Book Title: Updesh Prasad
Author(s): Jayanandsuri, Raivatvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 404
________________ ३८६ उपदेश-प्रासाद - भाग १ प्राप्त किया था । (सत्य से जिसने देवालय में सौख्य को प्राप्त किया था)। इस प्रकार से संवत्सर के दिन परिमित उपदेश-संग्रह नामक उपदेश-प्रासाद ग्रन्थ की वृत्ति में छटे स्तंभ में उगणासीवाँ व्याख्यान संपूर्ण हुआ। अस्सीवा व्याख्यान इस प्रकार से द्वितीय व्रत कहा गया । अब तृतीय व्रत के भेदों को कहते हैं ___ आद्य स्वामी से अदत्त तथा द्वितीय जीव-अदत्त, तृतीय जिन-अदत्त और चतुर्थ गुरु-अदत्त हैं । आद्य अदत्त सूक्ष्म और बादर के भेदों से दो प्रकार का माना गया है । श्रावक को सूक्ष्म में यतना करनी चाहिए और स्थूल को छोड़ दें। स्वामी के द्वारा धन, स्वर्ण आदि जो वस्तु नहीं दी गयी है, उसको ग्रहण करना वह आद्य स्वामी-अदत्त है । स्वयं जिस फलादि सचित्त का भेदन करता है, वह अपर-द्वितीय जीवादत्त है । क्योंकि उस फलादि जीव ने निज प्राण उसे नहीं दीये हैं । तीर्थंकर की आज्ञा नहीं होने से साधु को गृहस्थ के द्वारा दिया गया आधाकर्मादि तीर्थंकरादत्त है । इस प्रकार से श्रावक को अनंतकाय, अभक्ष्यादि तीर्थंकर अदत्त है । सर्व दोषों से विमुक्त भी जो गुरुओं को निमंत्रण कीये बिना भोजन किया जाय वह गुरु-अदत्त है, यह अर्थ है । यहाँ स्वामी-अदत्त का अधिकार है । सूक्ष्म-स्वामी को अनुज्ञापन कीये बिना तृण, मिट्टी के ढेले आदि के ग्रहण रूप में है। बादर-जिससे जन में चोर का सूचन हो, वह स्थूल भी कहा जाता है । चोरी की बुद्धि से खेत, खलिहान आदि में अल्प का भी ग्रहण स्थूल ही है । इन दोनों

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