Book Title: Yugadi Vandana
Author(s): Dharnendrasagar
Publisher: Buddhisagarsuri Jain Gyanmandir
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स्तुवयः
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दारिद्रयं अद्रिसमविग्रहतापनीय,
राशिप्रदानविधिना महताऽपनीय | यैर्दुःखशत्रुः इह जन्मवताम् अघानि,
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विघ्नन्तु ते जिनवरा भवताम् अघानि ॥२॥
यद् दोषदारुदहनेषु रतः कृशानुः,
स्यादापदुर्व्यपि हि यत् स्मरतः कृशा नुः । यद् वृष्टिरेव परिदाहिषु मेघजाऽलं,
जैनं मतं हरतु तद् गुरु मेऽघजालम् ॥३॥
यां द्वा भवन्ति सुरमन्त्रिसमा नमन्तः,
संत्यज्य मोहं अधियोऽप्यसमानं अन्तः । बागदेवता हतकुवादिकुला भवर्णात्,
सा पातु कुन्दविकसन्मुकुला भवर्णा ॥४॥
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४
[ वसन्ततिलकावृत्तम् ]
सर्वाङ्गिवारिज दिवाकर ! कर्मनाशिन् !
श्रीनाभिनन्दन ! सुरासुरवन्दितां ! सर्वाऽसुमत्सुखकर ! प्रथमानकीर्ते !,
ज्ञानवारिधिगतं परिपाहि विश्वम् ॥ १॥
देवोज्झिता सुमततिर्गगनात् पतन्ती,
यत्पादयुग्म अमलं समलचकार । ते पान्तु शान्तमनसो विमला जिनेन्द्राः,
श्रीरङ्गविमलप्रणीता
सिद्धिस्थिता भवभयाद् भवतो विभान्तु ॥२॥
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