Book Title: Yugadi Vandana
Author(s): Dharnendrasagar
Publisher: Buddhisagarsuri Jain Gyanmandir

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Page 84
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ७६ www.kobatirth.org विश्व-त्रयाऽतिशयिविस्मयकारिरूपं, देवं भवन्तमवलोकयतोऽपि न स्यात् । यस्याssस्य मुल्लसित लोचन - युग्ममीश !, काष्ठं पशुः किमथवा दृषदेष साक्षात् ||१५|| यन्न प्रसीदसि विभोद्भुतभक्तिभाजि, निन्दापरे च नरि नैव करोषि रोषम् । त्वां लक्षणेन खलु विश्व - विलक्षणेनाऽनेनैव दैवतधिया मुनयः देवाऽन्य दैवतगणादगुणान् नृणां या, सामान्य सत्त्वसदृशत्वभृतोऽमृतेच्छा । साऽत्यन्तनिर्धनजनादति भूरि भूति विश्व-त्रयप्रकटदैवतचेष्टितं ये, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राप्तावतीव महती मनसः समीहा ॥ १७॥ देवं मदा दववदन्ति भवन्तमेतम् । ते सूर बिम्वमभि-रेणुभरं किरन्ति, दन्तै रदन्ति युगादिवन्दना प्रपन्नाः ॥ १६॥ गिरिसारभर च दर्पात् ||१८|| For Private And Personal Use Only त्वं देव ! मोहित जगत्त्रय मानसोऽपि, मिथ्यादृशो ददसि नो मनसः प्रमोदम् । आप्यायिताऽखिल महीतललोचनोऽपि, किं कोकलोक मुख मुज्ज्वलयेत् ? कलावान् ॥१९॥ योऽनेकशोऽपि ददृशे न भवान् दृशेश !, स्यादस्य देव ! पर तीर्थकरे ऽनुरागः । आजन्मतोऽप्यनवलोकित रत्नजाते तो रतिर्भवति हि प्रतिकाचखण्डम् ॥२०॥

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