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आगम सूत्र ३४, छेदसूत्र-१, 'निशीथ'
उद्देशक/सूत्र करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - ७३४
जो साधु-साध्वी, जहाँ भोजन में पहले माँस-मच्छी दी जाती हो फिर दूसरा भोजन दिया जाता हो, जहाँ माँस या मच्छी पकाए जाते हो वो स्थान, भोजनगृह में से जो लाया जाता हो या दूसरी किसी जगह ले जाते हो, विवाह आदि के लिए जो भोजन तैयार होता हो, मृत भोजन, या ऐसे तरीके का अन्य भोजन एक जगह से दूसरी जगह ले जा रहे हो, ऐसे भोजन की उम्मीद से या तृषा से यानि भोजन की अभिलाषा से उस रात को अन्यत्र निवास करे यानि कि शय्यातर की बजाय दूसरी जगह रात व्यतीत करे, करवाए या अनुमोदन करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - ७३५
जो साधु-साध्वी नैवेध, पिंड़ यानि कि देव, व्यंतर, यक्ष आदि के लिए रखा गया खाए, खिलाए, अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र-७३६-७३७
जो साधु-साध्वी स्वच्छंद-आचारी की प्रशंसा करे, वंदन नमस्कार करे, करवाए, अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - ७३८-७३९
जो साधु-साध्वी पहचानवाले (स्वजन आदि) और अनजान (स्वजन के सिवा) ऐसे अनुचित-दीक्षा की योग्यता न हो ऐसे उपासक (श्रावक) या अनुपासक (श्रावक से अन्य) को प्रव्रज्या-दीक्षा दे, उपस्थापना (वर्तमान काल में बड़ी दीक्षा) दे, दिलाए, देनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - ७४०
जो साधु-साध्वी अनुचित यानि की असमर्थ के पास वैयावच्च-सेवा ले, दिलाए, लेनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - ७४१-७४४
जो साधु-अचेलक या सचेलक हो और अचेलक या सचेलक साथ निवास करे यानि स्थविर कल्पी अन्य सामाचारीवाले स्थविरकल्पी या जिनकल्पी साथ रहे और जो जिनकल्पी हो और स्थविरकल्पी या जिनकल्पी साथ रहे (अथवा अचेलक या अचेलक साधु या अचेलक साध्वी साथ निवास करे) करवाए-करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - ७४५
जो साधु-साध्वी रात को स्थापित, पिपर, पिपर चूर्ण, सुंठ, तूंठचूर्ण, मिट्टी, नमक, सींधालु आदि चीज का आहार करे, करवाए, अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - ७४६
जो साधु-साध्वी पर्वत, उषरभूमि, नदी, गिरि आदि के शिखर या पेड़ की टोच पर गिरनेवाला पानी, आग में सीधे या कूदनेवाले, विषभक्षण, शस्त्रपात, फाँसी, विषयवश दुःख के तद्भव-उसी गति को पाने के मतलब से अन्तःशल्य, पेड़ की डाली से लटककर (गीधड़ आदि से भक्षण ऐसा) गृद्धस्पृष्ट मरण पानेवाले या ऐसे तरह के अन्य किसी भी बालमरण प्राप्त करनेवाले की प्रशंसा करे, करवाए या अनुमोदन करे ।
इस प्रकार उद्देशक-११ में बताए हुए कोई भी कृत्य खुद करे, दूसरों से करवाए या ऐसा करनेवाले की अनुमोदना करे तो चातुर्मासिक परिहार स्थान अनुद्घातिक प्रायश्चित्त यानि ''गुरु चौमासी'' प्रायश्चित्त आता है।
उद्देशक-११-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(निशीथ)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद”
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