Book Title: Veerjinindachariu Author(s): Pushpadant, Hiralal Jain Publisher: Bharatiya Gyanpith View full book textPage 8
________________ हार प्रस्तावना कड्नका यही अर्थ सिद्ध होता है कि उनके विपयोंकी परम्परा महावीरसे भी पूर्वकालीन है। हां, उनमें महावीर द्वारा अपने सिद्धान्तानुसार संशोधन किया गया होगा। दृष्टिवादके चौथे भेद अनुयोगका भी जैन साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान है । इसे प्रथमानुयोग भी कहा जाता है और समस्त पौराणिक वृतान्तों, धार्मिक चरित्रों एवं आख्यानात्मक कथाओं आदिको प्रयमानुयोगके अन्तर्गत ही माना जाता है। षट्स्वण्डागम सूत्र १,१,२ की अबला टोकाके अनुसार प्रथगानुयोगके अन्तर्गत पुराण के बारह भेद थे जिनमें क्रमशः अरहत्तों, चक्रवलियों, विशाधणे, वासुदेवों, धारणों, प्रज्ञाश्रमणों तथा कुरु, हरि, इश्वाकु, काश्यपों, वादियों एवं नाथ वंशोंका वर्णन था। दृष्टिवादके पांचवें भेद चूलिकाके पांच प्रभेद गिनाये गये है--जलगत, स्थलगत, मायागत, रूपगत और आकाशगत ! इन नामों परसे प्रतीत होता है कि निर्म जल-पल आदि विपर्योका भौगोलिक व तात्विक विचन किया गया होगा और सम्भवतः उनपर अधिकार प्राप्त करने की मान्त्रिक-तान्त्रिक ऋद्धि-सिद्धि साधनात्मक क्रियाओं का विधान रहा हो । दिगम्बर परम्परानुनार उक्त समस्त अंगसाहित्य क्रमशः अपने मूल रूपमें विलुप्त हो गया 1 महावीर-निर्माण के पश्चात् १६२ वर्षों में हुए आठ मुनियोंको ही इन अंगोंका सम्पूर्ण ज्ञान था। इनमें अन्तिम श्रसकेपली भद्भयाहू कहे गये हैं। वत्पश्चात् क्रमशः सभी अंगों और पूर्वोके ज्ञानमें उत्तरोतर हारा होता गया और निर्वाणसे सातवीं शती में ऐसी अवस्था उत्पन्न हो गयी कि केवल कुछ महामुनियोंको ही इन अंगों व पूर्वोका आंशिक ज्ञानमात्र शेष रहा जिसके आधारमे समस्त जैन शास्त्रों व पुराणों की स्वतन्त्र रूपसे नयी शैली में विभिन्न देश-कालानुसार प्रचलित प्राकृतादि भाषाओंमें रचना की गयी। ___श्वेताम्बर परम्पराके अनुसार वोर-निर्माणकी दसवीं शती में मनियोंकी एक महासभा गुजरात प्रान्तीय वल्लभी ( आधुनिक माला ) नामक नगरमें की गयी और वहाँ क्षमाश्रमण देवद्धि गणि की अध्यक्षतामें उक्त अंगोंमें से ग्यारह अंगोंका संकलन किया गया जो अब भी उपलब्ध है। यद्यगि ये संकलन पूर्णतः अपने मौलिक रूपको सुरक्षित रखते हुए नहीं पाये जाते । विषयको दृष्टिसे इनमें हीनाधिकता स्पष्ट दिखाई देती है। भाषा भी उनकी बह अर्द्धमागधी गहीं है जो महावीर भगवान्के समय में प्रचलित थी। उसमें उनके कालसे एक सहस्र वर्ष परचात्' उत्पन्न हुई भाषात्मक विशेषताओंका समावेश भी पाया जाता है। तथापि सामान्यतया ये प्राचीनतम विषयों व प्रतिपादन-शैलोका बोध कराने के लिए पर्याप्तPage Navigation
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