Book Title: Yugadi Vandana
Author(s): Dharnendrasagar
Publisher: Buddhisagarsuri Jain Gyanmandir
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विवस्वते ।
अखण्डित ब्रह्मचर्य - महातेजो भगवन्मन्मथध्वान्त-मथनाय नमोऽस्तु ते ॥५॥
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सर्वमेकपदे नाथ ! पृथिव्यादिपरिग्रहम् । पल्लवत्त्यक्तवते, तुभ्यं मुक्ताऽऽत्मने नमः ||६||
तुभ्यं नमः पञ्चमहाव्रत धारककुद्मते । संसार - सिन्धु-तरण - कर्मढाय महात्मने ||७||
महाव्रतानां पञ्चानां, भिव पञ्चाऽपि सोदशः । बिभ्रते समितिस्तुभ्यमादिनाथ ! नमो नमः ||८||
आत्मारामैकमनसे, वचः संवृत्ति शालिने | सर्व- चेष्टा-निवृत्ताय, नमस्तुभ्यं त्रिगुप्तये ॥९॥
१५
अर्बुदगिरिवर भूषण मदूषणं, प्रथम तीर्थङ्करनाथम् । स्तुतिपथ - मानेताऽस्मि, प्रसृमर महिमान - मतिमानम् ||१||
कल्पद्रु इव ते पादौ, सेव्यावुपान्तविश्रान्त-मां
मनोऽभीष्टार्थदायकौ । केषां नैव धीमताम् ॥२॥
आसादि यत्प्रसादाद्, धर्मः शिबशकृद् भवदुपज्ञम् । पितरौ तावभिवन्दे, प्रसृतमां दुष्प्रतीकारौ ॥३॥
अथाऽसाधारण
सौभाग्य-भवद्रथरूप - निरूपणे ।
भुया व्यापृतमाभ्यां स्व - चक्षुभ्यां सफलोऽस्म्यहम् ||४||
एतद्द्विरिसत्काभ्यां,
त्वद्योगात्सर्वतीर्थभूताभ्याम् |
मङ्गल भवनतमाभ्या मधित्य कोपत्य काभ्यां स्तात् ||५||
चलनप्रवृत्तमाभ्यां, वद्याकरणक्षणे । एताभ्यामर्बुदोत्तंस !, पादाभ्यां पुण्यम् आप्नुयाम् ||६||
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