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आगम सूत्र ३४, छेदसूत्र-१, निशीथ'
उद्देशक/सूत्र सूत्र-८०
जो साधु-साध्वी अखंड़ ऐसे चमड़े को धारण करे अर्थात् पास रखे या उपभोग करे (चमड़े के बने उपानह, उपकरण आदि रखने की कल्पना न करे), करवाए या करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र-८१-८२
जो साधु-साध्वी, प्रमाण से ज्यादा और अखंड वस्त्र धारण करे - उपभोग करे, उपभोग करवाए या उसकी अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । (ज्यादा वस्त्र हो या पूरा कपड़ा या अखंड लम्बा वस्त्र रखने से पडिलेहण आदि न हो सके । जीव विराधना मुमकीन बने, इसलिए शास्त्रीय नाप अनुसार वस्त्र रखे । लेकिन अखंड़ वस्त्र न रखे ।) सूत्र- ८३
जो साधु-साध्वी तुंबड़ा का, लकड़े का या मिट्टी का पात्र बनाए, उसका किसी हिस्सा या मुख बनाए, उसके विषम हिस्से को सीधा करे, विशेष में उसके किसी हिस्से का समारकाम करे अर्थात् इसमें से किसी परिकर्म खुद करे, दूसरों से करवाए या वैसा करनेवाले साधु-साध्वी की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । (पहले तैयार हुए और कल्पे ऐसे पात्र निर्दोष भिक्षा मिले तो ही लेने । इस तरह के समारकाम से छकाय विराधना आदि दोष मुमकीन है। सूत्र-८४ ___ जो साधु-साध्वी दंड, दांडी, पाँव में लगे कीचड़ को ऊखेड़ने की शूली, वांस की शूली, खुद बनाए, उसके किसी विशेष आकार की रचना करे, आड़े-टेढ़े को सीधा करे । या सामान्य या विशेष से उसका किसी समारकाम करे - करवाए या करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र-८५-८९
जो साधु-साध्वी भाई-बहन आदि स्वजन से, स्वजन के सिवा पराये, परजन से, वसति, श्रावकसंघ आदि की मुखिया व्यक्ति से, शरीर आदि से बलवान से, वाचाल, दान का फल आदि दिखाकर कुछ पा सके वैसी व्यक्ति से गवेषित मतलब प्राप्त किया पात्र ग्रहण करे, रखे, धारण करे, अन्य से करवाए या करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । (स्वयं गवेषणा करके निर्दोष और कल्पे ऐसे पात्र धारण करना ।) सूत्र- ९०-९४
जो साधु-साध्वी हमेशा अग्रपिंड़ मतलब भोजन से पहले अलग किया गया या विशेष ऐसा, एक ही घर से पूर्ण मतलब सबकुछ, बरतन, थाली आदि में से आधा या तीसरे-चौथे हिस्से का, दान के लिए नीकाले गए हिस्से का, छठे हिस्से का पिंड़ मतलब आहार या भोजन ले यानि कि उपभोग करे, करवाए या करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त। (ऐसा करने में निमंत्रणा, दूसरों को आहार में अंतराय, राग, आज्ञाभंग आदि दोष की संभावना है सूत्र-९५
जो साधु-साध्वी (बिना कारण मासकल्प आदि शास्त्रीय मर्यादा भंग करके) एक जगह हमेशा निवास करे, करवाए या करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - ९६
जो साधु-साध्वी (वस्त्र-पात्र-आहार आदि) दान ग्रहण करने से पहले और ग्रहण करने के बाद (वस्तु या दाता की) प्रशंसा करे, परिचय करे, करवाए या अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र- ९७
जो साधु-साध्वी फिर वो 'समाण' – गृद्धि रहित और मर्यादा से स्थिर निवास रहा हो, 'वसमाण' नवकल्प विहार के पालन करने में रहे हो, वो एक गाँव से दसरे गाँव विहार करनेवाले बचपन से पूर्व पहचानवाले ऐसे या जवानी के परिचित बने ऐसे रागवाले कुल-घर में भिक्षा, चर्या से पहले जाकर अपने आगमन का निवेदन करके,
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(निशीथ)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद”
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