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आगम सूत्र ३४, छेदसूत्र-१, 'निशीथ'
उद्देशक/सूत्र राजधानी या संनिवेश में, लोहा, ताम्र, जसत, सीसुं, चाँदी, सोना, रत्न की खान में, प्रवेश करके अशन-पानखादिम-स्वादिम ग्रहण करे-करवाए या अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त ।
नए गाँव में साधु-साध्वी प्रवेश करे तब लोग मंगलभूत माने, भाव उल्लास बढ़े तो निमित्त आदि दोषयुक्त आहार तैयार करे, अमंगल माने वहाँ निवास करे तो अंतराय हो । और फिर नई बस्ती में सचित्त पृथ्वी, अपकाय, वनस्पतिकाय आदि विराधना की संभावना रहे, खान आदि सचित्त हो इसलिए संयम की और गिरने से आत्मविराधना मुमकीन हो। सूत्र-३५१-३७४
जो साधु-साध्वी मुख, दाँत, होठ, नाक, बगल, हाथ, नाखून, पान, पुष्प, फल, बीज, हरीत वनस्पति से वीणा बनाए यानि कि वैसा करे, मुख आदि से वीणा जैसे शब्द करे, करवाए या करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र-३७५-३७७
जो साधु-साध्वी औदेशिक (साधु के निमित्त से बनी) सप्राभृतीक (साधु के लिए समय अनुसार परिवर्तन करके बनाई हुई), सपरिकर्म (लिंपण, गुंपण, रंगन आदि परिकर्म करके बनाई हुई) शय्या अर्थात् वसति या स्थानक में प्रवेश करे, करवाए या करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - ३७८
___जो साधु-साध्वी ‘संभोग प्रत्ययिक क्रिया नहीं है। यानि एक मांडली में साथ बैठकर आहार आदि क्रिया साथ में होती हो वो सांभोगिक क्रिया कहलाती है, "जो सांभोगिक हो उसके साथ मांडली आदि व्यवहार न करना और असांभोगिक के साथ व्यवहार करना उसमें कोई दोष नहीं' ऐसा बोले, बुलवाए या बोलनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - ३७९-३८१
जो साधु-साध्वी अखंड-दृढ़, लम्बे अरसे तक चले ऐसे टिकाऊ और इस्तमाल में आ सके ऐसे तुंबड़े, लकड़े के या मिट्टी के पात्रा को तोड़कर या टुकड़े कर दे, परठवे, वस्त्र, कंबल या पाद प्रोंछनक (रजोहरण) के टुकड़े करके परठवे, दांडा, दांडी, वांस की शलाखा आदि तोड़कर टुकड़े करके परठवे, परठवाए या उसकी अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - ३८२-३९२
जो साधु-साध्वी रजोहरण ३२ अंगुल मात्रा से ज्यादा धारण करे, उसकी दशी छोटी बनाए, बल्ले की तरह गोल बाँधे, अविधि से बाँधे, ओधारिया, निशेथीया रूप दो वस्त्र को एक ही डोर से बाँधे, तीन से ज्यादा बंध को बाँधे, अनिसृष्ट अर्थात् अनेक मालिक का रजोहरण होने के बाद भी उसमें से किसी एक मालिक देवें तो भी उसे धारण करे, अपने से (साढ़े तीन हाथ से भी) दूर रखे, रजोहरण पर बैठे, उस पर सिर रखके सोए, उस पे सो कर बगल बदले । इसमें से कोई भी दोष करे, करवाए या करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त ।
इस प्रकार इस उद्देशक-५ में बताए हुए दोष में से किसी दोष का खुद सेवन करे, दूसरों के पास करवाए या करनेवाले की अनुमोदना करे तो उसे - मासिक परिहार स्थान उद्घातिक नामका प्रायश्चित्त आता है जिसे 'लघुमासिक प्रायश्चित्त' भी कहते हैं ।
उद्देशक-५-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(निशीथ)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद"
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