Book Title: Updesh Prasad
Author(s): Jayanandsuri, Raivatvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 421
________________ ४०६ उपदेश-प्रासाद - भाग १ के कहने पर श्रेष्ठी ने उसे चोरी आदि का प्रत्याख्यान कराया । हे भद्र ! एकत्व और अन्यत्व भावना से क्षणार्ध में ही पाप नष्ट हो जाते है । तुम सर्व जीवों को मैत्री के भाव से देखो । तुम आपदा से उद्धार कारक इस नमस्कार मंत्र का संस्मरण करो । मैं जल के लिए जाता हूँ। चोर ने कहा कि- हे कृपानिधि ! इस प्रत्याख्यान और मंत्र से मेरा पाप जायगा ? श्रेष्ठी ने कहा कि हजारों पापों को कर तथा सैंकड़ों जन्तुओं को मारकर और इस मंत्र का जाप कर तिर्यंच भी स्वर्ग में गये हैं। __इत्यादि से उसे उपदेश देकर स्वयं ही जल के लिए गया । उस समय आयुके बंधन से समाधि से मरकर चोर सौधर्म में देव हुआ । यह सत्संगति का फल है, क्योंकि महानुभावों का संसर्ग किसको उन्नति कारक नहीं है ? गंगा में प्रविष्ट हुआ सड़क का पानी देवों के द्वारा भी वंदन किया जाता है। श्रेष्ठी भी जल ग्रहण कर आया । उसे मृत देखकर स्वयं के द्वारा आचरण कीये राज-विरुद्ध को जानकर शक्रावतार चैत्य में कायोत्सर्ग से स्थित हुआ । सुभटों ने सर्व वृत्तांत राजा से निवेदन किया । राजा ने आदेश दिया कि- हे सुभटों ! इस गाय के समान मुखवाले सिंह को चोर के समान ही विडंबित कर मारो । सुभटों ने चैत्य में स्थित श्रेष्ठी को राजा का आदेश कहा । वह ध्यान से चलित नहीं हुआ। तब वें विडंबना करने लगें । उतने में वह लोहखुर देव भव प्रत्यय अवधिज्ञान से धर्म-गुरु की ऐसी अवस्था को देखकर सोचने लगा कि एक अक्षर के भी, अर्ध पद के अथवा एक पद के दाता को विस्मरण करता हुआ पापी है । पुनः धर्म का उपदेश देनेवाले को विस्मरण करनेवाले की क्या बात करें?

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