Book Title: Yugadi Vandana
Author(s): Dharnendrasagar
Publisher: Buddhisagarsuri Jain Gyanmandir

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Page 78
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir युगादिबन्दका भयभित् ! तव प्रसादा तवप्रसादाद्वशेऽस्य शिव-नगरी । शमरसतोऽतनुललना तनुललना दजनि यो बिमुखः ॥११॥ परिचित संवरदारा वरदाराः श्रीपतिरपि प्रकृति लोला । तच्चेतो मे धावति मेधावति सुरमणौ भवति ।।१२।। श्री शत्रुञ्जय शेखर-जयशेखर सूरिणा सदेष्येत् । तव निर्मल रुचिरायतिरुचिरा यतिवल्लभासेवा ॥१३॥ २३ [ अनुष्टुपवृत्तम् ] जयाऽखिल-जगन्नाथ!, जय विश्वाऽभय-प्रद ! । जय-प्रथम-तीर्थंश !, जय संसार-तारण ! ॥१॥ अद्याऽवसर्पिणी लोक-पद्माकरदिवाकर ! त्वयि दृष्टे प्रभातं मे, प्रनष्ट तमसोऽभवत् ।।२।। भव्यजीव मनोवारि, निर्मलीकार कर्मणि । बाणी जयति ते नाथ !, कतकक्षोद-सोदरा ॥३॥ तेषां न दूरे लोकानं, कारुण्य-क्षीर-सागर ! । समारोहति ये नाथ !, त्वच्छासनमहारथम् ॥४॥ लोकाऽग्रतोऽपि संसार, मग्रिमं देव ! मन्महे । निष्कारण जगबन्धु, यत्र साक्षात्वमीक्ष्यसे ।।५।। त्वदर्शनमहानन्द-स्यन्द निष्यन्दलोचनैः । स्वामिन् मोक्ष सुखाऽऽस्वादः, संसारेऽप्यनुभूयते ॥६॥ रागद्वेष-कषायायै रुद्धं जगदरातिभिः ।। इदमुद्वेष्टयते नाथ !, त्वयैवाऽभय सत्रिणा :१७॥ स्वयं ज्ञापयसे तत्त्वं, मार्ग दर्शयसि स्वयम् । स्वयं च त्रायसे विश्वं, त्वत्तो नाथामि नाथ किम् ॥८॥ नानावस्कन्दसङ्गाम-हत-ग्राम-भुवो मिथः । मित्रीभूयेह तिष्ठन्ति, राजानस्तव पर्षदि ॥९॥ For Private And Personal Use Only

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