Book Title: Veerjinindachariu Author(s): Pushpadant, Hiralal Jain Publisher: Bharatiya Gyanpith View full book textPage 7
________________ ४८ धीरजिणिवरित प्राकृत नाम का संस्कृत रूपान्तर न्यायधर्म-कथा रहा हो और उसमें पायों अर्थात् ज्ञान व नीतिसम्बन्धी संक्षिप्त कहावतोंको दृष्टान्त स्वरूप कथाओं द्वारा समझानेका प्रयल किया गया हो तो आश्चर्य नहीं । ७. उपासकाध्ययन-इसमें उपासकों अर्थात् धर्मानुयायी गृहस्थों व श्रावकों के व्रतोंको उनके पालनेवाले पुरुषों के चारित्रकी कथाओं द्वारा समझाने का प्रयत्न किया गया ए| HEER यह अंग मुनि आचारको प्रकट करनेवाले प्रथम अन्य आचारांग का परिपूरक कहा जा सकता है । ८. अन्तकृतदश-जैन परम्परामें उन मुनियोंको अन्तकृत कहा गया है जिन्होंने उग्र तपस्या करके घोर उपसर्ग सहते हुए अपने जन्म-मरण रूपी संसारका अन्त करके निर्वाण प्राप्त किया । इरा प्रकारके दश मुनियोंका इस अंगमें वर्णन किया गया प्रतीत होता है। ५. अनुत्तरोपपातिकदश--अनुत्तर उन उच्च स्वगोको कहा जाता है जिनमें बहुत पुण्यशाली जीव उत्पन्न होते है और वहां से चयुत होकर केवल एक बार पुनः मनुष्य योनिमें पाले और अपनी धार्मिक वृत्ति द्वारा उसी भवसे मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं । इरा अंगमें ऐसे ही दश महामुनियों व अनुत्तर-स्वर्गवासियोंके चारित्रका विवरण उपस्थित किया गया था। 10. प्रश्नध्याकरण-इसमें उसके नामानुसार मत-मतान्तरों व सिद्धान्तों सम्बन्धी प्रश्नोत्तरोंका समावेश था और इस प्रकार यह अंग व्यायाप्रज्ञसिका परिपूरक रहा प्रतीत होता है। . विपाकसूत्र--विपाकका अर्थ है कर्मफल | कर्मसिद्धान्तके अनुसार सत्कोका फल सुख-भोग और दुष्कृत्योंका फल दुःस्त्र होता है। इसी बातको इस अंगमें दृष्टान्तों द्वारा समक्षाया गया। ११. दृष्टिवाद-इसके पांव भेद थे--परिकर्म, मूत्र, पूर्वगत, अनुयोग और चलिका । परिकर्ममें गणितशास्त्रका तथा सूत्र में मतों और सिद्धान्तोंका समावेश था । पूर्वगत्त के बौदह प्रभेद गिनाये गये हैं जिनके नाम हैं : १. उत्पादपूर्व, २. अग्रायणीय, ३. वीर्यानुवाद, ४. अस्तिनास्ति प्रवाद, ५, ज्ञानप्रबाद, ६. सत्यप्रसाद, ७. आत्म-प्रवाद, ८. कर्म-प्रवाद, ९. प्रत्याख्यान, १०. विद्यानुवाद, ११. कल्याणवाद, १२. प्राणवाद, १३. क्रियाविशाल, और १४. लोकबिन्दुसार। इनमें अपनेअपने नामानुसार सिद्धान्तों व तत्त्वोंका विवेचन किया गया था। इनमें आठवें पूर्व कर्मप्रवादका विशेष महत्त्व है क्योंकि वही जैनधर्म के प्राणभूत कर्म-सिद्धान्तका मूल स्रोत रहा पाया जाता है और उत्तरकालीन कर्म-सम्बन्धी समस्त रचनाएँ उसके ही आधार की गयी प्रतीत होती हैं। इन समस्त रचनाओंको पूर्वगत - - - - - - - - - - - - - - - - -Page Navigation
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