Book Title: Updesh Prasad
Author(s): Jayanandsuri, Raivatvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 442
________________ ४२७ उपदेश-प्रासाद - भाग १ व्यापारी हूँ। जहाज के भग्न हो जाने पर यहाँ आया था । देवता के साथ भोगों को भोग कर स्थित था । जब तुम दोनों आये तब अत्यंत छोटे अपराध में भी उसने ऐसी अवस्था की है । भय-भीत हुए उन दोनों ने सोचा कि- इसकी जो गति हुई है, वह गति हम दोनों को भी दुर्लभ नहीं है । पुनः उन दोनों ने भी उस पुरुष से पूछा कि- हम दोनों का छुटकारा कैसे होगा ? पुरुष ने कहा कि- पश्चिम दिशा में शैलक यक्ष है । पर्व तिथि में वह बड़े शब्द से कहता है कि- मैं किसे तारूँ? मैं किसका पालन करूँ ? तुम दोनों उसके चैत्य में जाकर पूजा करना । समय प्राप्त होने पर कहना कि- हे यक्षराजा ! तुम हम दोनों का पालन करो । उसे सुनकर उन दोनों ने वैसा किया । तब यक्ष ने कहा किहे भद्रों ! वह व्यंतरी दुष्ट है । तुम दोनों मत डरो । तुम दोनों मेरे द्वारा विकुर्वणा कीएँ हुए अश्व के पीठ पर बैठो । इस प्रकार से करने पर वह देवता आकर के सराग और मनोहर वाणी से तुम दोनों को क्षोभित करेगी । जिसको क्षोभ होगा, उसे मैं समुद्र के जल में गिरा दूंगा । इस प्रकार से उन दोनों के स्वीकार करने पर वह यक्ष उन दोनों को स्व पीठ के ऊपर बैठाकर चला । उतने में वह देवी स्व आवास में आयी । उन दोनों को नहीं देखकर वह पीछे दौडी । दोनों को भी आश्रय कर राग और शोक से युक्त वचनों को कहने लगी कि-हे मुग्ध ! मुझ अबला को छोड़कर तुम दोनों का गमन योग्य नहीं हैं । तुम दोनों मेरे अपराध को क्षमा करो । इत्यादि अनेक आलापों से क्षोभित हुआ एक जिनरक्षित सराग की दृष्टि से देखने लगा । अवधि से उसके चित्त को विषयासक्त जानकर यक्ष ने उसे गिराया । देवी ने तलवार से टुकड़ों में किया । दृढ प्रतिज्ञाधारी जिनपाल ने तो उसके संमुख भी नहीं देखा । यक्ष ने उसे क्षेम से चंपा में छोड़ा । यक्ष स्व स्थान पर गया । जिनपाल ने इस स्वरूप को माता-पिता से कहा । वैराग्य से श्रीवीर

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