Book Title: Yugadi Vandana
Author(s): Dharnendrasagar
Publisher: Buddhisagarsuri Jain Gyanmandir
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४०
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[ वसन्ततिलकावृत्तम् ]
इत्थं स्तुतः प्रथमतीर्थपतिः प्रमोदाच्छ्रीमद्यशोविजयवाचकपुङ्गवेन ।
नागरमानसहंसं रे ।
भाऽऽनन्दितसुरवरपुन्नागं, हंसगतिं पञ्चमगतिवास, वासवविहिताशंसं रे, आदि. ||४|| शंसन्तं पदवचनमनत्रमं, नवमङ्गलदातारं रे । तारस्वरमघघनपबमानं, मानसुभटजेतारं रे, आदि ||५||
श्री पुण्डरीकगिरिराजविराजमानो,
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मानोन्मुखानि त्रितनोतु सतां सुखानि ॥ ६ ॥
युगादिवन्दना
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३
[ स्वागतावृत्तम् ]
श्रेयसां पद ! जिनेन्द्र ! जय श्रीनाभिनन्दन ! जगत्त्रयबन्धो ! । भव्यलोचन सुधारसवर्षिन् ! हर्षतः स्तुतनरेशसुरेशैः ॥१॥ संस्तुतिस्तव विभो ! नृपताऽऽद्याः, सम्पदो वितनुते कियदेतत् ? । तां त्रिलोकत्रिभुतामपि दत्ते, याऽनुभूतिविषयो हि तवैव ॥२॥ एकशोऽपि जिन ! यत्र पुष्करावर्त्तवृष्टय इवाऽभवंस्तव । सुप्रसादमधुरादृशो भवेत् तत्र शस्यकमलोद्भवश्विरम् ॥३॥ संस्थिते त्वयि हृदीश ! नराणां, दूरमेव विपदः खलु यान्ति । किं हि तिष्ठति सुते विनताया, मन्दिरे फणभृतो विलसन्ति ||४|| त्वं पितोऽथ जननीगुरुरेकरतं, प्रभु र्मम तथा जगतोऽपि । त्वां ततः शरण- मेक-मुपेतः, किञ्चिदस्मि भगवन्नभिवाञ्छन् ||५| ज्ञानदर्शनचरित्रसमृद्धिः, प्राग् न मेऽस्ति विशदा सति चैवम् I यो भवेत् तब मतः सदुपाय, स्तेन मां शिवरमां नय नाथ ! ||६॥

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