Book Title: Updesh Prasad
Author(s): Jayanandsuri, Raivatvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 449
________________ ४३४ उपदेश-प्रासाद - भाग १ यह सुनकर जिनदास ने उस स्वरूप को पूछा । केवली ने उन दोनों का वृत्तांत कहा । भक्ति से भरे हुए जिनदास ने वहाँ जाकर वचनों से अगोचर उन दोनों की भक्ति की । वहाँ उसने नागरिकों को उन दोनों के दुश्चर चरित्र के बारे में कहा । तब माता-पिता आदि ने उसे जाना । मनोरथ के पूर्ण हो जाने पर वह श्रावक स्व गृह चला गया। प्रतिज्ञा के पूर्ण हो जाने पर दीक्षा को ग्रहण कर वें दोनों दंपती मुक्ति के पात्र हुए। निश्चय से कोई शील का प्रभाव है जिससे वें दोनों दंपती मुनि से प्रशंसनीय हुए थे । उससे सुख की इच्छावाले सदा ही सौभाग्य के हेतु और भव दुःख का वारण करनेवाले उस ब्रह्मचर्य को धारण करें। इस प्रकार से संवत्सर के दिन परिमित उपदेश-संग्रह नामक उपदेश-प्रासाद ग्रन्थ की वृत्ति में छठे स्तंभ में नव्यासीवाँ व्याख्यान संपूर्ण हुआ। नब्बेवा व्याख्यान अब स्त्रियों में अनेक दोषों को जानकर व्रत को स्वीकार करना चाहिए, इसे इस प्रकार से कहते है कि कापट्य मूलवाली स्त्रियों में बुद्धिमान् पुरुष विश्वास न करे । वह अन्य से कहती है, अन्य को ग्रहण करती है (अन्य को करती है) और उसे कदापि विषय में तृप्ति नहीं है। केवल ही स्त्रियों को रति में कदापि तृप्ति नहीं होती है, उसे कहते है कि __ स्त्रियों का आहार द्विगुणा, उनमें लज्जा चार गुणी, छह गुणा व्यवसाय और आठ गुणा काम कहा गया है ।

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