Book Title: Updesh Prasad
Author(s): Jayanandsuri, Raivatvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 446
________________ ४३१ उपदेश-प्रासाद विजया नामकी पुत्री थी। एक बार उसने शील का वर्णन सुनकर स्व पति संतोष के व्रत में कृष्ण पक्ष में स्व पति का भी सेवन न करूँ इस प्रकार से अभिग्रह ग्रहण किया । घुणाक्षर के न्याय से दैवद्वारा सूत्रित और तुल्य रूपवालें उन दोनों का ही विवाह हुआ । रात्रि के समय स्व आवास के मंदिर में सोलह शृंगारों से सजी और नूतन, भव्य वस्त्र को पहनी हुई वह स्वामी के समीप में आयी । विजय ने सुंदर नेत्रोंवाली उसे कहा तुम मेरा हृदय, जीव, उच्छ्वास अथवा प्राण ही हो । प्रिया जन ही प्राणियों को संसार सुखों का सर्वस्व है । हे चकोर समान नेत्रोंवाली ! यदि तुम मेरी प्रिया हो तो स्वर्ग लोक के सुख से क्या ? यदि तुम मेरी प्रिया नहीं हो तो स्वर्ग लोक के सुख से क्या ? परंतु हे शुभे ! पूर्व में मैंने तीनों प्रकार से शुक्ल पक्ष में संपूर्णतया शील को ग्रहण किया था । अब उस पक्ष के तीन दिन अवशिष्ट है, पश्चात् हम दोनों लीला का अनुभव करेंगे । इस प्रकार से सुनकर उसने अत्यंत म्लानि प्राप्त की । उसके म्लानि का कारण पूछने पर विजया ने कहा कि- हे स्वामी ! मुझे कृष्ण पक्ष का नियम है । उसे सुनकर अत्यंत ही खेदित हुए मनवाले पति को देखकर विजया ने कहा कि- हे नाथ ! आप दूसरी प्रिया से विवाह कर भोगों को भोगों । पुरुषों को बहुत प्रियाएँ होती है, जैसे कि वसुदेव को बहोत्तर हजार स्त्रियाँ और चक्रवर्तीयों को एक लाख और बानवें हजार स्त्रियों का अंतःपुर होता है । यह सुनकर विजय ने उसे कहा कि- हे सुशीले ! दीक्षा से निवारण कर माता-पिता ने मुझे बलात्कार से विवाहित किया है । न ही विषयों के सेवन से आयु की वृद्धि, जगत् में महत्त्व अथवा सर्व जीवों से अधिकता ही होती है । केवल ही मन में उत्सुकता मात्र होती है । क्योंकि विशेषावश्यक की वृत्ति में

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