Book Title: Updesh Prasad
Author(s): Jayanandsuri, Raivatvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 430
________________ ४१५ उपदेश-प्रासाद - भाग १ की ज्योत्स्ना में सोया हुआ था । प्रिय से वियोगिनी और उसके रूप से मोहित हुई विद्याधर पुत्री ने उसे देखकर कहा कि- हे स्वामी ! तुम मुझे स्त्रीपने से स्वीकार करो । मैं तुमको अपूर्व दो विद्याएँ दूँगी । मेरे लावण्य आदि को देखो और मेरे वचन को अन्यथा मत करो । इस प्रकार से कहकर कंपायमान शरीरवाली जब वह उसके चरणों में गिरी, तब नागिल ने अग्नि से दहन कीये जाते हुए के समान ही अपने दोनों पैरों को खींच लीये । क्रोधित हुई उसने लोह-गोल की विकुर्वणा कर उसे इस प्रकार से कहा कि- तुम मुझे भजो, नहीं तो मैं तुझे भस्मसात् करूँगी । निर्भय उसने सोचा कि दशावस्थावाला दशग्रीव(रावण) जो देव-दानवों को दुर्जय और कंदर्प तथा राक्षसों का स्वामी था, वह भी शील रूपी अस्त्र से ही साधा गया था । पूत्कार करती हुई उसने जलते हुए लोह-गोल को उसके सिर पर गिराया, उतने में नागिल ने नमस्कार का स्मरण करते हुए गोलक को टुकड़ों में किया । लज्जा से अदृश्य होकर और क्षण में नन्दा का स्वरूप कर तथा दासी के द्वारा उद्घाटित कीये हुए गृह के द्वार से आकर वह इस प्रकार से कहने लगी कि- हे स्वामी ! मैं आपके बिना पिता के घर में रति को प्राप्त नहीं कर रही है। उसने सोचा कि- वह नन्दा स्व पति में संतोष नियमवाली है । निश्चय से उसकी यह चेष्टा नहीं है । रूप तो वैसा है, परंतु परिणाम वैसे नहीं है। इसलिए परीक्षा के बिना विश्वास उचित नहीं है । इस प्रकार से विचार कर उसने कहा कि- हे प्रिये ! यदि तुम सत्य नन्दा हो तो मेरे समीप में अस्खलित गति से आओ ! जब वह विद्याधरी आने लगी, तब वह स्खलित हुई । धर्म की महिमा से सत्य उसके उस कपट को देखकर कपटान्तर से उसने शील भंग के भय से लोच किया । यक्ष के दीपक ने कहा कि- तुम स्व

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