Book Title: Yugadi Vandana
Author(s): Dharnendrasagar
Publisher: Buddhisagarsuri Jain Gyanmandir

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Page 59
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra न समस्त भुवनेशेदं राज्ञा पुरीव www.kobatirth.org त्वया । भुवनं भूषितं प्रामेभ्यो, भुवनेभ्यः प्रकृष्यते ॥६॥ पिता माता गुरुः स्वामी, यत्सर्वेऽपि न कुर्वते । एकोऽप्यनेकी भूयेष त्वं हितं विदधासि तत् ॥७॥ निशा निशाकरेणेव, हंसेनेव महासरः । वदनं तिलकेनेब, शोभते भुवनं त्वया ॥ ८॥ [ अनुष्टुपवृत्तम् ] असद्भूतान् गुणान् जल्पन्, जनः स्तौतीतरं जनम् । गुणान् सतोऽपि ते वक्तुम् अक्षमोऽहं स्तुवे कथम् ? ॥१॥ तथाऽपि हि जगन्नाथ !, न ददाति दरिद्रः किं ?, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir करिष्यामि तव स्तुतिम् । रन्यजन्म कृतान्यपि । श्रीमतामपिप्युपायनम् ||२|| वाचो युष्मत्पादैर्दष्टमात्रै, गलन्त्येनांसि शेफाली, दुश्चिकित्स्यमहा स्वामिन् जयन्ति ते महीम् || ६ || चक्रवर्तिनि रके वा, समा स्त्वद्दष्टय नाथ !, कर कर्म हिमग्रन्थी-विद्रावण स्वामिन्नस्मादृशां पुण्यै, रिमां शब्दाऽनुशासनव्यापि, संज्ञा सूत्रोपमा प्रभो ! । जन्मव्ययधौव्यमयी, जयसि त्रिपदी तव ||७|| यस्त्वां स्तीतीह भगवंस्तस्याऽप्येषोऽन्तिमो भवः । शुश्रूषाते ध्यायति वा, यः पुनस्तस्य का कथा ? ॥८॥ , मोह- सन्निपातवतामपि । ऽमृतौषधिरसोपमाः || ४ || पुष्पाणीन्दुकरैरिव ॥ ३॥ कारणं प्रीति - सम्पदाम् । वार्षिक्य इव दिवाकरः विहरसे For Private And Personal Use Only वृष्टय : ॥५॥

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