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आगम सूत्र ३४, छेदसूत्र-१, 'निशीथ'
उद्देशक/सूत्र यदि आदि, मध्य या अन्त में प्रयोजन-आशय या कारण से मासिक प्रायश्चित्त योग्य पापकर्म का सेवन करे तो दूसरे पंद्रह दिन का प्रायश्चित्त देना यानि कि दो मास प्रायश्चित्त होता है।
उसी तरह से (ऊपर कहने के अनुसार) दो मासवाले को ढ़ाई मास, ढ़ाई मासवाले को तीन मास, यावत् साड़े पाँच मासवाले को छ मास का प्रायश्चित्त परिपूर्ण करना होता है। सूत्र - १४१५-१४२०
ढाई मास के प्रायश्चित्त को योग्य पाप सेवन के निवारण के लिए स्थापित यानि कि उतने प्रायश्चित्त का वहन कर रहे साधु को यदि किसी आशय या कारण से उसी प्रायश्चित्त काल के बीच यदि दो मास प्रायश्चित्त योग्य पाप का सेवन किया जाए तो ओर २० रात का आरोपण करना यानि ३ मास और पाँच रात का प्रायश्चित्त आता है।
३ मास पाँच रात मध्य से मासिक प्रायश्चित्त योग्य गलतीवाले को १५ दिन का यानि कि ३ मास २० रात का प्रायश्चित्त ।
३मास २० रात मध्य से दो मासिक प्रायश्चित्त योग्य गलतीवाले को ओर २० रात यानि ४ मास १० रात का प्रायश्चित्त ।
४ मास १० रात मध्य से मासिक प्रायश्चित्त योग्य गलतीवाले को ओर १५ रात का यानि कि पाँच मास में ५ रात क्रम प्रायश्चित्त-पाँच मास में पाँच रात कम, मध्य से दो मासिक प्रायश्चित्त, योग्य भूलवाले को ज्यादा २० रात यानि कि साड़े पाँच मास का प्रायश्चित्त ।।
साड़े पाँच मास के परिहार-तप में स्थापित साधु को बीच में आदि, मध्य या अन्त में प्रयोजन आशय या कारण से यदि मासिक प्रायश्चित्त योग्य गलती करे तो ओर पाक्षिक प्रायश्चित्त आरोपण करने से अन्यूनाधिक ऐसे छ मास का प्रायश्चित्त आता है।
इस प्रकार इस उद्देशक २० में प्रायश्चित्त स्थान की आलोचना अनुसार प्रायश्चित्त देने का और उसके वहनकाल में स्थापित-प्रस्थापित आरोपणा का स्पष्ट कथन किया है।
उद्देशक-२०-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
(३४) निशीथ-छेदसूत्र-१ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(निशीथ)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद"
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