Book Title: Updesh Prasad
Author(s): Jayanandsuri, Raivatvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 436
________________ उपदेश-प्रासाद - भाग १ ४२१ अनात्ता-अपरिगृहीता, वेश्या, स्वैरिणी, प्रोषित-भर्तृकाजिसका स्वामी पर-देश गया हो अथवा-जिसका नाथ नहीं हो, उसमें गति-आसेवन, यह पर-स्त्री नही है, इस प्रकार की बुद्धि से अथवा अनाभोग आदि से, इस प्रकार से यह द्वितीय अतिचार है। तथा कन्या दान के फल की इच्छा से अथवा संबंध आदि से दूसरों के संतानों का विवाहन-परिणयन का विधान वह पर-विवाह करण हैं । स्व संतानों में भी संख्या का अभिग्रह न्यायकारी है । कृष्ण और चेटक राजा का स्व संतानों में भी जो विवाह का नियम सुना जाता है, वह चिन्तक के अंतर के असद्भाव में ही देखा जाता है, इस प्रकार से यह तृतीय अतिचार है। तथा मदन में-काम में, अत्याग्रह-तीव्रानुराग, इस प्रकार से यह चौथा अतिचार है। अनंग-काम, उसकी प्रधानतावाली क्रीड़ा । पर-दाराओ में होंठ आदि के चुम्बनको करनेवाले को अनंग-क्रीड़ा होती है अथवा वात्स्यायनादि के द्वारा कहे हुए चौरासी करणों से आसेवन, इस प्रकार से यह पञ्चम अतिचार है। __ ब्रह्मचर्य व्रत में इन अतिचारों का त्याग करना चाहिए । इस विषय में रोहिणी का उदाहरण है पाटलीपुर में श्रीनन्द राजा शासन कर रहा था । वहाँ धनावह श्रेष्ठी था । उसकी प्रिया रोहिणी सुशीला थी । एक दिन श्रेष्ठी समुद्र की यात्रा पर गया । राजा ने एक बार गवाक्ष में बैठी हुई रोहिणी को देखी । उसे देखकर कामातुर हुए राजा ने वहाँ पर अपनी दासी भेजी । दासी ने कहा कि- हे रोहिणी ! तेरा पुण्य बड़ा है, जिससे कि राजा तेरे अंग के आलिंगन की अभिलाषावाला हुआ है । यह सुनकर उसने सोचा कि- अहो ! मूढ़ जन निज कुल और धर्म को भी छोड़ते हुए

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