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उपदेश-प्रासाद
भाग १
पचपनवाँ व्याख्यान
अब सम्यक्त्व के छह स्थानों में जीव-सत्ता नामक प्रथम स्थान का यह स्वरूप हैं
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जीव अनुभव से सिद्ध हैं और ज्ञान रूपी चक्षुवालों को वह प्रत्यक्ष हैं तथा वह अनेक वांछाओं के द्वारा जाना जाता है, इस प्रकार से वही अस्ति स्थान हैं ।
यहाँ पर कोई मिथ्यात्वी इस प्रकार से जीव के अभाव का आवेदन करतें हैं कि- आत्मा नहीं हैं, सम्यग् प्रकार से पाँच इन्द्रियों के द्वारा प्रत्यक्ष से ग्रहण करने के लिए अशक्यत्व के कारण से और आकाश- कुसुम के समान होने से, इसलिए आत्मा नहीं हैं ।
उसे दूर करने के लिए कहा जाता है कि- निश्चय ही स्वसंवेदन से अनुभव होनेवाला आत्मा है, तथा ज्ञान चक्षुवालों को अर्थात् केवलियों को वह प्रत्यक्ष हैं। जीव न कि केवली-गम्य हैं किन्तु अनुमान - गम्य से भी सिद्ध हैं। वह अनेक वांछाओं के द्वारासुख, दुःख और कल्पना जालों के द्वारा निश्चय किया जाता हैं । यहाँ पर यह साधन हैं । चैतन्य, सुख, दुःख और इच्छा आदि का कारण होने से आत्मा हैं । जो कार्य है उसका वह वह कारण- भूत हैं, जैसे कि घड़े का कारण मिट्टी का पिंड हैं वैसे ही यह जीव है । जिनकी सम्यग् बुद्धि हैं, उनकी सम्यक्त्व स्थानता जानी जाती हैं, इस प्रकार से निश्चय ही वही प्रथम अस्ति-स्थान हैं ।
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अब जीव नित्यत्व स्थान का निरूपण किया जाता हैंद्रव्यार्थ की अपेक्षा से आत्मा व्यय और उत्पाद से विवर्जित है तथा पर्याय पक्ष से अनित्य है और सद्-भाव से शाश्वत हैं । द्रव्य का आश्रय कर यह आत्मा व्यय-उत्पाद से वर्जित हैं विनाश और उत्पत्ति से विरहित है, अर्थात् यह आत्मा कभी-भी