हो), उसके पास ही का घर, प्रदेश, पास की शुद्ध भूमि में विहार, स्वाध्याय, आहार, मल-मूत्र, परिष्ठापन, सत्पुरुष आचरण न करे वैसा कृत्य, अश्लिल कृत्य, साधु पुरुष को योग्य न हो वैसी कथा कहे, इसमें से किसी आचरण खुद
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आगम सूत्र ३४, छेदसूत्र-१, 'निशीथ'
उद्देशक/सूत्र करे, करवाए, अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र- ५९१-५९६
जो साधु-साध्वी राजा आदि को दूसरे राजादि पर विजय पाने के लिए जाता हो, वापस आता हो, वापस आने के वक्त अशन, पान, खादिम, स्वादिम ग्रहण करने जाए-भेजे या जानेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - ५९७
जो साधु-साध्वी राजा आदि के महाभिषेक के अवसर पर वहाँ प्रवेश करे या बाहर नीकले, वैसा दूसरों के पास करवाए, करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - ५९८
राजा, ग्रामपति, शुद्धवंशीय, कुल परम्परा के अभिषेक पाए हुए (राजा आदि के चंपा, मथुरा, वाराणसी, सावत्थी, साकेत, कांपिल्य, कौशाम्बी, मिथिला, हस्तिनापुर, राजगृही ये दस बड़ी राजधानी) कहलाती है । मानी जाती है । प्रसिद्ध है । वहाँ एक महिने में दो-तीन बार जो साधु-साध्वी जाए या वहाँ से बाहर नीकले, दूसरों को वैसा करने के लिए प्रेरित करे या वैसा करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र- ५९९-६०७
जो साधु-साध्वी, राजा आदि के अशन आदि आहार कि जो दूसरों के निमित्त से जैसे कि, क्षत्रिय, राजा, खंड़िया राजा, राजसेवक, राजवंशज के लिए किया हो उसे ग्रहण करे, (उसी तरह से) राजा आदि के नर्तक, कच्छुक (रज्जुनर्तक), जलनर्तक, मल्ल, भाँड़, कथाकार, कुदक, यशोगाथक, खेलक, छत्रधारक, अश्व, हस्ति, पाड़ा, बैल, शेर, बकरे, मृग, कुत्ते, शुकर, सूवर, चीडिया, मूर्ये, बंदर, तितर, वर्तक, लावक, चील्ल, हंस, मोर, तोता (आदि) को पोषने के लिए बनाया गया, अश्व या हस्ति पुरुषक अश्व या हस्ति के परिमार्जक, अश्व या हस्ति आरोहक सचिव आदि, पगचंपी करनेवाला, मालीश कर्ता, उद्वर्तक, मार्जनकर्ता, मंड़क, छत्रधारक, चामर धारक, आभरण भाँड़ के धारक, मंजुषा धारक, दीपिका धारक, धनुर्धारक, शस्त्रधारक, भालाधारक, अंकुशधारक, खसी किए गए अन्तःपुररक्षक, द्वारपाल, दंडरक्षक, कुब्ज, किरातिय, वामन, वक्रकायी, बर्बर, बकुशिल, यावनिक, पल्हविक, इसिनिक, लासिक, लकुशिक, सिंहाली, पुलिन्दी, मुरन्डी, पक्कणी, भिल्ल, पारसी (संक्षेप में कहा जाए तो किरात से लेकर पारस देश में पैदा होनेवाले यह सभी राजसेवक)
ऊपर कहे अनुसार किसी के भी लिए तैयार किए गए अशन, पान, खादिम, स्वादिम को किसी साधुसाध्वी ग्रहण करे, करवाए, अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त ।
इस प्रकार उद्देशक-९ में बताए अनुसार किसी कृत्य करे-करवाए-करनेवाले की अनुमोदना करे तो 'चातुर्मासिक परिहारस्थान अनुद्घातिक' प्रायश्चित्त आता है । जिसे 'गुरु चौमासी' प्रायश्चित्त भी कहते हैं।
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आगम सूत्र ३४, छेदसूत्र-१, निशीथ'
उद्देशक/सूत्र उद्देशक-१० "निसीह'' सूत्र के इस उद्देशक में ६०८ से ६५४ इस तरह से ४७ सूत्र हैं । उसमें से किसी भी दोष का त्रिविधे सेवन करनेवाले को चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अनुग्घातियं' प्रायश्चित्त आता है। सूत्र-६०८-६११
जो साधु-साध्वी आचार्य आदि रत्नाधिक को अति कठिन, रुखा, कर्कश, दोनों तरह के वचन बोले, बुलवाए, बोलनेवाले की अनुमोदना करे तो, अन्य किसी तरह से आशातना करे, करवाए, अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र-६१२-६१३
जो साधु-साध्वी अनन्तकाय युक्त आहार करे, आधा कर्म (साधु के लिए किया गया आहार) खाए, खिलाए, खानेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - ६१४-६१५
जो साधु-साध्वी वर्तमान या भावि के सम्बन्धी निमित्त कहे, कहलाए या कहनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - ६१६-६१७
जो साधु-साध्वी (दूसरों के) शिष्य (शिष्या) का अपहरण करे, उसकी बुद्धि में व्यामोह पैदा करे यानि भ्रमित करे, करवाए या अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र- ६१८-६१९
जो साधु-आचार्य या उपाध्याय (साध्वी आचार्य, उपाध्याय या प्रवर्तिनी का अपहरण करे (अन्य समुदाय या गच्छ में ले जाए), उनकी बुद्धि में व्यामोह-भ्रमणा पैदा करे, करवाए या अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - ६२०
जो साधु-साध्वी बहिर्वासि (अन्य समुदाय या गच्छ में से आए हुए प्राघुर्णक) आए तब उनके आगमन की कारण जाने बिना तीन रात से ज्यादा अपनी वसति (उपाश्रय) में निवास दे, दिलाए या देनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - ६२१
जो साधु-साध्वी अन्य अनुपशान्त कषायी या उसके बारे में प्रायश्चित्त न करनेवाले को उसके क्लेश शान्त करने के लिए या करना या न करने के बारे में कुछ पूछकर या बिना पूछे जैसे कि उद्घातिक को अनुद्घातिक कहे, प्रायश्चित्त देवें, अनुद्घातिक को उद्घातिक कहे, प्रायश्चित्त देवें तो प्रायश्चित्त । सूत्र - ६२२-६२५
जो साधु-साध्वी प्रायश्चित्त की विपरीत प्ररूपणा करे या विपरीत प्रायश्चित्त दान करे जैसे कि उद्घातिक को अनुद्घातिक कहे, देवे, अनुद्घातिक को उद्घातिक कहे, देवे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - ६२६-६३७
जो साधु-साध्वी, कोई साधु-साध्वी उद्घातिक, अनुद्घातिक या उभय प्रकार से हैं | यानि कि वो उद्घातिक या अनुद्घातिक प्रायश्चित्त वहन कर रहे हैं वो सुनने, जानने के बाद भी, उसका संकल्प और आशय सुनने-जानने के बाद भी उसके साथ आहार करे, करवाए, अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र-६३८-६४१
जो साधु-साध्वी सूर्य नीकलने के बाद और अस्त होने के पहले आहार-विहार आदि क्रिया करने के
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आगम सूत्र ३४, छेदसूत्र-१, 'निशीथ'
उद्देशक/सूत्र संकल्प वाला हो, धृति और बल से समर्थ हो, या न हो तो भी सूर्यास्त या सूर्यास्त हुआ माने, संशयवाला बने, संशयित हो तब भोजन करे, करवाए, अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त और फिर यदि ऐसा माने कि सूर्य नीकला ही नहीं या अस्त हो गया है तब मुँह में - हाथ में या पात्र में जो अशन आदि विद्यमान हो उसका त्याग करे, मुख, हाथ, पात्रा की शुद्धि करे तो अशन आदि परठने के बाद भी विराधक नहीं लेकिन यदि आज्ञा उल्लंघन करके खाएखिलाए या खानेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - ६४२
जो साधु-साध्वी रात को या शाम को पानी या भोजन का ओड़कार आए यानि उबाल आए तब उसे मुँह से बाहर नीकालने की बजाय गले में उतार दे, नीगलने का कहे, नीगलनेवाले की अनुमोदना करे तो (रात्रि भोजन दोष लगने से) प्रायश्चित्त। सूत्र - ६४३-६४६
जो साधु-साध्वी ग्लान-बीमार हो ऐसे सुने, जानने के बाद भी उस ग्लान की स्थिति की गवेषणा न करे, अन्य मार्ग या विपरीत मार्ग में चले जाए, वैयावच्च करने के लिए उद्यत होने के बाद भी ग्लान का योग्य आहार, अनुकूल वस्तु विशेष न मिले तब दूसरे साधु, साध्वी, आचार्य आदि को न कहे, खुद कोशीश करने के बाद भी अल्प या अपर्याप्त चीज मिले तब इतनी अल्प चीज से उस ग्लान को क्या होगा ऐसा पश्चात्ताप न करे, न करवाए या न करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - ६४७-६४८
जो साधु-साध्वी प्रथम प्रावृट्काल यानि की आषाढ़-श्रावण बीच में, वर्षावास में निवास करने के बाद एक गाँव से दूसरे गाँव विहार करे, करवाए, करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - ६४९-६५०
जो साधु-साध्वी अपर्युषणा में पर्युषणा करे, पर्युषणा में अपर्युषणा करे, पर्युषणा में पर्युषणा न करे, (अर्थात् नियत दिन में संवत्सरी न करे) न करवाए, न करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - ६५१-६५३
जो साधु-साध्वी पर्युषण काल में (संवत्सरी प्रतिक्रमण के वक्त) गाय के रोम जितने भी बाल धारण करे, रखे, उस दिन थोड़ा भी आहार करे, (कुछ भी खाए-पीए), अन्यतीर्थिक या गृहस्थ के साथ पर्युषणा करे (पर्युषणाकरण सुनाए) करवाए या अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र-६५४
जो साधु-साध्वी पहले समवसरण में यानि कि वर्षावास में (चातुर्मास में) पात्र या वस्त्र आदि ग्रहण करेकरवाए या अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त ।
इस प्रकार उद्देशक-१० में कहे हुए कोई कृत्य करे, करवाए या अनुमोदना करे तो चातुर्मासिक परिहारस्थान अनुद्घातिक अर्थात् 'गुरु चौमासी प्रायश्चित्त' आता है।
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उद्देशक/सूत्र उद्देशक-११ 'निसीह'' सूत्र के इस उद्देशक में ६५५ से ७४६ यानि ९२ सूत्र हैं । उसमें से किसी भी दोष का त्रिविधे सेवन करने से चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अनुग्घातियं' प्रायश्चित्त । सूत्र- ६५५-६६०
जो साधु-साध्वी लोहा, ताम्र, जसत्, सीसुं, कासुं, चाँदी, सोना, जात्यरुपा, हीरे, मणि, मुक्ता, काँच, दाँत, शींग, चमड़ा, पत्थर (पानी रह सके ऐसे) मोटे वस्त्र, स्फटिक, शंख, वज्र (आदि) के पात्रा बनाए, धारण करे, उपभोग करे, लोहा आदि का पात्र बँधन करे (बनाए), धारण करे, उपभोग करे, अन्य से यह काम करवाए या वैसा करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र-६६१-६६२
जो साधु-साध्वी अर्थ योजन से ज्यादा दूर पात्र ग्रहण करने की उम्मीद से जाए या विघ्नवाला मार्ग या अन्य किसी कारण से उतनी दूर से लाकर पात्र दे तब ग्रहण करे, करवाए, अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र-६६३-६६४
जो साधु-साध्वी धर्म की निंदा (अवर्णवाद) या अधर्म की प्रशंसा करे, करवाए, अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त सूत्र-६६५-७१७
जो साधु-साध्वी अन्यतीर्थिक या गृहस्थ के पाँव को एक या अनेकबार प्रमार्जन करे, करवाए, अनुमोदना करे, (इस सूत्र से आरम्भ करके) एक गाँव से दूसरे गाँव जाते हुए यानि कि विचरण करते हुए जो साधु-साध्वी अन्य तीर्थिक या गृहस्थ के मस्तक को आवरण करे, करवाए, अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त ।
(यहाँ ६६५ से ७१७ कुल-५३ सूत्र हैं । जो उद्देशक-३ के सूत्र १३३ से १८५ अनुसार जान लेना । फर्क केवल इतना कि इस ५३ दोष का सेवन अन्य तीर्थिक या गृहस्थ को लेकर किया, करवाया या अनुमोदन किया हो) सूत्र-७१८-७२३
जो साधु-साध्वी खुद को, दूसरों को डराए, विस्मीत करे यानि आश्चर्य पमाड़े, विपरीत रूप से दिखाए, या फिर जीव को अजीव या अजीव को जीव कहे, शाम को सुबह या सुबह को शाम कहे, इस दोष का खुद सेवन करे, दूसरों से करवाए या सेवन करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र- ७२४
जो साधु-साध्वी जिनप्रणित चीज से विपरीत चीज की प्रशंसा करे, करवाए, अनुमोदना करे । जैसे कि सामने किसी अन्यधर्मी हो तो उसके धर्म की प्रशंसा करे आदि तो प्रायश्चित्त । सूत्र - ७२५
जो साधु-साध्वी दो विरुद्ध राज्य के बीच पुनः पुनः गमनागमन करे, करवाए, करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - ७२६-७३३
____ जो साधु-साध्वी दिन में भोजन करने की निंदा करे, रात्रि भोजन की प्रशंसा करे, दिन को लाया गया अशन-पान, खादिम-स्वादिम रूप आहार दूसरे दिन करे, दिन में लाया गया अशन-आदि रात को खाए, रात को (सूर्योदय से पहले) लाया गया अशन आदि सुबह में खाए, दिन में लाया गया अशन-आदि रात को खाए, आगाढ़ कारण बिना अशन-आदि आहार रात को संस्थापित करे यानि कि रख ले, इस तरह रखा गया अशन आदि आहार में से त्वचा-प्रमाण, भस्म प्रमाण या बिन्दु प्रमाण आहार खाए, इसमें से कोई दोष खुद करे, अन्य से करवाए या
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आगम सूत्र ३४, छेदसूत्र-१, 'निशीथ'
उद्देशक/सूत्र करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - ७३४
जो साधु-साध्वी, जहाँ भोजन में पहले माँस-मच्छी दी जाती हो फिर दूसरा भोजन दिया जाता हो, जहाँ माँस या मच्छी पकाए जाते हो वो स्थान, भोजनगृह में से जो लाया जाता हो या दूसरी किसी जगह ले जाते हो, विवाह आदि के लिए जो भोजन तैयार होता हो, मृत भोजन, या ऐसे तरीके का अन्य भोजन एक जगह से दूसरी जगह ले जा रहे हो, ऐसे भोजन की उम्मीद से या तृषा से यानि भोजन की अभिलाषा से उस रात को अन्यत्र निवास करे यानि कि शय्यातर की बजाय दूसरी जगह रात व्यतीत करे, करवाए या अनुमोदन करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - ७३५
जो साधु-साध्वी नैवेध, पिंड़ यानि कि देव, व्यंतर, यक्ष आदि के लिए रखा गया खाए, खिलाए, अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र-७३६-७३७
जो साधु-साध्वी स्वच्छंद-आचारी की प्रशंसा करे, वंदन नमस्कार करे, करवाए, अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - ७३८-७३९
जो साधु-साध्वी पहचानवाले (स्वजन आदि) और अनजान (स्वजन के सिवा) ऐसे अनुचित-दीक्षा की योग्यता न हो ऐसे उपासक (श्रावक) या अनुपासक (श्रावक से अन्य) को प्रव्रज्या-दीक्षा दे, उपस्थापना (वर्तमान काल में बड़ी दीक्षा) दे, दिलाए, देनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - ७४०
जो साधु-साध्वी अनुचित यानि की असमर्थ के पास वैयावच्च-सेवा ले, दिलाए, लेनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - ७४१-७४४
जो साधु-अचेलक या सचेलक हो और अचेलक या सचेलक साथ निवास करे यानि स्थविर कल्पी अन्य सामाचारीवाले स्थविरकल्पी या जिनकल्पी साथ रहे और जो जिनकल्पी हो और स्थविरकल्पी या जिनकल्पी साथ रहे (अथवा अचेलक या अचेलक साधु या अचेलक साध्वी साथ निवास करे) करवाए-करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - ७४५
जो साधु-साध्वी रात को स्थापित, पिपर, पिपर चूर्ण, सुंठ, तूंठचूर्ण, मिट्टी, नमक, सींधालु आदि चीज का आहार करे, करवाए, अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - ७४६
जो साधु-साध्वी पर्वत, उषरभूमि, नदी, गिरि आदि के शिखर या पेड़ की टोच पर गिरनेवाला पानी, आग में सीधे या कूदनेवाले, विषभक्षण, शस्त्रपात, फाँसी, विषयवश दुःख के तद्भव-उसी गति को पाने के मतलब से अन्तःशल्य, पेड़ की डाली से लटककर (गीधड़ आदि से भक्षण ऐसा) गृद्धस्पृष्ट मरण पानेवाले या ऐसे तरह के अन्य किसी भी बालमरण प्राप्त करनेवाले की प्रशंसा करे, करवाए या अनुमोदन करे ।
इस प्रकार उद्देशक-११ में बताए हुए कोई भी कृत्य खुद करे, दूसरों से करवाए या ऐसा करनेवाले की अनुमोदना करे तो चातुर्मासिक परिहार स्थान अनुद्घातिक प्रायश्चित्त यानि ''गुरु चौमासी'' प्रायश्चित्त आता है।
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उद्देशक/सूत्र उद्देशक-१२ "निसीह'' सूत्र के इस उद्देशक में ७४७ से ७८८ यानि कि कुल ४२ सूत्र हैं । उसमें से किसी भी दोष का त्रिविधे सेवन करनेवाले को 'चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं उग्घातियं' नाम का प्रायश्चित्त आता है जिसे लघु चौमासी प्रायश्चित्त कहते हैं। सूत्र-७४७-७४८
जो साधु-साध्वी करुणा बुद्धि से किसी भी त्रस जाति के जानवर को तृण, मुंज, काष्ठ, चर्म-नेतर, सूत या धागे के बँधन से बाँधे, बँधाए या अनुमोदन करे, बँधनमुक्त करे, करवाए या अनुमोदन करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - ७४९
जो साधु-साध्वी बार-बार प्रत्याख्यान-नियम भंग करे, करवाए, अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र-७५०
जो साधु-साध्वी प्रत्येककाय-सचित्त वनस्पति युक्त आहार करे, करवाए, अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - ७५१
जो साधु-साध्वी रोमयुक्त चमड़ा धारण करे अर्थात् पास रखे या उस पर बैठे, बिठाए, बैठनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - ७५२
जो साधु-साध्वी घास, तृण, शण, नेतर या दूसरों के वस्त्र से आच्छादित ऐसे पीठ पर बैठे, बिठाए, बैठनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - ७५३
जो साधु-साध्वी का (साध्वी साधुका) ओढ़ने का कपड़ा अन्यतीर्थिक या गृहस्थ के पास सीलवाए, दूसरों को सीने के लिए कहे, सीनेवाले की अनुमोदना करे । सूत्र - ७५४
जो साधु-साध्वी, पृथ्वीकाय, अपकाय, तेऊकाय, वायुकाय या वनस्पति काय की अल्पमात्र भी विराधना करे, करवाए, अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र-७५५
जो साधु-साध्वी सचित्त पेड़ पर चड़े, चड़ाए या चड़नेवाले की अनुमोदना करे । सूत्र-७५६-७५९
जो साधु-साध्वी गृहस्थ के बरतन में भोजन करे, उसके वस्त्र पहने, आसन आदि पर बैठे, चिकित्सा करे, करवाए, अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - ७६०-७६१
जो साधु-साध्वी सचित्त जल से धोने समान पूर्वकर्म करे या गृहस्थ या अन्यतीर्थिक से हमेशा गीले रहनेवाले या गीले धारण, कड़छी, मापी आदि से दिए गए अशन, पान, खादिम, स्वादिम ग्रहण करे, करवाए, करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - ७६२-७७४
जो साधु-साध्वी चक्षुदर्शन अर्थात् देखने की अभिलाषा से यहाँ कही गई दर्शनीय जगह देखने का सोचे या संकल्प करे, करवाए या अनुमोदना करे ।
लकड़े का कोतरकाम, तसवीरे, वस्त्रकर्म, लेपनकर्म, दाँत की वस्तु, मणि की चीज, पत्थरकाम, गूंथी
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आगम सूत्र ३४, छेदसूत्र-१, निशीथ'
उद्देशक/सूत्र अंगूठी या कुछ भी भरके बनाई चीज, संयोजना से निर्मित पत्ते निर्मित या कोरणी, गढ़, तख्ता, छोटे या बड़े जलाशय, नहेर, झील, वाव, छोटा या बड़ा तालाब, वावडी, सरोवर, जलश्रेणी या एकदूजे में जानेवाली जलधारा, वाटिका, जंगल, बागीचा, वन, वनसमूह या पर्वतसमूह, गाँव, नगर, निगम, खेड़ा, कसबा, पल्ली, द्रोणमुख, पाटण, खाई, धान्य क्षेत्र या संनिवेश, गाँव, नगर यावत् संनिवेश का किसी महोत्सव, मेला विशेष, गाँव, नगर यावत् संनिवेश का घात या विनाश, गाँव, नगर यावत् संनिवेश का पथ या मार्ग, गाँव, नगर यावत् संनिवेश का दाह, अश्व, हाथी, ऊंट, गौ, पाड़ा या सूवर का शिक्षण या क्रीड़ास्थल, अश्व, हाथी, ऊंट, गौ, पाड़ा या सूवर के युद्ध, गौ, घोड़े या हाथी के बड़े समुदायवाले स्थान, अभिषेक, कथा, मान-उन्मान, प्रमाण, बड़े आहत् (ठुमके) नृत्य, गीत, वाजिंत्र, उसके तल-ताल, त्रुटित घन मृदंग आदि के शब्द सुनाई देते हो ऐसे स्थान, राष्ट्रविप्लव, राष्ट्र उपद्रव, आपस में अंतर्देषजनित उपद्रव, वंश परम्परागत बैर से पैदा होनेवाला क्लेश, महायुद्ध, महासंग्राम, झगड़े, जोरों से बोलना आदि स्थान, कईं तरह के महोत्सव, ईन्द्र महोत्सव, स्त्री-पुरुष, स्थविर, युवान, किशोर आदि अलंकृत या निरलंकृत हो, गाते, बजाते, नाचते, हँसते, खेलते, मोह उत्पादक चेष्टा करते हो, विपुल अशन आदि का आपस में आदानप्रदान होता हो, खाना खाया जाता हो ऐसे स्थल, इन सभी स्थान को देखने की ईच्छा रखे । सूत्र - ७७५
जो साधु-साध्वी इहलौकिक या पारलौकिक, पहले देखे हुए या न देखे हुए, सुने हुए या न सुने हुए, जाने हुए या न जाने हुए ऐसे रूप के लिए आसक्त बने, रागवाले बने, गृद्धिवाले बने, अतिशय रक्त बने, किसी को आसक्त आदि करे, आसक्त आदि होनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - ७७६
जो साधु-साध्वी पहली पोरिसी में लाया गया अशन, पान, खादिम, स्वादिम अन्तिम पोरिसी तक स्थापन करे, रखे यानि चौथी पोरिसी में उपभोग करे, करवाए, करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - ७७७
जो साधु-साध्वी अर्थ योजन यानि दो कोष दूर से लाया गया अशन, पान, खादिम, स्वादिम समान आहार करे यानि दो कोष की क्षेत्र मर्यादा का उल्लंघन करे, करवाए या अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - ७७८-७८५
जो साधु-साध्वी गोबर या विलेपन द्रव्य लाकर दूसरे दिन, दिन में लाकर रात को, रात को लाकर दिन में या रात को लाकर रात में, शरीर पर लगे घा, व्रण आदि एक या बार-बार लिंपन करे, करवाए या करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - ७८६-७८७
जो साधु-साध्वी अन्यतीर्थिक या गृहस्थ के पास उपधि वहन करवाए और उसकी निश्रा में रहे (इन सबको) अशन-आदि (दूसरों को कहकर) दिलाए, दूसरों को वैसा करने के लिए प्रेरित करे, वैसा करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र-७८८
जो साधु-साध्वी गंगा, जमुना, सरयु, ऐरावती, मही उन पाँच महार्णव या महानदी महिने में दो या तीन बार उतरकर या तैरकर पार करे, करवाए या अनुमोदना करे ।
इस प्रकार उद्देशक-१२ में बताए अनुसार किसी भी कृत्य खुद करे-दूसरों के पास करवाए या करनेवाले की अनुमोदना करे तो चातुर्मासिक परिहारस्थान उद्घातिक अर्थात् लघु चौमासी प्रायश्चित्त आता है।
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आगम सूत्र ३४, छेदसूत्र-१, निशीथ'
उद्देशक/सूत्र उद्देशक-१३ "निसीह'' सूत्र के इस उद्देशक में ७८९ से ८६२ यानि कि कुल ७४ सूत्र हैं । इसमें बताने के अनुसार किसी भी दोष का त्रिविधे सेवन करनेवाले को चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं उग्घातियं प्रायश्चित्त आता है। सूत्र - ७८९-७९५
जो साधु-साध्वी सचित्त, स्निग्ध यानि कि सचित्त जल से कुछ गीलापन, सचित्त रज, सचित्त मिट्टी, सूक्ष्म त्रस जीव से युक्त ऐसी पृथ्वी, शीला, या टेकरी पर खड़ा रहे, बैठे या सोए, ऐसा दूसरों के पास करवाए या करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - ७९६-७९९
जो साधु-साध्वी यहाँ बताए अनुसार स्थान पर बैठे, खड़े रहे, बैठे या स्वाध्याय करे । अन्य को वैसा करने के लिए प्रेरित करे या वैसा करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त ।
जहाँ धुणा का निवास हो, जहाँ धुणा रहते हो ऐसे या अंड-प्राण, सचित्त बीज, सचित्त वनस्पति, हिमसचित्त, जलयुक्त लकड़े हो, अनन्तकाय कीटक, मिट्टी, कीचड़, मकड़े की जालयुक्त स्थान हो, अच्छी तरह से बँधा न हो. ठीक न रखा हो, अस्थिर हो या चलायमान हो ऐसे स्तम्भ, घर, ऊपर की देहली, ऊखलभूमि, स्नानपीठ, तृण या पत्थर की भींत, शीला, मिट्टीपिण्ड, मंच, लकड़े आदि के बने स्कंध, मंच, मांडवी या माला, जीर्ण ऐसे छोटे या बड़े घर, इस सर्व स्थान पर बैठे, सोए, खड़ा रहे या स्वाध्याय करे । सूत्र-८००-८०४
___ जो साधु-साध्वी अन्य तीर्थिक या गृहस्थ को शिल्पश्लोक, पासा, निमित्त या सामुद्रिक शास्त्र, काव्य-कला, भाटाई शीखलाए, सरोष, कठिन, दोनों तरह के वचन कहे, या अन्यतीर्थिक की आशातना करे, दूसरों के पास यह काम करवाए या वैसा करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र-८०५-८१७
जो साधु-साध्वी अन्यतीर्थिक या गृहस्थ के साथ नीचे बताए अनुसार कार्य करे, करवाए या अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । कौतुककर्म, भूतिकर्म, देवआह्वान पूर्वक प्रश्न पूछने, पुनः प्रश्न करना, शुभाशुभ फल समान उत्तर कहना, प्रति उत्तर कहना, अतित, वर्तमान या आगामी काल सम्बन्धी निमित्त-ज्योतिष कथन करना, लक्षण ज्योतिष या स्वप्न फल कहना, विद्या-मंत्र या तंत्र प्रयोग की विधि बताना, मार्ग भूले हए, मार्ग न जाननेवाले, अन्य मार्ग पर जाते हो उसे मार्ग पर लाए, ट्रॅके रास्ते दिखाए, दोनों रास्ते दिखाए, पाषाण-रस या मिट्टी युक्त धातु दिखाए, निधि दिखाए तो प्रायश्चित्त । सूत्र-८१८-८२५
जो साधु-साध्वी पात्र, दर्पण, तलवार, मणी, सरोवर आदि का पानी, प्रवाही गुड़, तैल, मधु, घी, दारू या चरबी में अपना मुँह देखे, दूसरों को देखने के लिए कहे, मुँह देखनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र-८२६-८४७
जो साधु-साध्वी पासत्था, अवसन्न, कुशील, नितीय, संसक्त, काथिक, प्राश्निक, मामक, सांप्रसारिक यानि कि गृहस्थ को वंदन करे, प्रशंसा करे, करवाए या करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त ।
पासत्था-ज्ञान, दर्शन, चारित्र के निकट रहके भी उद्यम न करे । कशील-निंदित कर्म करे. अवसन्न सामाचारी उलट-सलट करे, चारित्र विराधना दोषयक्त, अहाछंद, स्वच्छंद, नीतिय, नित्यपिंड खानेवाला, काथिकअशन आदि के लिए या प्रशंसा के लिए कथा करे, प्राश्निक-सावध प्रश्न करे, मामग-वस्त्र-पात्र आदि मेरा-मेरा करे, सांप्रसारिक-गृहस्थ।
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आगम सूत्र ३४, छेदसूत्र-१, निशीथ'
उद्देशक/सूत्र सूत्र -८४८-८६२
जो साधु-साध्वी नीचे बताने के अनुसार भोजन करे, करवाए, करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त ।
धात्रि, दूति, निमित्त, आजीविका, वनीपक, चिकित्सा, क्रोध, मान, माया, लोभ, विद्या, मंत्र, योग, चूर्ण या अंतर्धान इसमें से किसी भी पिंड़ यानि भोजन खाए, खिलाए या खानेवाले की अनुमोदना करे।।
धात्री-गृहस्थ के बच्चे के साथ खेलकर गोचरी करे । दूती, गृहस्थ के संदेशा की आप-ले करे, निमित्तशुभाशुभ कथन करे, आजीविक, जीवन निर्वाह के लिए जाति-कुल तारीख करे, वनीपक दीनतापूर्वक याचना करे, चिकित्सा-रोग आदि के लिए औषध दे, विद्या, स्त्री देवता अधिष्ठित साधना, मंत्र, पुरुष देवता अधिष्ठित साधना, योग-वशीकरण आदि प्रयोग, चूर्ण, कई चीज मिश्रित चूर्ण प्रयोग, इसमें से किसी दोष का सेवन करके आहार लाए।
इस प्रकार उद्देशक-१२ में बताए अनुसार किसी भी कृत्य खुद करे, अन्य के पास करवाए या करनेवाले की अनुमोदना करे तो 'चातुर्मासिक परिहारस्थान प्रायश्चित्त' मतलब लघुचौमासी प्रायश्चित्त आता है।
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आगम सूत्र ३४, छेदसूत्र-१, निशीथ'
उद्देशक/सूत्र उद्देशक-१४ "निसीह'' सूत्र के इस उद्देशक में ८६३ से ९०४ यानि कि कुल ४१ सूत्र हैं । उसमें कहे अनुसार किसी भी दोष का त्रिविधे सेवन करनेवाले को चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं उग्घातियं' नाम का प्रायश्चित्त आता है। सूत्र-८६३-८६६
जो साधु-साध्वी नीचे कहने के अनुसार पात्र खुद ग्रहण करे, दूसरों के पास ग्रहण करवाए या उस तरह से ग्रहण करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त ।
खुद खरीद करे, करवाए या कोई खरीदकर लाए तो ले, उधार ले, दिलवाए, सामने से उधार दिया हुआ ग्रहण करे, पात्र एक दूजे से बदले, बदलाए, कोई बदला हुआ लाए तो रखे, छीनकर लाए, अनेक मालिक हो वैसा पात्र सबकी आज्ञा बिना ले, सामने से लाया गया पात्र स्वीकार करे । सूत्र-८६७-८६९
जो साधु-साध्वी अधिक पात्र हो तो सामान्य से या विशेष से गणि को पूछे बिना या निमंत्रित किए बिना अपनी ईच्छा अनुसार दूसरों को वितरण करे, हाथ, पाँव, कान, नाक, होठ जिसके छेदन न हुए हो ऐसे विकलांग ऐसे क्षुल्लक आदि या कमजोर को न दे, न दिलाए या न देनेवाले की अनुमोदना करे। सूत्र-८७०-८७१
जो साधु-साध्वी खंड़ित, निर्बल, लम्बे अरसे तक न टिके ऐसे, न रखने के योग्य पात्र धारण करे, अखंड़ित, दृढ़, टिकाऊ और रखने में योग्य पात्र धारण न करे, न करवाए, न करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र-८७२-८७३
जो साधु-साध्वी शोभायमान या सुन्दर पात्र को अशोभनीय करे और अशोभन पात्र को शोभायमान या सुन्दर करे-करवाए या करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - ८७४-८८१
जो साधु-साध्वी मुझे नया पात्र नहीं मिलता ऐसा करके मिले हुए पात्र को या मेरा पात्र बदबूवाला है ऐसा करके-सोचकर अचित्त ऐसे ठंड़े या गर्म पानी से एक या ज्यादा बार धोए, काफी दिन तक पानी में डूबोकर रखे, कल्क, लोध्र, चूर्ण, वर्ण आदि उद्वर्तन चूर्ण का लेप करे या काफी दिन तक लेपवाला करे, करवाए या अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र-८८२-८९३
जो साधु-साध्वी सचित्त पृथ्वी पर पात्र को एक या बार बार तपाए या सुखाए, वहाँ से आरम्भ करके जो साधु-साध्वी ठीक तरह से न बाँधे हुए, ठीक न किए हुए, अस्थिर या चलायमान ऐसे लकड़े के स्कन्ध, मंच, खटिया के आकार का मांची, मंडप, मजला, जीर्ण ऐसा छोटा या बड़ा मकान उस पर पात्रा तपाए या सूखाए, दूसरों को सूखाने के लिए कहे उस तरह से सूखानेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त ।
इस ८८२ से ८९३ यह ११ सूत्र उद्देशक-१३ के सूत्र ७८९ से ७९९ अनुसार हैं । इसलिए इस ११ सूत्रों का विस्तार उद्देशक-१३ के सूत्र अनुसार जान ले - समझ लेना । फर्क इतना की यहाँ उस जगह पर पात्र तपाए ऐसा समझना। सूत्र-८९४-८९८
जो साधु-साध्वी पात्र में पड़े सचित्त पृथ्वी, अप् या तेऊकाय को, कंद, मूल, पात्र, फल, पुष्प या बीज को खुद बाहर नीकाले, दूसरों से नीकलवाए, कोई नीकालकर सामने से दे उसका स्वीकार करे, करवाए, करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त ।
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आगम सूत्र ३४, छेदसूत्र-१, निशीथ'
उद्देशक/सूत्र सूत्र-८९९
जो साधु-साध्वी पात्र पर कोरणी करे-करवाए या कोतर काम किया गया पात्र कोई सामने से दे तो ग्रहण करे, करवाए या अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - ९००-९०१
जो साधु-साध्वी जानेमाने या अनजान श्रावक या इस श्रावक के पास गाँव में या गाँव के रास्ते में, सभा में से खड़ा करके जोर-जोर से पात्र की याचना करे, करवाए या अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - ९०२-९०३
जो साधु-साध्वी पात्र का लाभ होगा वैसी ईच्छा से ऋतुबद्ध यानि शर्दी, गर्मी या मासकल्प या वर्षावास मतलब चातुर्मास निवास करे, करवाए या अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र-९०४
इस प्रकार उद्देशक-१४ में कहने के अनुसार किसी भी दोष का खुद सेवन करे, दूसरों के पास सेवन करवाए या दोष सेवन करनेवाले की अनुमोदना करे तो चातुर्मासिक परिहारस्थान उद्घातिक नाम का प्रायश्चित्त आता है, जिसे लघु चौमासी प्रायश्चित्त कहते हैं।
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आगम सूत्र ३४, छेदसूत्र-१, निशीथ'
उद्देशक/सूत्र उद्देशक-१५ निसीह'' सूत्र के इस उद्देशक में ९०५ से १०५८ इस तरह से कुल १५४ सूत्र हैं । जिसमें से किसी भी
दोष
का त्रिविध से सेवन करनेवाले को चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं उग्घातियं नाम का प्रायश्चित्त आता है। सूत्र - ९०५-९०८
जो साधु-साध्वी दूसरे साधु-साध्वी को आक्रोशयुक्त, कठिन, दोनों तरह के वचन कहे या अन्य किसी तरह की अति आशातना करे, करवाए, अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र- ९०९-९१६
जो साधु-साध्वी सचित्त आम खाए, या चूसे, सचित्त आम, उसकी पेशी, टुकड़े, छिलके के भीतर का हिस्सा खाए, या चूसे, सचित्त का संघट्टा होता हो वहाँ रहा आम का पेड़ या उसकी पेशी, टुकड़े, छिलके आदि खाए या चूसे, ऐसा खुद करे, दूसरों के पास करवाए या ऐसा करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - ९१७-९७०
जो साधु-साध्वी अन्यतीर्थिक या गृहस्थ के पास अपने पाँव एक या बार बार प्रमार्जन करे, दूसरों को प्रमार्जन करने के लिए प्रेरित करे, प्रमार्जन करनेवाले की अनुमोदना करे । (इस सूत्र से आरम्भ करके) जो साधुसाध्वी एक गाँव से दूसरे गाँव विचरनेवाले अन्यतीर्थिक या गृहस्थ के पास अपने सिर का आच्छादन करवाए, दूसरों को वैसा करने के लिए प्रेरित करे या वैसा करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । (उद्देशक-३ में सूत्र१३३ से १८५ में यह सब वर्णन है । यानि ९१८ से ९७० सूत्र का विवरण इस प्रकार समझ लेना, फर्क केवल इतना है कि उद्देश तीन में यह काम खुद करे ऐसा बताते हैं । इस उद्देशक में यह कार्य अन्य के पास करवाए ऐसा समझना ।) सूत्र - ९७१-९७९
जो साधु-साध्वी धर्मशाला, बगीचा, गाथापति के घर या तापस के निवास आदि में मल-मूत्र का त्याग करे, करवाए, करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त ।
(उद्देशक-५ में सूत्र ५६१ से ५६९ में धर्मशाला से आरम्भ करके महागृह तक वर्णन किया है । इस प्रकार यहाँ इस नौ सूत्र में वर्णन किया है । इसलिए नौ सूत्र का वर्णन उद्देशक-५ अनुसार जान लेना-समझ लेना । फर्क केवल इतना कि यहाँ धर्मशाला आदि स्थान में मल-मूत्र परठवे ऐसा समझना ।) सूत्र - ९८०-९८१
जो साधु-साध्वी अन्यतीर्थिक या गृहस्थ को अशन-पान, खादिम, स्वादिम, वस्त्र-पात्र, कंबल, रजोहरण दे, दिलाए या देनेवाले की अनुमोदना करे । सूत्र - ९८२-१००१
जो साधु-साध्वी पासत्था को अशन आदि आहार, वस्त्र, पात्र, कंबल, रजोहरण दे या उनके पास से ग्रहण करे, करवाए, अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । उसी प्रकार ओसन्न, कुशील, नीतिय, संसक्त को आहार, वस्त्र, पात्र, कम्बल, रजोहरण दे या उनके पास से ग्रहण करे तो प्रायश्चित्त ।
(पासत्था से संसक्त तक के शब्द की समझ, उद्देशक-१३ के सूत्र ८३० से ८४७ तक वर्णित की गई है। इस प्रकार जान-समझ लेना ।) सूत्र- १००२
जो साधु-साध्वी किसी को हमेशा पहनने के, स्नान के, विवाह के, राजसभा के वस्त्र के अलावा कुछ माँगने से प्राप्त होनेवाला या निमंत्रण से पाया गया वस्त्र कहाँ से आया या किस तरह तैयार हुआ ये जाने सिवा
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आगम सूत्र ३४, छेदसूत्र-१, निशीथ'
उद्देशक/सूत्र उसके बारे में पूछे बिना, उसकी गवेषणा किए बिना उन दोनों तरह के वस्त्र ग्रहण करे-करवाए, अनुमोदना करे । सूत्र- १००३-१०५६
जो साधु-साध्वी विभूषा के निमित्त से यानि शोभा-खूबसूरती आदि बढ़ाने की बुद्धि से अपने पाँव का एक या कईं बार प्रमार्जन करे-करवाए, अनुमोदना करे । (इस सूत्र से आरम्भ करके) एक गाँव से दूसरे गाँव जाते हुए अपने मस्तक का आच्छादन करे-करवाए, करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त ।।
(उद्देशक-३ के सूत्र-१३३ से १८५ में यह सभी विवरण किया है । उसी के अनुसार यहाँ सूत्र १००४ से १०५६ के लिए समझ लेना । फर्क केवल इतना की पाँव धोना आदि की क्रिया यहाँ इस उद्देशक में शोभाखूबसूरती बढ़ाने के आशय से हुई हो तब प्रायश्चित्त आता है।) सूत्र - १०५७-१०५८
जो साधु-साध्वी विभूषा निमित्त से यानि शोभा या खूबसूरती बढ़ाने के आशय से वस्त्र, पात्र, कम्बल, रजोहरण या अन्य किसी उपकरण धारण करे, करवाए, अनुमोदना करे या धोए, धुलवाए, धोनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त ।
यह उद्देशक-१५ में बताए अनुसार किसी भी दोष का खुद सेवन करे, दूसरों के पास सेवन करवाए या दोष सेवन करनेवाले की अनुमोदना करे तो उसे चातुर्मासिक परिहारस्थान उद्घातिक कि जिसका दूसरा नाम 'लघु चौमासी' है वो प्रायश्चित्त आता है।
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आगम सूत्र ३४, छेदसूत्र-१, निशीथ'
उद्देशक/सूत्र उद्देशक-१६ 'निसीह'' सूत्र के इस उद्देशक में १०५९ से ११०८ यानि कि कुल-५० सूत्र हैं । इसमें बताए अनुसार किसी भी दोष का त्रिविधे सेवन करनेवाले को चाउम्मासियं परिहारट्राणं उग्घातियं नाम का प्रायश्चित्त आता है। सूत्र-१०५९-१०६१
जो साधु-साध्वी सागारिक यानि गृहस्थ जहाँ रहते हो वैसी वसति, सचित्त जल या अग्निवाली वसति में जाए या प्रवेश करे, करवाए या करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र-१०६२-१०६९
जो साधु-साध्वी सचित्त ऐसी ईख खाए, खिलाए या खिलानेवाले की अनुमोदना करे (इस सूत्र से आरम्भ करके सूत्र १०६९ तक के आठ सूत्र, उद्देशक-१५ के सूत्र ९०९ से ९१६ के आठ सूत्र अनुसार समझना । फर्क केवल इतना कि वहाँ आम के बारे में कहा है, उसकी जगह यहाँ ईख' शब्द का प्रयोग करना ।) सूत्र-१०७०
जो साधु-साध्वी अरण्य या जंगल में रहनेवाले या अटवी में यात्रा में जानेवाले के वहाँ से अशन, पान, खादिम, स्वादिम रूप आहार ग्रहण करे, करवाए, अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - १०७१-१०७२
जो साध-साध्वी विशद ज्ञान, दर्शन, चारित्र आराधक को ज्ञान, दर्शन, चारित्र आराधक न कहे और ज्ञान, दर्शन, चारित्र रहित या अल्प आराधक को विशद्ध ज्ञान आदि धारक कहे, कहलाए या कहनेवाले करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र-१०७३
जो साधु-साध्वी विशुद्ध या विशेष ज्ञान, दर्शन, चारित्र आराधक गण में से अल्प या अविशुद्ध ज्ञान, दर्शन, चारित्र गण में जाए, भेजे या जानेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र- १०७४-१०८२
जो साधु-साध्वी व्युद्ग्राहीत या कदाग्रह वाले साधु (साध्वी) को अशन, पान, खादिम, स्वादिम समान आहार, वस्त्र, पात्र, कंबल या रजोहरण, वसति यानि कि उपाश्रय, सूत्र अर्थ आदि वांचना दे या, उसके पास से ग्रहण करे और उसकी वसति में प्रवेश करे, करवाए, करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र- १०८३-१०८४
जहाँ सुख-शान्ति से विचरण कर सके ऐसे क्षेत्र और आहार-उपधि-वसति आदि सुलभ हो ऐसे क्षेत्र प्राप्त होने के बाद भी विहार के आशय से या उम्मीद से जहाँ कोई दिन-रात को पहुँच पाए वैसी अटवी या विकट मार्ग पसन्द करने के लिए जो साधु-साध्वी सोचे या विकट ऐसे चोर आने-जाने के, अनार्य-म्लेच्छ या अन्त्य जन से परिसेवन किए जानेवाले मार्ग विहार के लिए सोचे या अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त ।। सूत्र - १०८५-१०९०
जो साधु-साध्वी जुगुप्सित या निन्दित कुल में से अशन, पान, खादिम, स्वादिम रूप आहार-वस्त्र, पात्र, कम्बल, रजोहरण, वसति ग्रहण करे, करवाए, करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र-१०९१-१०९३
जो साधु-साध्वी अशन, पान, खादिम, स्वादिम रूप आहार भूमि पर, संथारा में, खींटी या सिक्के में स्थापन करे, रख दे, रखवाए या रखनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त ।
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आगम सूत्र ३४, छेदसूत्र-१, निशीथ'
उद्देशक/सूत्र सूत्र - १०९४-१०९५
जो साधु-साध्वी अन्यतीर्थिक या गृहस्थ के साथ बैठकर, या दो-तीन या चारों ओर से अन्यतीर्थिक आदि हो उसके बीच बैठकर आहार करे, करवाए या करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र-१०९६
जो साधु-साध्वी आचार्य-उपाध्याय (या रत्नाधिक) के शय्या-संथारा को पाँव से संघट्टा करे यानि कि उस पर लापरवाही से पाँव आए तब हाथ द्वारा उसे छू कर यानि अपने दोष की माँफी माँगे बिना चले जाए, दूसरों को वैसा करने के लिए प्रेरित करे या वैसा करनेवाले को साधु-साध्वी की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - १०९७
जो साधु-साध्वी (शास्त्रोक्त) प्रमाण या गणन संख्या से ज्यादा उपधि रखे, रखवाए या रखनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र-१०९८-११०८
जो साधु-साध्वी सचित्त पृथ्वी पर.. आदि.. पर मल-मूत्र का त्याग करे, करवाए, करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त ।
(संक्षेप में कहा जाए तो विराधना हो वैसी जगह में मल-मूत्र परठवे, ऐसा इस ११ सूत्र में बताते हैं । १३वे उद्देशक के सूत्र ७८९ से ७९९ इन ११ सूत्र में यह वर्णन किया है, उस प्रकार समझ लेना । फर्क केवल इतना कि उन हर एक जगह पर मल-मूत्र का त्याग करे ऐसे सम्बन्ध प्रत्येक दोष के साथ जोडना ।)
इस प्रकार उद्देशक-१६ में बताए अनुसार के किसी भी दोष का खुद सेवन करे, दूसरों के पास सेवन करवाए या अनुमोदना करे तो चातुर्मासिक परिहार स्थान उद्घातिक यानि 'लघु चौमासी' प्रायश्चित्त आता है।
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आगम सूत्र ३४, छेदसूत्र-१, निशीथ'
उद्देशक/सूत्र उद्देशक-१७ 'निसीह'' सूत्र के इस उद्देशक में ११०९ से १२५९ यानि कि कुल-१५१ सूत्र हैं । जिसमें बताए अनुसार किसी भी दोष का त्रिविधे सेवन करनेवाले को चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं उग्घातियं' नाम का प्रायश्चित्त आता है। सूत्र-११०९-१११०
जो साधु-साध्वी कुतुहूलवृत्ति से किसी त्रस्त जानवर को तृण, घास, काष्ठ, चर्म, वेल, रस्सी या सूत से बाँधे या बँधे को छोड़ दे, छुड़वा दे, अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - ११११-११२२
जो साधु-साध्वी कुतुहूलवृत्ति से हार, कड़े, आभूषण, वस्त्र आदि करवाए, अपने पास रखे या धारण करे यानि पहने । यह सब काम खुद करे-दूसरों से करवाए या वैसा करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त ।
(उद्देशक-७ के सूत्र ४७० से ४८१ उन १२ सूत्र में यह सब वर्णन किया है, वे सब बात यहाँ समझ लेना । फर्क इतना कि वहाँ यह सब काम मैथुन ईच्छा से बताए हैं वे यहाँ कुतुहूल वृत्ति से किए हुए जानना-समझना ।) सूत्र- ११२३-११७५
जो कोई साध्वी अन्य तीर्थिक या गृहस्थ के पास साधु के पाँव प्रक्षालन आदि शरीर परिकर्म करवाए, दूसरों को वैसा करने की प्रेरणा दे या वैसा करनेवाले की अनुमोदना करे वहाँ से आरम्भ करके एक गाँव से दूसरे गाँव विचरण करते हुए किसी साध्वी अन्यतीर्थिक या गृहस्थ को कहकर साधु के मस्तक को आच्छादन करे, करवाए, अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । .....(उपरोक्त ११२३ से ११७५ यानि कि कुल ५३ सूत्र और अब आगे कहलाएंगे वो ११७६ से १२२९ सूत्र हर एक में आनेवाले दोष की विशद् समझ या अर्थ इससे पहले उद्देशक-३ के सूत्र १३३ से १८५ में बताए गए हैं । वो वहाँ से समझ लेना । फर्क केवल इतना कि ११२३ से ११७५ सूत्र में किसी साध्वी अन्यतीर्थिक या गृहस्थ को कहकर साधु के शरीर के इस प्रकार परिकर्म करवाए ऐसा समझना है और सूत्र ११७६ से १२२९ में किसी साधु इस प्रकार ''साध्वी के शरीर का परिकर्म करवाए'' ऐसा समझना ।) सूत्र- ११७६-१२२९
जो किसी साधु अन्यतीर्थिक या गृहस्थ को कहकर (ऊपर बताए मुताबित) साध्वी के पाँव प्रक्षालन आदि शरीर-परिकर्म करवाए, दूसरों को ऐसा करने के लिए कहे या ऐसा करनेवाले साधु की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त सूत्र - १२३०-१२३१
जो किसी साध समान सामाचारीवाले अपनी वसति में आए हए साध को या साध्वी समान सामाचारीवाले स्व वसति में आए साध्वी को, निवास यानि कि रहने की जगह होने के बाद भी स्थान यानि कि ठहरने के लिए जगह न दे, न दिलाए या न देनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - १२३३-१२३४
जो साधु-साध्वी माले पर से (माला-ऊपर हो, भूमिगृह में हो या मॅच पर से उतारा हुआ), बड़ी कोठी में से, मिट्टी आदि मल्हम से बँध किया ढक्कन खोलकर लाया गया अशन, पान, खादिम, स्वादिम रूप आहार ग्रहण करे, करवाए, करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - १२३५-१२३८
जो साधु-साध्वी सचित्त पृथ्वी, पानी, अग्नि या वनस्पति पर (या साथ में) प्रतिष्ठित किए हुए या रखे हुए अशन, पान, खादिम, स्वादिम समान आहार ग्रहण करे, करवाए, करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - १२३९
जो साधु-साध्वी अति उष्ण ऐसे अशन आदि आहार कि जो मुख से वायु से - सूर्प यानि किसी पात्र विशेष
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आगम सूत्र ३४, छेदसूत्र-१, निशीथ'
उद्देशक/सूत्र से हिलाकर, विंझणा या पंखे के द्वारा, घुमा-फिराकर, पत्ता-पत्ते का टुकड़ा, शाखा-शाखा का टुकड़ा-मोरपिंच्छ या मोरपिच्छ का विंझन, वस्त्र या वस्त्र का टुकड़ा या हाथ से हवा फेंककर, फूंककर ठंड़े किए हो उसे दे (संक्षेप में कहा जाए तो अति उष्ण ऐसे अशन आदि ऊपर कहे गए किसी तरह ठंड़े किए गए हो वो लाकर कोई वहोरावे तब जो साधु-साध्वी) उसे ग्रहण करे-करवाए, अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - १२४०
जो साधु-साध्वी आँटा, पीष्टोदक, चावल, घड़ा, तल, तुष, जव, ठंड़ा किया गया लोहा या कांजी उसमें से किसी धोवाण या शुद्ध उष्ण पानी कि जो तत्काल धोया हआ यानि कि तैयार किया गया हो, जिसमें से खट्टापन गया न हो, अपरिणत या पूरी तरह अचित्त न हुआ हो, पूरी तरह अचित्त नहीं लेकिन मिश्र हो कि जिसके वर्ण आदि स्वभाव बदला न हो ऐसा पानी ग्रहण करे, करवाए, अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - १२४१
जो साधु (साध्वी) अपने शरीर लक्षण आदि को आचार्य पद के योग्य बताए यानि आचार्य पद के लिए योग्य ऐसे अपने शरीर आदि का वर्णन करके मैं भी आचार्य बनूँगा वैसा कहे, कहलाए या कहनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - १२४२-१२४६
जो साधु-साध्वी वितत, तन, धन और झुसिर उस चार तरह के वांजित्र के शब्द को कान से सुनने की ईच्छा से मन में संकल्प करे, दूसरों को वैसा संकल्प करने के लिए प्रेरित करे या वैसा संकल्प करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त ।। __-भेरी, ढोल, ढोल जैसा वाद्य, मृदंग, (बारह वाद्य साथ बज रहे हो वैसा वाद्य) नंदि, झालर, वल्लरी, डमरु, पुरुषल नाम का वाद्य, सदुक नाम का वाद्य, प्रदेश, गोलुंकी, गोकल इस तरह के वितत शब्द करनेवाले वाद्य, सीतार, विपंची, तूण, बव्वीस, वीणातिक, तुंबवीणा, संकोटक, रुसुक, ढंकुण या उस तरह के अन्य किसी भी तंतवाद्य, ताल, काँसताल, लित्तिका, गोधिका, मकरिका, कच्छवी, महतिका, सनालिका या उस तरह के अन्य घन शब्द करनेवाले वाद्य, शंख, बाँसूरी, वेणु, खरमुखी, परिली, चेचा या ऐसे अन्य तरह के झुषिर वाद्य । (यह सब सुनने की जो ईच्छाप्रवृत्ति) सूत्र - १२४७-१२५८
जो साधु-साध्वी दुर्ग, खाई यावत् विपुल अशन आदि का आदान-प्रदान होता हो ऐसे स्थान के शब्द को कान से श्रवण करने की ईच्छा या संकल्प प्रवृत्ति करे, करवाए, अनुमोदन करे तो प्रायश्चित्त ।
(उद्देशक-१२ में सूत्र ७६३ से ७७४ उन बारह सूत्र में इन सभी तरह के स्थान की समझ दी है । इस प्रकार समझ लेना । फर्क केवल इतना कि बारहवे उद्देशक में यह वर्णन चक्षु इन्द्रिय सम्बन्ध में था यहाँ उसे सुनने की ईच्छा या संकल्पना दोष समान मानना ।) सूत्र-१२५९
___जो साधु-साध्वी इहलौकिक या पारलौकिक, पहले देखे या अनदेखे, सुने हुए या अनसुने, जाने हुए या अनजान, ऐसे शब्द के लिए सज्ज हो, रागवाला हो, वृद्धिवाला हो या अति आसक्त होकर जो सज्ज हुआ है उसकी अनुमोदना करे।
इस प्रकार उद्देशक-१७ में बताए गए किसी भी दोष का जो किसी साधु-साध्वी खुद सेवन करे, दूसरों से सेवन करवाए, यह दोष सेवन करनेवाले की अनुमोदना करे तो उसे चातुर्मासिक परिहारस्थान उद्घातिक नाम का प्रायश्चित्त आता है जो लघु चौमासी' प्रायश्चित्त नाम से भी पहचाना जाता है।
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आगम सूत्र ३४, छेदसूत्र-१, निशीथ'
उद्देशक/सूत्र उद्देशक-१८ "निसीह'' सूत्र के इस उद्देशक में १२६० से १३३२ यानि कि कुल-७३ सूत्र हैं । जिसमें कहे गए किसी भी दोष का त्रिविधे सेवन करनेवाले को चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं उग्घातियं' नाम का प्रायश्चित्त आता है। सूत्र - १२६०
जो साधु-साध्वी अति आवश्यक प्रयोजन बिना नौका-विहार करे, करवाए, करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र-१२६१-१२६४
जो साधु-साध्वी दाम देकर नाँव खरीद करे, उधार लेकर, परावर्तीत करके या छीनकर उस पर आरोहण करे यानि खरीदना आदि के द्वारा नौका विहार करे, करवाए या अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त ।।
(उद्देशक-१४ के सूत्र ८६३ से ८६६ में इन चार दोष का वर्णन किया है इस प्रकार समझ लेना, फर्क इतना कि वहाँ पात्र के लिए खरीदना आदि दोष बताए हैं वो यहाँ नौका-नाँव के लिए समझ लेना ।) सूत्र-१२६५-१२७१
जो साधु-साध्वी (नौका-विहार के लिए) नाव को स्थल में से यानि किनारे से पानी में, पानी में से किनारे पर मँगवाए, छिद्र आदि कारण से पानी से भरी नाँव में से पानी बाहर नीकाले, कीचड़ में फँसी नाव बाहर नीकाले, आधे रास्ते में दूसरा नाविक मुझे लेने आएगा वैसा कहकर यानि बड़ी नाँव में जाने के लिए छोटी नाँव में बैठे, ऊर्ध्व एक योजन या आधे योजन से ज्यादा लम्बे मार्ग को पार करनेवाली नौका में विहार करे-इन सभी दोष का सेवन करे, करवाए या करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र-१२७२
जो साधु-साध्वी, नाँव-नौका को अपनी ओर लाने की प्रेरणा करे, चलाने के लिए कहे या दूसरों से चलाई जाती नाँव को रस्सी या लकडे से पानी से बाहर नीकाले ऐसा खुद करे, करवाए या करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - १२७३
जो साधु-साध्वी नाँव को हलेसा, वाँस की लकड़ी के द्वारा खुद चलाए, दूसरों से चलवाए या चलानेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - १२७४-१२७५
जो साधु-साध्वी नाँव में भरे पानी को नौका के सम्बन्धी पानी नीकालने के बरतन से आहारपात्र से या मात्रक-पात्र से बाहर नीकाले, नीकलवाए या अनुमोदना करे, नाँव में पड़े छिद्र में से आनेवाले पानी को, ऊपर चड़ते हुए पानी से डूबती हुई नाँव को बचाने के लिए हाथ, पाँव, पीपल के पत्ते, घास, मिट्टी, वस्त्र या वस्त्रखंड़ से छिद्र बन्द करे, करवाए, अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - १२७६-१२९१
जो साधु-साध्वी नौका-विहार करते वक्त नाँव में हो, पानी में हो, कीचड़ में हो या किनारे पर हो उस वक्त नाँव में रहे-पानी में रहे, कीचड़ में रहे या किनारे पर रहा किसी दाता अशन आदि वहोरावे और यदि किसी साधुसाध्वी अशन, पान, खादिम, स्वादिम ग्रहण करे, करवाए या अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त ।
(यहाँ कुल १६ सूत्र द्वारा १६-भेद बताए हैं । जिस तरह नाँव में रहे साधु को नाँव में, जल में, कीचड़ में या किनारे पर रहे दाता अशन आदि दे तब ग्रहण करना उस तरह से पानी में रहे, कीचड़ में रहे, किनारे पर रहे साधुसाध्वी को पहले बताए गए उस चारों भेद से दाता दे और साधु-साध्वी ग्रहण करे ।)
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आगम सूत्र ३४, छेदसूत्र-१, 'निशीथ'
उद्देशक/सूत्र सूत्र - १२९२-१३३२
जो साधु-साध्वी वस्त्र खरीद करे, करवाए या खरीद करके आए हुए वस्त्र को ग्रहण करे, करवाए, अनुमोदना करे (इस सूत्र से आरम्भ करके) जो साधु-साध्वी यहाँ मुझे वस्त्र प्राप्त होगा वैसी बुद्धि से वर्षावासचातुर्मास रहे, दूसरों को रहने के लिए कहे या रहनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त ।
(नोंध-उद्देशक १४ में कुल ४१ सूत्र हैं । वहाँ पात्र के सम्बन्ध से जो विवरण किया गया है उस प्रकार उस ४१ सूत्र के लिए समझ लेना, फर्क केवल इतना कि यहाँ पात्र की जगह वस्त्र समझना ।)
इस प्रकार उद्देशक-१८ में बताए किसी भी दोष का जिसका साधु-साध्वी खुद सेवन करे, दूसरों के पास सेवन करवाए या उस दोष का सेवन करनेवाले की अनुमोदना करे तो उसे चातुर्मासिक परिहारस्थान उद्घातिक नाम का प्रायश्चित्त आता है, जिसे लघु चौमासी' प्रायश्चित्त भी कहते हैं।
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आगम सूत्र ३४, छेदसूत्र-१, निशीथ'
उद्देशक/सूत्र उद्देशक-१९ 'निसीह'' सूत्र के इस उद्देशक में १३३३ से १३६९ यानि कि कुल-३७ सूत्र हैं । इसमें बताए गए किसी भी दोष का त्रिविधे सेवन करनेवाले को चाउम्मासियं परिहारट्राणं उग्घातियं नाम का प्रायश्चित्त आता है। सूत्र-१३३३-१३३६
जो साधु-साध्वी खरीदके, उधार ले के, विनिमय करके या छिनकर लाए गए प्रासुक या निर्दोष ऐसे अनमोल औषध को ग्रहण करे, करवाए, करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त ।
(नोंध-उद्देशक १४ के सूत्र ८६३ से ८६६ में इन चारों दोष का विशद् विवरण किया गया है, उस प्रकार समझ लेना । फर्क केवल इतना कि वहाँ पात्र खरीदने के लिए यह दोष बताए हैं जो यहाँ औषध के लिए समझना।) सूत्र-१३३७-१३३९
जो साधु-साध्वी प्रासुक या निर्दोष ऐसे अनमोल औषध ग्लान के लिए भी तीन मात्रा से ज्यादा लाए, ऐसा औषध एक गाँव से दूसरे गाँव ले जाते हुए साथ रखे, ऐसा औषध खुद बनाए, बनवाए या कोई सामने से बनाकर दे तब ग्रहण करे, करवाए, अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र- १३४०
जो साधु-साध्वी चार संध्या-सूर्योदय, सूर्यास्त, मध्याह्न और मध्यरात्रि के पहले और बाद का अर्थ-मुहूर्त काल इस वक्त स्वाध्याय करे, करवाए, अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र-१३४१-१३४२
जो साधु-साध्वी कालिक सूत्र की नौ से ज्यादा और दृष्टिवाद की २१ से ज्यादा पृच्छा यानि कि पृच्छनारूप स्वाध्याय को अस्वाध्याय या तो दिन और रात के पहले या अंतिम प्रहर के सिवा के काल में करे, करवाए, अनुमोदना करे। सूत्र-१३४३-१३४४
जो साधु-साध्वी इन्द्र, स्कन्द, यक्ष, भूत उन चार महामहोत्सव और उसके बाद की चार महा प्रतिपदा में यानि चैत्र, आषाढ़, आसो और कार्तिक पूर्णिमा और उसके बाद आनेवाले एकम में स्वाध्याय करे, करवाए, करनेवाले की अनुमोदना करे। सूत्र-१३४५
जो साधु-साध्वी चार पोरिसी यानि दिन और रात्रि के पहले तथा अन्तिम प्रहर में (जो कालिक सूत्र का स्वाध्यायकाल है उसमें) स्वाध्याय न करे, न करने के लिए कहे या न करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - १३४६-१३४७
जो साधु-साध्वी शास्त्र निर्दिष्ट या अपने शरीर के सम्बन्धी होनेवाले अस्वाध्याय काल में स्वाध्याय करे, करवाए, अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - १३४८-१३४९
जो साधु-साध्वी नीचे दिए गए सूत्रार्थ की वांचना दिए बिना सीधे ही ऊपर के सूत्र को वांचना दे यानि शास्त्र निर्दिष्ट क्रम से सूत्र की वाचना न दे, नवबंभचेर यानि आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के नौ अध्ययन की वांचना दिए बिना सीधे ही ऊपर के यानि कि छेदसूत्र या दृष्टिवाद की वांचना दे, दिलाए, देनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त ।
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आगम सूत्र ३४, छेदसूत्र-१, निशीथ'
उद्देशक/सूत्र सूत्र-१३५०-१३५५
जो साधु-साध्वी अविनित को, अपात्र या अयोग्य को और अव्यक्त यानि कि १६ साल का न हुआ हो उनको वाचना दे, दिलाए, अनुमोदना करे और विनित को, पात्र या योग्यतावाले को और व्यक्त यानि सोलह साल के ऊपर को वांचना न दे, न दिलाए, न देनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - १३५६
जो साधु-साध्वी दो समान योग्यतावाले हो तब एक को शिक्षा और वांचना दे और एक को शिक्षा या वाचना न दे । ऐसा खुद करे, दूसरों से करवाए, ऐसा करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र-१३५७
जो साध-साध्वी. आचार्य-उपाध्याय या रत्नाधिक से वाचना दिए बिना या उसकी संमति के बिना अपने आप ही अध्ययन करे, करने के लिए कहे या करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - १३५८-१३६९
जो साधु-साध्वी अन्यतीर्थिक या गृहस्थ, पासत्था, अवसन्न, कुशील, नीतिय या संसक्त को वाचना दे, दिलाए, देनेवाले की अनुमोदना करे या उनके पास से सूत्रार्थ पढ़े, स्वीकार करे, स्वीकार करने के लिए कहे, स्वीकार करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त ।
(नोंध-पासत्था, अवसन्न, कुशील, नीतिय और संसक्त का अर्थ एवं समझ उद्देशक-१३ के सूत्र ८३० से ८४९ में दी गई है वहाँ से समझ लेना ।)
इस प्रकार उद्देशक-१९ में बताए किसी भी दोष का खुद सेवन करे, दूसरों से करवाए या ऐसा करनेवाले की अनुमोदना करे तो चातुर्मासिक परिहारस्थान उद्घातिक प्रायश्चित्त आता है, जिसे 'लघु चौमासी' प्रायश्चित्त भी कहते हैं।
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आगम सूत्र ३४, छेदसूत्र-१, निशीथ'
उद्देशक/सूत्र उद्देशक-२० 'निसीह'' सूत्र के इस उद्देशक में १३७० से १४२० ईस तरह से कुल-५१ सूत्र हैं । इस उद्देशक में प्रायश्चित्त की विशुद्धि के लिए क्या प्रायश्चित्त करना ? वो बताया है। सूत्र-१३७०-१३७४
___जो साधु-साध्वी एक मास का - एक महिने का निर्वर्तन योग्य परिहार स्थान यानि कि पाप या पापजनक सावध कर्मानुष्ठान का सेवन करके गुरु के पास अपना पाप प्रदर्शित करे यानि कि आलोचना करे तब माया, कपट किए बिना यानि कि निःशल्य आलोचना करे तो एक मास का ही प्रायश्चित्त आता है, लेकिन यदि माया-कपट से यानि कि शल्ययुक्त आलोचना की हो तो वो प्रायश्चित्त दो मास का आता है।
उसी तरह दो, तीन, चार, पाँच मास निर्वर्तन योग्य पापजनक सावध कर्मानुष्ठान का सेवन करने के बाद गुरु के समक्ष आलोचना करे तब कोई भी छल बिना आलोचना करे तो उतने ही मास का और शल्ययुक्त आलोचना करे तो १-१ अधिक मास का प्रायश्चित्त आता है, जैसे कि दो मास के बाद निर्वर्तन पाए ऐसे, पाप की निष्कपट आलोचना दो मास का प्रायश्चित्त, सशल्य आलोचना तीन मास का प्रायश्चित्त, लेकिन छ मास से ज्यादा प्रायश्चित्त कभी नहीं आता । सशल्य या निःशल्य आलोचना का महत्तम प्रायश्चित्त छ मास समझना। सूत्र - १३७५-१३७९
जो साधु-साध्वी कईं बार (एक नहीं, दो नहीं लेकिन तीन-तीन बार) एक मास के बाद निर्वर्तन पाए ऐसा पाप-कर्मानुष्ठान सेवन करके गुरु के समक्ष आलोचना करे तब भी ऋजु भाव से आलोचना करे तो एक मास और कपट भाव से आलोचना करे तो दो मास का प्रायश्चित्त आता है।
उसी तरह से दो, तीन, चार, पाँच मास निर्वर्तन योग्य पाप के लिए निःशल्य आलोचना से उतना ही और सशल्य आलोचना से एक-एक मास ज्यादा प्रायश्चित्त और छ मास के परिहारस्थान सेवन के लिए निःशल्य या सशल्य किसी भी आलोचना का प्रायश्चित्त छ महिने का ही आता है। सूत्र - १३८०-१३८१
जो साधु-साध्वी एक बार या कईं बार के लिए एक, दो, तीन, चार या पाँच मास से निर्वर्तन हो ऐसे पाप कर्म का सेवन करके उसी तरह के दूसरे पापकर्म (परिहारस्थान) का सेवन करे तो भी उसे उपर कहने के अनुसार निःशल्य आलोचना करे तो उतना ही प्रायश्चित्त और सशल्य आलोचना करे तो एक-एक मास ज्यादा प्रायश्चित्त परंतु छ मास से ज्यादा प्रायश्चित्त कभी नहीं आता। सूत्र - १३८२-१३८३
जो साधु-साध्वी एक बार या कईं बार चौमासी या सातिरेक चौमासी (यानि की चौमासी से कुछ ज्यादा) पंचमासी या साधिक पंचमासी इस परिहार (यानि पाप) स्थान को दूसरे इस तरह के पाप स्थान का सेवन करके या आलोचना करे तो शल्यरहित आलोचना में उतना ही प्रायश्चित्त और शल्यरहित आलोचना में एक मास ज्यादा लेकिन छ मास से ज्यादा प्रायश्चित्त नहीं आता। सूत्र-१३८४-१३८७
जो साधु-साध्वी एक बार या कईं बार चौमासी या साधिक चौमासी, पंचमासी या साधिक पंचमासी इस परिहार यानि पापस्थान में से अन्य किसी भी पाप स्थान का सेवन करके निष्कपट भाव से या कपट भाव से आलोचना करे तो क्या ? उसकी विधि बताते हैं जैसे कि परिहारस्थान पाप का प्रायश्चित्त तप कर रहे साधु की सहाय आदि के लिए पारिहारिक को अनुकूलवर्ती किसी साधु नियत किया जाए, उसे इस परिहार तपसी की वैयावच्च करने के लिए स्थापना करने के बाद भी किसी पाप-स्थान का सेवन करे और फिर कहे कि मैंने कुछ पाप किया है तब तमाम पहले सेवन किया गया प्रायश्चित्त फिर से सेवन करना चाहिए।
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आगम सूत्र ३४, छेदसूत्र-१, 'निशीथ'
उद्देशक/सूत्र (यहाँ पापस्थानक को पूर्व-पश्चात् सेवन के विषय में चतुर्भंगी है ।) १. पहले सेवन किए गए पाप की पहले आलोचना की, २. पहले सेवन किए गए पाप की बाद में आलोचना कर, ३. बाद में सेवन किए पाप की पहले आलोचना करे, ४. बाद में सेवन किए गए पाप की बाद में आलोचना करे । (पाप आलोचना क्रम कहने के बाद परिहार सेवन, करनेवाले के भाव को आश्रित करके चतुर्भगी बताता है ।) १. संकल्प काल और आलोचना के वक्त निष्कपट भाव, ३. संकल्पकाल में कपटभाव परंतु आलोचना लेते वक्त निष्कपट भाव, ४. संकल्पकाल और आलोचना दोनों वक्त कपट भाव हो ।
यहाँ संकल्प काल और आलोचना दोनों वक्त बिना छल से और जिसे क्रम में पाप का सेवन किया हो उस क्रम में आलोचना करनेवाले को अपने सारे अपराध इकट्ठे होकर उन्हें फिर से उसी प्रायश्चित्त में स्थापन करना जिसमें पहले स्थापन किए गए हो यानि उस परिहार तपसी उन्हें दिए गए प्रायश्चित्त को फिर से उसी क्रम में करने को कहे। सूत्र-१३८८-१३९३
छ, पाँच, चार, तीन, दो, एक परिहार स्थान यानि पाप स्थान का प्रायश्चित्त कर रहे साधु (साध्वी) के बीच यानि प्रायश्चित्त वहन शुरु करने के बाद दो मास जिसका प्रायश्चित्त आए ऐसे पाप स्थान का फिर से सेवन करे और यदि उस गुरु के पास उस पापकर्म की आलोचना की जाए तो दो मास से अतिरिक्त दूसरी २० रात का प्रायश्चित्त बढ़ता है । यानि कि दो महिने और २० रात का प्रायश्चित्त आता है।
एक से यावत् छ महिने का प्रायश्चित्त वहन वक्त की आदि, मध्य या अन्त में किसी प्रयोजन विशेष से, सामान्य या विशेष आशय और कारण से भी यदि पाप-आचरण हुआ हो तो भी अ-न्यूनाधिक २ मास २० रात का ज्यादा प्रायश्चित्त करना पड़ता है। सूत्र - १३९४
दो महिने और बीस रात का परिहार स्थान प्रायश्चित्त वहन कर रहे साधु को आरम्भ से - मध्य में या अन्त में फिरसे भी बीच में कभी-कभी दो मास तक प्रायश्चित्त पूर्ण होने योग्य पापस्थान का प्रयोजन - बजह-हेतु सह सेवन किया जाए तो २० रात का ज्यादा प्रायश्चित्त आता है, मतलब कि पहले के दो महिने और २० रात के अलावा दूसरे दो महिने और २० रात का प्रायश्चित्त आता है, उसके बाद उसके जैसी ही गलती की हो तो अगले १० अहोरात्र का यानि कि कुल तीन मास का प्रायश्चित्त आता है। सूत्र-१३९५-१३९८
(ऊपर के सूत्र में तीन मास का प्रायश्चित्त बताया) उसी अनुसार फिर से २० रात्रि से १० रात्रि के क्रम से बढ़ते-बढ़ते चार मास, चार मास बीस दिन, पाँच मास यावत् छ मास तक प्रायश्चित्त आता है लेकिन छह मास से ज्यादा प्रायश्चित्त नहीं आता । सूत्र-१३९९-१४०५
छ मास प्रायश्चित्त योग परिहार-पापस्थान का सेवन से छ मास का प्रायश्चित्त आता है वो प्रायश्चित्त वहन करने के लिए रहे साधु बीच में मोह के उदय से दूसरा एकमासी प्रायश्चित्त योग्य पाप सेवन करे फिर गुरु के पास आलोचना करे तब दूसरे १५ दिन का प्रायश्चित्त दिया जाए यानि कि प्रयोजन-आशय से कारण से छ मास के आदि, मध्य या अन्त में गलती करनेवाले को न्यूनाधिक ऐसा कुछ देढ़ मास का ज्यादा प्रायश्चित्त आता है।
उसी तरह पाँच, चार, तीन, दो, एक मास के प्रायश्चित्त वहन करनेवाले को कुल देढ़ मास का ज्यादा प्रायश्चित्त आता है वैसा समझ लेना। सूत्र-१४०६-१४१४
देढ़ मास प्रायश्चित्त योग्य पाप सेवन के निवारण के लिए स्थापित साधु को वो प्रायश्चित्त वहन करते वक्त
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आगम सूत्र ३४, छेदसूत्र-१, 'निशीथ'
उद्देशक/सूत्र यदि आदि, मध्य या अन्त में प्रयोजन-आशय या कारण से मासिक प्रायश्चित्त योग्य पापकर्म का सेवन करे तो दूसरे पंद्रह दिन का प्रायश्चित्त देना यानि कि दो मास प्रायश्चित्त होता है।
उसी तरह से (ऊपर कहने के अनुसार) दो मासवाले को ढ़ाई मास, ढ़ाई मासवाले को तीन मास, यावत् साड़े पाँच मासवाले को छ मास का प्रायश्चित्त परिपूर्ण करना होता है। सूत्र - १४१५-१४२०
ढाई मास के प्रायश्चित्त को योग्य पाप सेवन के निवारण के लिए स्थापित यानि कि उतने प्रायश्चित्त का वहन कर रहे साधु को यदि किसी आशय या कारण से उसी प्रायश्चित्त काल के बीच यदि दो मास प्रायश्चित्त योग्य पाप का सेवन किया जाए तो ओर २० रात का आरोपण करना यानि ३ मास और पाँच रात का प्रायश्चित्त आता है।
३ मास पाँच रात मध्य से मासिक प्रायश्चित्त योग्य गलतीवाले को १५ दिन का यानि कि ३ मास २० रात का प्रायश्चित्त ।
३मास २० रात मध्य से दो मासिक प्रायश्चित्त योग्य गलतीवाले को ओर २० रात यानि ४ मास १० रात का प्रायश्चित्त ।
४ मास १० रात मध्य से मासिक प्रायश्चित्त योग्य गलतीवाले को ओर १५ रात का यानि कि पाँच मास में ५ रात क्रम प्रायश्चित्त-पाँच मास में पाँच रात कम, मध्य से दो मासिक प्रायश्चित्त, योग्य भूलवाले को ज्यादा २० रात यानि कि साड़े पाँच मास का प्रायश्चित्त ।।
साड़े पाँच मास के परिहार-तप में स्थापित साधु को बीच में आदि, मध्य या अन्त में प्रयोजन आशय या कारण से यदि मासिक प्रायश्चित्त योग्य गलती करे तो ओर पाक्षिक प्रायश्चित्त आरोपण करने से अन्यूनाधिक ऐसे छ मास का प्रायश्चित्त आता है।
इस प्रकार इस उद्देशक २० में प्रायश्चित्त स्थान की आलोचना अनुसार प्रायश्चित्त देने का और उसके वहनकाल में स्थापित-प्रस्थापित आरोपणा का स्पष्ट कथन किया है।
उद्देशक-२०-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
(३४) निशीथ-छेदसूत्र-१ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
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________________ आगम सूत्र 34, छेदसूत्र-१, 'निशीथ' उद्देशक/सूत्र नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूश्यपाद श्री माह-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्भसार शुल्यो नमः 34 निशीथ गमसूत्र हिन्दी अनुवाद ' [अनुवादक एवं संपादक आगम दीवाकर मुनि दीपरत्नसागरजी ' [ M.Com. M.Ed. Ph.D. श्रुत महर्षि] AG 21188:- (1) (2) deepratnasagar.in भेत भेड्रेस:- jainmunideepratnasagar@gmail.com भोजा 09825967397 मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(निशीथ)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 51