Book Title: Updesh Prasad
Author(s): Jayanandsuri, Raivatvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 439
________________ ४२४ उपदेश-प्रासाद - भाग १ इत्यादि वाक्य से प्रतिबोधित हुए राजा ने दुाय रूपी घाव का नाश करनेवाली रोहिणी से क्षमा माँगी । वह जैसे है कि विश्व में पद-पद पर दुराचार का उपदेश देनेवाले है लेकिन हितकारी विषय को भेंट करने के लिए विरल ही कोई होते है। इस प्रकार से कहकर स्व दार संतोष व्रत के साथ राजा गृह में आया । तत्पश्चात् धनावह ने भी पर-देश से धन ग्रहण कर गृह में प्रवेश किया । एक दिन दासी के मुख से राजा के आगमन की वार्ता को सुनकर उसने सोचा कि- निश्चय से इसने शील का खण्डन किया है । गुप्त रूप में आये राजा कैसे स्त्री को छोड़ सकता है ? इस प्रकार से हृदय के अंदर विकल्पों को करता हुआ रात्रि के समय निःस्नेहपर रहा । रोहिणी के पुण्योदय से वृष्टियों के द्वारा और नदी के पूर से सर्व नगर का रोधन किया गया । दया से युक्त उसने गोपुर के ऊपर स्थित होकर और हाथ में पानी लेकर इस प्रकार से कहा कि- हे नदी! गंगा के समान यदि मेरा शील त्रिशुद्धि से है तो तुम दूर हटो । इस प्रकार के वचन को सुनकर वह पूर दृष्टि से अगोचर हुआ । सभी ने उसके शील की प्रशंसा की । स्नेह सहित धनावह ने भी उसके शील धर्म को नमस्कार किया। __ श्रीरोहिणी ने इस श्रीजिनराज धर्म की अद्भुत प्रभावना कर और मनुष्य जन्म को कृतार्थ कर अत्यंत सुकृत की प्रतिष्ठा को प्राप्त की थी। इस प्रकार से संवत्सर के दिन परिमित उपदेश-संग्रह नामक उपदेश-प्रासाद ग्रन्थ की वृत्ति में छठे स्तंभ में सत्यासीवाँ व्याख्यान संपूर्ण हुआ।

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