Book Title: Updesh Prasad
Author(s): Jayanandsuri, Raivatvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 431
________________ उपदेश-प्रासाद - भाग १ ४१६ घर जाओ । यक्ष ने कहा कि- मैं यावज्जीव तुम्हारी सेवा करूँगा । मेरे तेज से उद्योतिका (उज्झेई) नहीं होगी । सूर्योदय होने पर नन्दा सहित गुरु के पास में व्रत को प्राप्त कर और आगे स्थित यक्ष दीपक से आश्चर्य सहित पृथ्वी के ऊपर विहार करते हुए उसने सर्व संयम का परिपालन कर तथा हरिवर्ष में युगलियों में जन्म लेकर और वहाँ से अनुक्रम से मनुष्यत्व को प्राप्त कर मुक्ति प्राप्त की। जिसने द्रव्य दीपक से शुभ भाव दीप को स्व चित्त में धारण किया था और स्व-दार संतोष की दृढ़ प्रतिज्ञावाला वह यह नागिल है, जिसने विद्याधरी से भी कंपन को प्राप्त नहीं किया था। इस प्रकार से संवत्सर के दिन परिमित उपदेश-संग्रह नामक उपदेश-प्रासाद ग्रन्थ की वृत्ति में छठे स्तंभ में पचासीवाँ व्याख्यान संपूर्ण हुआ। छियासीवा व्याख्यान पुनः इस व्रत की स्तुति की जाती है जो गृही स्व पत्नीयों में संतुष्ट है और पर-दाराओं से पराङ्मुख है, वह ब्रह्मचारीत्व से अतिकल्प कहा जाता है । ब्रह्मचर्य में रत गृही मुनि के समान कहा जाता है । इस विषय में यह प्रबन्ध हैं श्रीपुर में दो भाई कुमारदेव और चन्द्र नामक राज-पुत्र गुरु की देशना को सुनने के लिए उद्यान में गये । मुनि ने कहा जो करोड़ स्वर्ण देता है अथवा स्वर्ण से जिन-भवन को कराता है, उसे उतना पुण्य नहीं है, जितना कि ब्रह्मचर्य को धारण करने से होता है।

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