Book Title: Updesh Prasad
Author(s): Jayanandsuri, Raivatvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 445
________________ उपदेश-प्रासाद - भाग १ ४३० ने मोक्ष के इच्छुकों को सर्वथा ही अब्रह्म का निषेध किया है। स्वामीमंडलाधिपति है । उसने भी अदत्त की अनुमति नहीं दी है । अन्य दोनों अदत्तों की स्वयं ही कल्पना करें। चौथे व्रत का भंग तो प्रकट ही है । पाँचवें परिग्रह व्रत के भंग के बिना स्त्री की भी संभावना नहीं है, यह तात्पर्य है । जैसे कि दंडकाचार में जो युवति का संग करता है, उसने नव वाड़ों का भंग, दर्शन का घात और सर्व व्रतों का नाश किया है । इस प्रकार से बहुत दोषों से दूषित अब्रह्म को जानकर हे जीव ! तुम दुःशीलता का त्याग करो। अब कोई गृहस्थ भी प्रथम वय से ही आजीवन ब्रह्मव्रत का पालन करता हो, उसे दर्शाते है - किन्ही उत्तम पुरुषों के द्वारा बाल्य काल में भी आदर किये हुए नियम का पालन किया जाता है, जैसे कि एक दंपती ने शुक्ल और कृष्ण स्व-स्व पक्षों में ब्रह्मचर्य का पालन किया था । ___ श्लोक में कहा हुआ यह प्रबंध है कच्छदेश में अर्हद्दास श्रेष्ठी था और उसकी पत्नी अर्हद्दासी थी । उन दोनों को विजय नामक पुत्र था और वह गुरु के समीप में पढ़ता था । उसने एक बार मुनि के मुख से शील के माहात्म्य को सुना । जैसे कि शील रूपी अलंकार को धारण करनेवालों के साथ देव नौकर के समान आचरण करते हैं, सिद्धियाँ साथ में रहती है और संपत्ति समीप में स्थित होती है। - इस प्रकार से सुनकर विजय ने स्व दार संतोष व्रत ग्रहण किया । स्व पत्नियों का भी शुक्ल पक्ष में सेवन न करूँ इस प्रकार से नियम ग्रहण किया । इस ओर उसी नगर में धनावह और धनश्री की

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