Book Title: Updesh Prasad
Author(s): Jayanandsuri, Raivatvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 418
________________ उपदेश-प्रासाद - भाग १ ४०३ हेलेसा इस प्रकार से रटन करते है । वह तेज अदत्तादान के सत्त्व से ही उत्पन्न हुआ है। इस प्रकार से संवत्सर के दिन परिमित उपदेश-संग्रह नामक उपदेश-प्रासाद ग्रन्थ की वृत्ति में छठे स्तंभ में बयासीवाँ व्याख्यान संपूर्ण हुआ। तिरासीवा व्याख्यान अब इस व्रत को ग्रहण नहीं करने से जो फल प्राप्त होता है उस को कहते है कि जैसे दूध को पीनेवाली बिल्ली ऊपर स्थित लकड़ी को नहीं देखती, वैसे ही पर धन को ग्रहण करता हुआ चोर वध, बन्धादि को नहीं देखता। शिकारी, मच्छीमार, बिल्ली आदि से चोर अधिक होता है, क्योंकि यह राजाओं के द्वारा निग्रहित किया जाता है न कि इतर । भावार्थ तो इस प्रबंध से जानें श्रेणिक के पिता प्रसेनजित् के राज-पुर राजगृह में लोहखुर चोर था । एक बार द्यूत क्रीड़ा कर और याचकों को जीता हुआ द्रव्य देकर, क्षुधा से आक्रान्त हुआ दो प्रहर के पश्चात् भोजन के लिए स्व गृह में जाता हुआ राजा के महल से आती सरस रसोई की सुगंध को संघकर उसने सोचा कि- मुझे अञ्जन-विद्या से कुछ-भी गहन नहीं है । जाकर मैं राज-भोजन को करता हूँ। अदृश्य विद्या से राजा के साथ एक पात्र में भोजन कर स्व-गृह गया । इस प्रकार से वह प्रतिदिन रस की गृद्धि से वहाँ आने लगा । जो कि कहा गया है कि इंद्रियों में जीभ, कर्मो में मोहनीय, तथा व्रतों में ब्रह्मचर्य और

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