Book Title: Vruttamauktik Author(s): Vinaysagar Publisher: Rajasthan Prachyavidya Pratishtan View full book textPage 6
________________ सञ्चालकीय वक्तव्य राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला के ७९वें ग्रन्थांक के स्वरूप वृत्त-मौक्तिक नाम का यह एक मुक्तांकित ग्रन्थरत्न गुम्फित होकर ग्रन्थमाला के प्रिय पाठकवर्ग के करकमलों में उपस्थित हो रहा है। जैसा कि इसके नाम से हो सूचित हो रहा है कि यह ग्रन्थ वृत्त अर्थात् पद्यविषयक शास्त्रीय वर्णन का निरूपण करने वाला एक छन्दःशास्त्र है। भारतीय वाङ्मय में इस शास्त्र के अनेक ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं । प्राचीनकाल से लेकर आधुनिक काल तक, इस विषय का विवेचन करने वाले सैकडों ही छोटे-बड़े ग्रन्थ भारत की भिन्न-भिन्न भाषाओं में ग्रथित हुए हैं। प्राचीनकाल में प्रायः सब ग्रन्थ संस्कृत और प्राकृत भाषा में रचे गये हैं। बाद में, जब देश्य-भाषाओं का विकास हुआ तो उनमें भी तत्तद् भाषाओं के ज्ञाताओं ने इस शास्त्र के निरूपण के वैसे अनेक ग्रन्थ बनाये। राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला का प्रधान उद्देश्य वैसे प्राचीन शास्त्रीय एवं साहित्यिक ग्रन्थों को प्रकाश में लाने का रहा है जो अप्रसिद्ध तथा अज्ञात स्वरूप रहे हैं। इस उद्देश्य की पूतिरूप में, हमने इससे पूर्व छन्दःशास्त्र से सम्बन्ध रखने वाले पांच ग्रन्थ इस ग्रन्थमाला में प्रकाशित किये हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ का छठा स्थान है। ___ इनमें पहला ग्रन्थ महाकवि स्वयंभू रचित है जो 'स्वयंभू छंद' के नाम से अंकित है। स्वयंभू कवि ६-१०वीं शताब्दी में हुआ है। वह अपभ्रश भाषा का महाकवि था। उसका बनाया हुआ अपभ्रंश भाषा का एक महाकाव्य 'पउमचरिउ' है, जिसको हमने अपनी 'सिंघो जैन ग्रन्थमाला' में प्रकाशित किया है। स्वयंभू कवि ने अपने छन्दःशास्त्र में, संस्कृत और प्राकृतभाषा के उन बहुप्रचलित और सुप्रतिष्ठित छन्दों का तो यथायोग्यै वर्णन किया हो है परन्तु तदुपरान्त विशेष रूप से अपभ्रंशPage Navigation
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