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उपदेश-प्रासाद
भाग १
१५२
को नमस्कार कर जैन जिन के बिना अन्य को नमस्कार नहीं करतें हैं इस प्रकार ब्राह्मणों के द्वारा विपरीत ग्रहण कराये राजा ने सूरि से कहा कि - हे भगवन् ! आप शिव को वंदन करो । सूरि ने कहा
भव रूपी बीज के अंकुर को उत्पन्न करनेवालें राग आदि जिसके क्षय को प्राप्त हुए हैं, ब्रह्मा, विष्णु शिव अथवा जिन उसको नमस्कार हो । जिस किसी भी समय में, किसी अवस्था में और जिस किसी भी नाम से तुम हो, दोष रूपी मल से रहित वह एक तुम ही हो, हे भगवन् ! तुमको नमस्कार हो ।
इस प्रकार की स्तुति से आश्चर्य चकित हुए राजा ने गुरु से कहा कि - हे पूज्य ! आप मत को छोड़कर यथार्थ तत्त्व को प्रकाशित करें । सूरि ने कहा- शास्त्र के संवाद से पर्याप्त हुआ । जो यह शिव तुम्हारें आगे तत्त्व को कहता हैं, उसकी उपासना करो । रात्रि के समय में मुनि के ध्यान से प्रत्यक्ष होकर शिव ने राजा से कहा कि-जिनों के द्वारा कहे हुए स्याद्वाद तत्त्व को करते हुए तुम अपने इष्ट को प्राप्त करोगे । उससे राजा सम्यक्त्व के अभिमुख हुआ ।
एक बार पवन-क्रिया में चतुर ऐसा देवबोधि कमल-नाल को दो दंड के रूप में और तंतुओं से बंधे हुए केलों के पत्र से आसन कर और शिष्य के स्कंध पर स्थापन कर उसमें बैठकर राज सभा में आया । विस्मय से युक्त राजा ने उसका सन्मान किया । पूजा के अवसर पर राजा को जिन की पूजा करते हुए देखकर देवबोधि ने कहा कि - हे राजन् ! तुम्हें कुल-धर्म का उल्लंघन करना योग्य नहीं हैं। जैसे कि
यदि नीति में निपुण पुरुष निन्दा करे अथवा स्तुति करें । यथेच्छा से लक्ष्मी आय अथवा जाय । आज ही मरण हो अथवा युगान्तर में लेकिन धीर पुरुष न्याय-मार्ग से पद भी विचलित नहीं होतें ।
राजा ने कहा- सर्वज्ञ के द्वारा कहने से जैन-धर्म सत्य हैं ।
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