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आगम सूत्र ३४, छेदसूत्र-१, निशीथ'
उद्देशक/सूत्र उद्देशक-२० 'निसीह'' सूत्र के इस उद्देशक में १३७० से १४२० ईस तरह से कुल-५१ सूत्र हैं । इस उद्देशक में प्रायश्चित्त की विशुद्धि के लिए क्या प्रायश्चित्त करना ? वो बताया है। सूत्र-१३७०-१३७४
___जो साधु-साध्वी एक मास का - एक महिने का निर्वर्तन योग्य परिहार स्थान यानि कि पाप या पापजनक सावध कर्मानुष्ठान का सेवन करके गुरु के पास अपना पाप प्रदर्शित करे यानि कि आलोचना करे तब माया, कपट किए बिना यानि कि निःशल्य आलोचना करे तो एक मास का ही प्रायश्चित्त आता है, लेकिन यदि माया-कपट से यानि कि शल्ययुक्त आलोचना की हो तो वो प्रायश्चित्त दो मास का आता है।
उसी तरह दो, तीन, चार, पाँच मास निर्वर्तन योग्य पापजनक सावध कर्मानुष्ठान का सेवन करने के बाद गुरु के समक्ष आलोचना करे तब कोई भी छल बिना आलोचना करे तो उतने ही मास का और शल्ययुक्त आलोचना करे तो १-१ अधिक मास का प्रायश्चित्त आता है, जैसे कि दो मास के बाद निर्वर्तन पाए ऐसे, पाप की निष्कपट आलोचना दो मास का प्रायश्चित्त, सशल्य आलोचना तीन मास का प्रायश्चित्त, लेकिन छ मास से ज्यादा प्रायश्चित्त कभी नहीं आता । सशल्य या निःशल्य आलोचना का महत्तम प्रायश्चित्त छ मास समझना। सूत्र - १३७५-१३७९
जो साधु-साध्वी कईं बार (एक नहीं, दो नहीं लेकिन तीन-तीन बार) एक मास के बाद निर्वर्तन पाए ऐसा पाप-कर्मानुष्ठान सेवन करके गुरु के समक्ष आलोचना करे तब भी ऋजु भाव से आलोचना करे तो एक मास और कपट भाव से आलोचना करे तो दो मास का प्रायश्चित्त आता है।
उसी तरह से दो, तीन, चार, पाँच मास निर्वर्तन योग्य पाप के लिए निःशल्य आलोचना से उतना ही और सशल्य आलोचना से एक-एक मास ज्यादा प्रायश्चित्त और छ मास के परिहारस्थान सेवन के लिए निःशल्य या सशल्य किसी भी आलोचना का प्रायश्चित्त छ महिने का ही आता है। सूत्र - १३८०-१३८१
जो साधु-साध्वी एक बार या कईं बार के लिए एक, दो, तीन, चार या पाँच मास से निर्वर्तन हो ऐसे पाप कर्म का सेवन करके उसी तरह के दूसरे पापकर्म (परिहारस्थान) का सेवन करे तो भी उसे उपर कहने के अनुसार निःशल्य आलोचना करे तो उतना ही प्रायश्चित्त और सशल्य आलोचना करे तो एक-एक मास ज्यादा प्रायश्चित्त परंतु छ मास से ज्यादा प्रायश्चित्त कभी नहीं आता। सूत्र - १३८२-१३८३
जो साधु-साध्वी एक बार या कईं बार चौमासी या सातिरेक चौमासी (यानि की चौमासी से कुछ ज्यादा) पंचमासी या साधिक पंचमासी इस परिहार (यानि पाप) स्थान को दूसरे इस तरह के पाप स्थान का सेवन करके या आलोचना करे तो शल्यरहित आलोचना में उतना ही प्रायश्चित्त और शल्यरहित आलोचना में एक मास ज्यादा लेकिन छ मास से ज्यादा प्रायश्चित्त नहीं आता। सूत्र-१३८४-१३८७
जो साधु-साध्वी एक बार या कईं बार चौमासी या साधिक चौमासी, पंचमासी या साधिक पंचमासी इस परिहार यानि पापस्थान में से अन्य किसी भी पाप स्थान का सेवन करके निष्कपट भाव से या कपट भाव से आलोचना करे तो क्या ? उसकी विधि बताते हैं जैसे कि परिहारस्थान पाप का प्रायश्चित्त तप कर रहे साधु की सहाय आदि के लिए पारिहारिक को अनुकूलवर्ती किसी साधु नियत किया जाए, उसे इस परिहार तपसी की वैयावच्च करने के लिए स्थापना करने के बाद भी किसी पाप-स्थान का सेवन करे और फिर कहे कि मैंने कुछ पाप किया है तब तमाम पहले सेवन किया गया प्रायश्चित्त फिर से सेवन करना चाहिए।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(निशीथ)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद”
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