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आगम सूत्र ३४, छेदसूत्र-१, निशीथ'
उद्देशक/सूत्र उद्देशक-१० "निसीह'' सूत्र के इस उद्देशक में ६०८ से ६५४ इस तरह से ४७ सूत्र हैं । उसमें से किसी भी दोष का त्रिविधे सेवन करनेवाले को चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अनुग्घातियं' प्रायश्चित्त आता है। सूत्र-६०८-६११
जो साधु-साध्वी आचार्य आदि रत्नाधिक को अति कठिन, रुखा, कर्कश, दोनों तरह के वचन बोले, बुलवाए, बोलनेवाले की अनुमोदना करे तो, अन्य किसी तरह से आशातना करे, करवाए, अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र-६१२-६१३
जो साधु-साध्वी अनन्तकाय युक्त आहार करे, आधा कर्म (साधु के लिए किया गया आहार) खाए, खिलाए, खानेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - ६१४-६१५
जो साधु-साध्वी वर्तमान या भावि के सम्बन्धी निमित्त कहे, कहलाए या कहनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - ६१६-६१७
जो साधु-साध्वी (दूसरों के) शिष्य (शिष्या) का अपहरण करे, उसकी बुद्धि में व्यामोह पैदा करे यानि भ्रमित करे, करवाए या अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र- ६१८-६१९
जो साधु-आचार्य या उपाध्याय (साध्वी आचार्य, उपाध्याय या प्रवर्तिनी का अपहरण करे (अन्य समुदाय या गच्छ में ले जाए), उनकी बुद्धि में व्यामोह-भ्रमणा पैदा करे, करवाए या अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - ६२०
जो साधु-साध्वी बहिर्वासि (अन्य समुदाय या गच्छ में से आए हुए प्राघुर्णक) आए तब उनके आगमन की कारण जाने बिना तीन रात से ज्यादा अपनी वसति (उपाश्रय) में निवास दे, दिलाए या देनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - ६२१
जो साधु-साध्वी अन्य अनुपशान्त कषायी या उसके बारे में प्रायश्चित्त न करनेवाले को उसके क्लेश शान्त करने के लिए या करना या न करने के बारे में कुछ पूछकर या बिना पूछे जैसे कि उद्घातिक को अनुद्घातिक कहे, प्रायश्चित्त देवें, अनुद्घातिक को उद्घातिक कहे, प्रायश्चित्त देवें तो प्रायश्चित्त । सूत्र - ६२२-६२५
जो साधु-साध्वी प्रायश्चित्त की विपरीत प्ररूपणा करे या विपरीत प्रायश्चित्त दान करे जैसे कि उद्घातिक को अनुद्घातिक कहे, देवे, अनुद्घातिक को उद्घातिक कहे, देवे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - ६२६-६३७
जो साधु-साध्वी, कोई साधु-साध्वी उद्घातिक, अनुद्घातिक या उभय प्रकार से हैं | यानि कि वो उद्घातिक या अनुद्घातिक प्रायश्चित्त वहन कर रहे हैं वो सुनने, जानने के बाद भी, उसका संकल्प और आशय सुनने-जानने के बाद भी उसके साथ आहार करे, करवाए, अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र-६३८-६४१
जो साधु-साध्वी सूर्य नीकलने के बाद और अस्त होने के पहले आहार-विहार आदि क्रिया करने के
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(निशीथ)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद”
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