Book Title: Updesh Prasad
Author(s): Jayanandsuri, Raivatvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 452
________________ ४३७ उपदेश-प्रासाद - भाग १ दान दो । उस प्रार्थना का अंगीकार कर राजा न्याय से उस राज्य का पालन करने लगा । सभी ने बल पूर्वक पूर्व राजा की पुत्री के साथ उसका विवाह कराया। एक बार गवाक्ष में बैठी हुई उस नवयौवना ने भी एक श्रेष्ठी के पुत्र को देखकर नेत्र रूपी बाण उसके हृदय पर मारा । वह भी रानी से मिलने के लिए उत्सुक हुआ एक पुरुष प्रमाणवाली, हजार दीपकों की समूहवाली और मध्य में रिक्त ऐसी दीपिका कराकर स्वयं ही उसके मध्य में स्थित हुआ । संकेतित पुरुषों ने राजा को उस दीपिका को भेंट दिया । राजा ने उसे स्व अंतःपुर में रखाया । समय को प्राप्त कर और उसके मध्य से निकलकर श्रेष्ठी के पुत्र ने रानी के साथ विषयों को भोग कर पुनः उसी के मध्य में प्रवेश किया । एक दिन उस पुरुष के वस्त्र से धागा दीपिका की काष्ट की सन्धि से बाहर निकला । राजा उसे देखने लगा । जैसे-जैसे वह उस धागे को खींचता है, वैसे-वैसे वृद्धि को प्राप्त होते उस धागे को देखकर और उसके मध्य में जार पुरुष का निश्चय कर वह मौन को धारण कर स्थित हुआ । उसके बाद स्व गृह में पट्ट देवी के हाथ से रसोई कराकर उसने योगी को भोजन के लिए निमंत्रित किया । छह पत्रों के समूह को स्थापित कर राजा ने भोजन के लिए बैठते हुए योगी से कहा कि- हे स्वामी ! अपनी शिखा में स्थित डिब्बी के मध्य में से उस स्त्री को बाहर निकालो । उसने भय से वैसा ही किया । राजा ने उस स्त्री से कहा कि-पूर्व के समान तुम भी उस पुरुष को प्रकट करो। उसने भी वैसा किया । उसने स्व स्त्री से कहा कि- हे स्त्री ! इस दीपिका से तुम्हारे पति को बाहर निकालो, किसलिए उसे कारागार में डाला है ? उसके साथ भोजन करो । उसने भी राजा का कहा किया । भोजन से उनको संतोषित कर अंदर वैराग्य से युक्त राजा ने- विषयों को

Loading...

Page Navigation
1 ... 450 451 452 453 454