Book Title: Updesh Prasad
Author(s): Jayanandsuri, Raivatvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 437
________________ उपदेश-प्रासाद भाग १ ४२२ 1 लज्जित नहीं होते हैं । अब यह राजा मत्त हाथी के समान ही मेरे शील को उखाड़ देगा, इसलिए उपाय से ही इसे बोधित करना चाहिए । इस प्रकार से सोचकर उसने दासी से कहा कि- आज रात्रि के समय तुम राजा को यहाँ भेजो । दासी के वचन से आनंदित हुआ राजा उसके सदन में आया। भूमि के ऊपर दृष्टि को रखकर उसने भी अभ्युत्थान आदि से राजा की सेवा की। भोजन के समय में स्वर्ण, चाँदी, कांस्य आदि की नयी-नयी थालियों को रखकर और नूतन - नूतन वेष को धारण की हुई स्त्रियाँ सैंकड़ों की संख्या में कमरे से निकलकर थालियों में विध वर्ण और आस्वादनवाली एक रसोई को भोजन के लिए पीरोसने लगी । नयी नयी थालियों में से भी भोजन रस का आस्वादन करते हुए एक ही रस को जानकर आश्चर्य चकित हुए राजा ने उसे कहा कि - हे मुग्धे ! इन रसों में विशेषता क्यों दिखायी नही दे रही है ? उसने भी कहा कि- हे राजन् ! स्वाद की एकता के कारण से विवेकी तो एक पात्र में हाथ को रखता है, जैसे कि - स्थान और स्थगन के भेद से यदि रस में विशेषता नहीं है तो रूप, वेष आदियों के भेद से स्त्रियों में कौन - सा भेद है ? जिस प्रकार से कोई भ्रान्ति से आकाश को अनेक चन्द्रवाला देखता है, वैसे ही काम के भ्रम से भ्रान्त हुआ कामुक स्त्रियों में मोहित होता है । हे राजन् ! लौकिक शास्त्र में भी अब्रह्म निन्दा - पात्र है, , जैसे कि लिंगपुराण में मास तक आहार से रहित और पारणे में कन्दमूल का भोजन करनेवाला, मन में तापसी की इच्छा करता हुआ वह भी दरवाजे में मुख आने से मृत हुआ । जैसे कि सेलकपुर के उद्यान में मठ में मासोपवासी तापस रहता था ।

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